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बिहार के पूर्व डिप्टी सीएम तेजस्वी यादव तथा यूपी के पूर्व सीएम अखिलेश यादव Photograph: (इंटरनेट मीडिया)
वाईबीएन संवाददाता, शाहजहांपुर । मुलायम सिंह यादव और लालू प्रसाद की विरासत उनके सुपुत्र अखिलेश यादव और तेजस्वी यादव को मिली, लेकिन न संगठन संभला न समाज के हर वर्ग को साथ रखने की परंपरा को सहेज सके। राजनीतिक विफलताओं ने बिहार औ यूपी में विपक्ष को कमजोर किया। परिवारिक कलह और जातीय समीकरण न साध पाने का खामियाज़ा भी दिखा।
पीडीए का फार्मूला भी सबसे बडी कमजोरी बन गया। दोनों ही नेताओं ने 100 नंबर के प्रश्न पत्र को पहले ही 75 अंकों में सीमित कर दिया। अर्थात सवर्ण समाज का बडा धडा अपने से दूर करके अब 75 प्रतिशत में 100 प्रतिशत अंक प्राप्ति का प्रयास कर रहे, जो कि असंभव है। जबकि भाजपा सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास की बात करके व्यापक दृष्टिकोण के साथ राजनीति कर रही है।
विरासत मिली, नेतृत्व नहीं निभा सके
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उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव और बिहार में लालू प्रसाद यादव, दोनों नेताओं ने अपने-अपने राज्यों में गहरी पकड़, मजबूत संगठन और जातीय व सामाजिक समीकरणों पर आधारित राजनीति खड़ी की। लेकिन वही विरासत जब अखिलेश यादव और तेजस्वी यादव के हाथों में पहुंची, तो संभल नहीं सकी। अखिलेश को मुलायम सिंह यादव ने मुख्यमंत्री की कुर्सी सौंप दी थी, पर दोबारा सत्ता में वापसी न कर पाने का कारण सिर्फ विकास कार्यों की कमी नहीं बल्कि संगठनात्मक ढीलापन था।
अखिलेश की कमी—काम हुए, पर जनता तक संदेश नहीं पहुंचा
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अखिलेश यादव ने अपने कार्यकाल में 108 एंबुलेंस सेवा, यूपी-100 पुलिस रिस्पांस सिस्टम, लखनऊ-आगरा एक्सप्रेसवे, मेट्रो जैसी कई योजनाएं दीं, जिनकी आज भी प्रशंसा होती है।
लेकिन सबसे बड़ी चूक रही— कमज़ोर संगठन, कार्यकर्ताओं से दूरी, अपनी सरकार की उपलब्धियों का प्रचार न कर पाना, परिवारिक कलह।
2017 में शिवपाल सिंह यादव की नाराज़गी, परिवार का टूटना और अपर्णा यादव का भाजपा में जाना, इन सबने पार्टी की छवि को गहरा नुकसान पहुंचाया।
तेजस्वी की चुनौती—घर ही न संभला, तो बिहार कैसे संभलता
बिहार में भी लालू प्रसाद यादव की विरासत तेजस्वी के हाथ आई। उनकी लोकप्रियता युवाओं में थी, लेकिन वे अपने ही घर को एकजुट नहीं रख सके।
तेज प्रताप यादव के अलग होकर चुनाव लड़ने, RJD में आपसी खींचतान और कमजोर संगठन ने जनता का भरोसा तोड़ा। जो नेता अपने परिवार का तालमेल नहीं बिठा सके, वे जातीय विविधता और पूरे बिहार की राजनीति को कैसे साधते?
दोनों राज्यों में एक जैसी कहानी—जातीय संतुलन साधने में असफलता
मुलायम सिंह यादव की खासियत थी कि वे हर जाति से नेता तैयार करते थे—
ब्राह्मण समाज से जनेश्वर मिश्र,
क्षत्रिय समाज से अमर सिंह,
कुर्मी समाज से बेनी प्रसाद वर्मा
लोध समाज से धनीराम वर्मा, राममूर्ति सिंह वर्मा
मुस्लिम समाज से मो आजम खां, सरीखे नेताओं को चेहरा बनाया। अन्य पिछड़ी जातियों से अनेक चेहरे
यही उनकी ताकत थी, जिसने उन्हें क्लासिकOBC–Minority–UpperCasteबैलेंस का जनक बनाया।
लेकिन अखिलेश यादव इस संतुलन को आगे न बढ़ा सके। तेजस्वी यादव पर भी यही आरोप लगा कि उन्होंने संगठन और जातीय गठजोड़ को विस्तार नहीं दिया।
PDA बनाम सबका साथ, सबका विकास ... यानी 75 पूर्णांक के प्रश्नपत्र से 100 पूर्णांक वाले प्रश्नपत्र से बराबरी
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समाजवादी पार्टी ने PDA फार्मूला से सत्ता हथियाने के प्रयास किए, लेकिन जातियों के नेता तैयार नहीं किए। जो नेता बनाए भी वह क्षेत्रीय स्तर तक ही सिमट कर रहे गए। यानी सपा और राजद ने पहले से ही सवर्ण समाज से दूरी बनाकर राजनीति के 100 नंबर के प्रश्नपत्र को 75 अंक में समेट दिया। जबकि भाजपा ने सबका साथ, सबका विकास सबका विश्वास फार्मूला अपनाया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मध्यप्रदेश में मोहन यादव को मुख्यमंत्री बनाकर यह भी संकेत दे दिया कि भाजपा यादव विरोधी नहीं है। भाजपा मुस्लिम समाज में भी सेंध लगा रही है। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ भी सर्वसमाज में पैठ बना रहे हैं। इसके उलट राजद व सपा ने सवर्ण समाज के साधने में नाकाम है, जबकि मुलायम सिंह यादव और लालू प्रसाद यादव राजनीति तो दलित, पिछडा व अल्पसंख्यक की करते थे, लेकिन सबको साथ लेकर चलने की कला में निपुण थे, लेकिन अखिलेश यादव व तेजस्वी में वह तेज नहीं दिखाई दे रहा।
और विपक्ष की बडी कमजोरी
भाजपा का सबसे बड़ा हथियार आज—तगड़ा संगठन और हर समाज तक सक्रिय पहुंच है।
UP हो या बिहार, संघ और भाजपा का बूथ तक मजबूत नेटवर्क विपक्ष पर भारी पड़ा।
वहीं विपक्ष के संगठन, खासकर समाजवादी पार्टी और RJD ...,जगह-जगह कमजोर और निष्क्रिय दिखे।
शाहजहांपुर समेत पूरे यूपी में समाजवादी पार्टी का संगठन लचर है। कागजों पर संगठन चल रहा है। यहां कार्यकर्ता सम्मेलन में संगठन के नाम पर खिलवाड खुलेआम फजीहत हुई थी, लेकिन शीर्ष नेतृत्व आज तक चुप्पी साधे है। लगता है संगठन से कोई सरोकार ही नहीं है।
बिहार परिणाम नसीहत है... UP 2027 के लिए संकेत भी
बिहार विधानसभा चुनाव के ताज़ा घटनाक्रम ने साफ किया कि यदि संगठन कमजोर रहा और परिवारिक कलह जारी रही, तो राजनीति में सिर्फ विरासत काफी नहीं।
विश्लेषकों का मानना है कि यदि यही स्थिति रही तो 2027 में उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव का भी वही हश्र हो सकता है, जो बिहार में तेजस्वी का हुआ।
बिहार चुनाव परिणाम ... युवा नेताओं के लिए बड़ी चेतावनी
राजनीति सिर्फ भावनाओं पर नहीं, संगठन, जनसंपर्क, जातीय संतुलन और परिवारिक एकता पर भी चलती है। अखिलेश और तेजस्वी दोनों ने अपने-अपने राज्यों में युवाओं का भरोसा पाया, लेकिन उसे संभाल नहीं पाए। यह कहानी सिर्फ दो नेताओं की नहीं, बल्कि उन सभी के लिए सबक है जो विरासत तो पाते हैं, पर उसके अनुरूप नेतृत्व नहीं दे पाते। राजनीति में संकीर्ण विचारधारा नहीं वसुधैव कुटुंबकम की भावना की जरूरत है। दोनों दलों को पीडीए से आगे बढकर सर्व समाज के हितार्थ सोचना होगा, जमीन पर उतरकर राजनीति करनी पडेगी, कार्यकर्ताओं से मेल मिलाप के साथ जनता के बीच जाकर उनकी जरूरतों के लिए संंघर्ष करना पडेगा, तभी जनता का विश्वास बढेगा और 50 प्रतिशत से अधिक जनता का सीधे भरोसा जीतकर ही कुर्सी प्राप्त की जा सकेगी, 30 से 40 प्रतिशत वोट हासिल करके सरकार बनाने का दौर अब जा चुका है। उम्मीद है विरासत की राजनीति करने वाले युवा जरूर आत्मचिंतन करके नए सिरे से राजनीति करेंगे और देश समाज को नई ऊचाइयों पर ले जाने में कामयाब होंगे।
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