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योगी राज का असर: अब बांस बरेली नहीं, नाथनगरी बरेली कहिए...

एक समय था। जब बरेली की पहचान बांस और बेंत के बने सोफे और कुर्सियों से होती थी। इसीलिए एक दौर ऐसाआया कि बरेली को‘बांस-बरेली’ कहा जाता था। वक्त बदला।

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Sudhakar Shukla
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बरेली, वाईबीएन संवाददाता

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एक समय था। जब बरेली की पहचान बांस और बेंत के बने सोफे और कुर्सियों से होती थी। इसीलिए एक दौर ऐसाआया कि बरेली को‘बांस-बरेली’ कहा जाता था। वक्त बदला। प्राथमिकताएं बदली तो वक्त के चक्र ने बरेली की पहचान भी बदल दी। जो बरेली को बांस और बेंत के कारोबार की वजह से पूरी दुनिया में पहचाना जाता था।  उसी बरेली में अब यह परंपरागत कारोबार दम तोड़ रहा है। बांस और बेंत के कारीगर अब या तो लुप्त होने लगे हैं। या फिर उन्होंने दूसरे कारोबार की तरफ रुख कर लिया है। 

कभी बरेली शहर के अंदर खास तौर पर पुराने शहर में बांस और बेंत के काम घर घर हुआ करते थे। बांस और बेंत के बने सोफे, कुर्सियां दुनिया भर में मशहूर थे। इन दुकानों पर   दिन रात भीड़ रहती थी।  मार्केट में रौनक देखते बनती थी। अब ये कारोबार अंतिम दौर में है। बांस और बेंत की अब इक्का दुक्का दुकाने ही बचीं हैं। जो कारीगर और दुकानदार असम और पूर्वोत्तर राज्यों से बांस और बेंत का कच्चा माल लाकर बरेली में फर्नीचर बनाते थे। वह कलाकारी अब लुप्त होने के कारण पर है।

टैक्स दरों में राहत के लिए सरकारी मदद की आस

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 एक दुकानदार बताते हैं कि अब बरेली के इस परंपरागत कारोबार को सरकारी बचा सकती है।
वर्तमान में बांस और बेंत के कारोबार पर 12% टैक्स है। परिवहन भी प्रतिबंधित है। इसलिए बरेली के इस कारोबार का बुरा हाल है।

पहचान खोने का डर.….

कभी 'बांस-बरेली' के नाम से पहचान बनाने वाला यह शहर आज अपने पारंपरिक बेत और बांस के कारोबार को खोने के कगार पर है। एक दौर था। जब शहर के कुमार टॉकीज क्षेत्र में दर्जनों दुकानें थी। यह बेत-बांस से बनी वस्तुओं से गुलजार रहती थीं। बांस और बेंत के कारीगरों को खूब काम मिलता था।अब हालात ये हैं कि इस विरासत को बचाए रखने के लिए एक दो दुकानें बची हैं। वो भी अपने व्यापार को बचाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। बांस और बेंत का कारोबार करने वाले अधिकांश दुकानदारों ने अब अपने परंपरागत कारोबार को फर्नीचर में तब्दील कर लिया है। 

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कुमार टॉकीज के पास वर्षों से 'शानदार केंद्र फर्नीचर' नाम से बांस और बेंत की दुकान चलाने शाहनवाज साबिर उर्फ राजू बताते हैं कि एक समय था,  जब बेत-बांस का फर्नीचर हर घर की पहली पसंद होता था। उनकी दुकान में आज भी बेत के सोफा सेट, ड्रेसिंग टेबल, बच्चों के झूले और टेबल लैंप जैसे खूबसूरत सामान मौजूद हैं। मगर, इनके खरीददार न के बराबर हैं।

फर्नीचर की तुलना में कीमत कम फिर भी नहीं मिल रहे ग्राहक

बांस और बेंत के बने सोफा सेट की कीमत 7000 रुपये से शुरू होती है। वहीं इसकी डायनिंग टेबल भी दो से तीन हजार रुपए में मिलती है। इसके अलावा टेबल लैंप: 400–1200, बच्चों के झूले: 500–2000 रुपये में मिल जाते हैं।

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सरकारी टैक्स ने तोड़ी कारोबारियों की कमर...

कारोबारी शाहनवाज बताते हैं कि जब से सरकार ने इस व्यवसाय पर 12% जीएसटी लगाया है। तब से ग्राहक कम हो गए हैं। व्यापारी यह परंपरागत कारोबार करने सेपीछे हटने लगे हैं। उनका कहना है कि अगर सरकार टैक्स में राहत दे तो इस पारंपरिक कला और व्यवसाय को दोबारा जीवित किया जा सकता है। 

परिवहन पर पाबंदी से भी बांस और बेंत के कारोबार को बड़ा झटका...

करीब 40 साल से इस कारोबार से जुड़े खलेकन नूर का कहना है कि सरकार ने बांस को बस लाने पर प्रतिबंध लगा दिया है। परिवहन पर लगे प्रतिबंध ने नुकसान को और बढ़ाया है। पहले बरेली से दिल्ली, लखनऊ, पंजाब जैसे राज्यों में माल सप्लाई होता था, लेकिन अब व्यापार सिकुड़ता जा रहा है।

सरकार दे सहारा तो बच सकेगा परंपरागत कारोबार 

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बांस और बेंत व्यवसाय से जुड़े व्यापारियों का कहना है कि अगर सरकार इस पारंपरिक कारोबार को 'हस्तशिल्प उद्योग' की श्रेणी में शामिल कर ले। फिर टैक्स में छूट और परिवहन की सुविधा दे तो यह उद्योग दोबारा फल-फूल सकता है। बरेली शहर की पुरानी पहचान बांस बरेली फिर से लौट सकती है। अन्यथा यह कारोबार अंतिम सांसें गिन रहा है। इसकी वजह यह है कि इस परंपरागत कारोबार से जुड़े कारीगर अब दूसरे व्यापार में शिफ्ट हो गए हैं। अगर कुछ दिन यही हाल रहा तो बस और वेद के कारीगरों का मिलना मुश्किल हो जाएगा।

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