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भाजपा का चुनाव चिन्ह (मिशन 2027)
बरेली, वाईबीएनसंवाददाता।
अभी हालांकि मिशन 2027 दूर है। डेढ़ साल से ज्यादा का वक्त भी बाकी है। मगर, बीते डेढ़ दशक से भी लंबे समय से प्रदेश में सत्ता संभाल रही भाजपा में संगठन और सरकार के स्तर पर गुटबाजी चरम पर है। खासतौर से बड़े नेताओं ने अपने पत्ते 2027 को लेकर अभी से फेंटने शुरू कर दिए हैं। शह और मात के इस खेल में कौन सी बाजी किसके हाथ लगेगी, यह तो आने वाला वक्त ही तय करेगा, लेकिन सबसे बड़ी चिंता इस बात की है कि स्थानीय स्तर पर व्याप्त शीर्ष नेताओं की गुटबाजी में विपक्ष की मदद से एक दूसरे को निपटाने के खेल में कहीं पार्टी खुद न निपट जाए।
सबसे पहले बात शहर सीट की। यह सीट लंबे समय से भाजपा का गढ़ मानी जाती है। शहर सीट पर भाजपा के डॉ अरुण कुमार तीन बार लगातार विधायक चुने जा चुके है। इस बार वह यूपी सरकार में वन एवं पर्यावरण मंत्री स्वतंत्र प्रभार हैं। उससे पहले भी भाजपा के टिकट पर यूपी सरकार के पूर्व वित्त मंत्री राजेश अग्रवाल और पूर्व स्वास्थ्य मंत्री डाॅ दिनेश जौहरी जनता का विधानसभा में प्रतिनिधित्व कर चुके हैं। राजनीतिक पंडितों का मानना है कि यूपी सरकार में डॉ अरुण कुमार वैसे तो सीधे, सरल और लोकप्रिय चेहरा हैं, लेकिन अब उनकी उम्र 75 पार हो चुकी है। 2027 में शायद ही भाजपा उन पर चौथी बार दांव लगाए। इसलिए, आगामी चुनाव में उनकी विरासत हथियाने के लिए भाजपा महानगर संगठन के एक नेताजी माननीय की मदद से गोटी फिट करने में लगे हैं। संगठन के नेताजी को उम्मीद है कि जिस तरह वह माननीय तमाम किंतु परंतु को दरकिनार करते हुए लखनऊ और दिल्ली से सेटिंग बिठाकर अपना टिकट ले आए थे। उसी तरह शहर सीट पर उनको भी कमल निशान का सिंबल लाकर दे देंगे। उसके बाद तो फिर चिंता की कोई बात है ही नहीं। उनके अलावा सक्सेना और वैश्य बिरादरी के कुछ छुट भैये नेता भी उम्मीद लगाए हैं कि शायद बिल्ली के भाग्य से छींका टूट जाए। मगर, वह शायद यह बात भूल रहे हैं कि अब जमाना बदल चुका है। अब पक्के घरों में बिल्लियां भी कम हैं और छींके भी नहीं होते। इसलिए छींका टूटना तो चमत्कार होने जैसा ही होगा। फिलहाल, भाजपा का गढ़ समझी जाने वाली यह सीट 2027 में कोई न कोई राजनीतिक गुल अवश्य खिलाएगी क्योंकि सबकी नजरें यहां पर लगी हैं।
कैंट सीट पर भाजपा में अपने ही अपनों को निपटाने में लगे
कैंट सीट पर भाजपा के बीच गुटबाजी चरम पर है। अगर यही हाल बरकरार रहा तो भाजपा के लिए यह सीट जीतना बिल्कुल भी आसान नहीं होगा। वर्तमान में इस सीट पर भाजपा के जो पहली बार के नए-नवेले विधायक हैं, वह एक समय ट्रस्ट के जरिए भारत की सेवा में लगे थे। साथ ही संगठन के काम देखते थे और चुनाव मैनेजमेंट भी। 2022 में जब इस सीट पर पार्टी के एक दिग्गज नेता का टिकट कट गया तो उनका बिल्ली के भाग्य से छींका टूट गया। वह भी सपा से कांटे का मुकाबला करना पड़ा। बहुत कम वोटों से जीत का सेहरा बंध गया। इस बार वह पुराने दिग्गज तो उनके खिलाफ हैं हीं। नगर निगम के माननीय ने तो जैसे कसम खा ली है कि किसी हाल में उनको विधानसभा में नहीं पहुंचने देना है। उनके मार्गदर्शन में युवाओं का नया संगठन भी संगठन बन चुका है। वह भी सिर्फ कैंट के लिए। भाजपा संगठन में महानगर अध्यक्ष भी उनके खास हैं। शहर और कैंट सीट पर पैनल में तीन अंतिम नाम उनको ही भेजने हैं। तो उनके लिए टिकट में तो रोड़ा अटकेगा ही। अगर किसी तरह से कैंट के माननीय ने टिकट की बाधा पार भी कर ली तो चुनाव में भितरघात होना तो तय है। हालांकि भाजपा के माननीय अपना यह खतरा भलीभांति जानते हैं। इसलिए, कैंट विधायक ने भी ब्राम्हणों को साधने के लिए पूर्व विधायक समेत कुछ अन्य माननीयों को भी साध रखा है। यह माना जाता है कि बिथरी और कैंट समेत आस-पास के कई विधानसभा क्षेत्रों में ब्राम्हणों समेत अन्य जातियों पर पूर्व माननीय की मजबूत पकड़ है। यह माननीय उत्तराखंड में एक धार्मिक कार्यक्रम भी करा चुके हैं। उसमें इन माननीय ने अपने पुराने गुरु को भी नहीं बुलाया। मगर, स्थानीय स्तर पर उन्होंने पूर्व विधायक समेत कुछ चुनिंदा संगठन के नेताओं को उत्तराखंड बुलाकर अपने ही दल के धुर विरोधी माननीय को सीधी चुनौती दे दी है। भाजपा के दोनों दिग्गजों के बीच की इस रस्साकसी का फायदा मुख्य विपक्षी दल सपा को हो सकता है।
भाजपा के वोटों में लगातार आ रही है गिरावट
आइए, इसका अंकगणित कुछ इस तरह से समझते हैं। वर्ष 2022 में पार्टी के शीर्ष नेतृत्व ने नौ विधानसभाओं में से सात सीटें जीती थीं। जबकि उसके पहले 2017 में भगवा दल को नौ में से सभी नौ सीटों पर जीत मिली थी। मतलब, पांच साल में पार्टी को अपना मत प्रतिशत तो खोना ही पड़ा। दो सीटों का नुकसान भी उठाना पड़ा। अब इसमें 2024 के लोकसभा चुनाव को जोड़ दें तो बरेली लोकसभा सीट पर भाजपा की जीत का अंतर सवा लाख से ज्यादा वोट कम हो गया। नवाबगंज सीट सीट पर भी पार्टी वोटों की गिनती में पिछड़ गई थी। वह तो मीरगंज और शहर ने इज्जत रख ली। अन्यथा तो बरेली लोकसभा सीट पर समाजवाद का नया इतिहास लिखा जाता। अब आंवला लोकसभा सीट देख लीजिए। यहां से दो बार के पार्टी सांसद सपा के नए-नवेले बाहरी प्रत्याशी के समाने खेत रहे। जबकि दोनों बार उनका जीतने का रिकार्ड एक से सवा लाख वोटों से ज्यादा रहा। मतलब, बरेली और आंवला लोकसभा सीटों पर भाजपा का सवा लाख से डेढ़ लाख वोट कम हो गया। राजनीतिक पंडितों की मानें तो वर्ष 2014 से 2024 तक चाहे लोकसभा चुनाव हों या फिर विधानसभा के। इन सबमें भाजपा के वोटों में गिरावट दर्ज की गई। इसलिए, 2027 का विधानसभा चुनाव उतना भी आसान नहीं होगा, जितना कि भाजपाई समझ रहे हैं। अभी तो भाजपा के तमाम विधायक यही मानकर चल रहे हैं कि 2027 में वह खुद कुछ काम न करके केवल मोदी जी और योगी जी के नाम की माला जपते हुए जनता को एक बार फिर से मूर्ख बना लेंगे। भाजपा के एक जमीनी कार्यकर्ता के अनुसार पार्टी के माननीय जनता के लिए खुद तो कुछ काम नहीं करके अपनी दोनों जेबें भरने में लगे हैं। जब चुनाव आएगा तो अयोध्या, पाकिस्तान, ऑपरेशन सिंदूर, कृष्ण जन्म भूमि, काशी यह सब मुद्दे लेकर आएंगे। ऐसे में इस बार इन मुद्दों पर वोट मिलना काफी मुश्किल होगा।