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गुरु एक छिपे हुए और कभी भी खत्म न होने वाले ज्ञान का भंडार है। उनके आशीर्वाद मौन होते हुए भी जीवन में आमूल बदलाव लाने वाले होते हैं। शिष्य के मन में सच्चाई और अच्छाई से जुड़े मूल्यों से युक्त ज्ञान व बुद्धिमत्ता भरते हैं। रामायणकाल में विश्वामित्र और भगवान राम, भक्तिकाल में गुरु रविदास और मीरा बाई, रामानंद और कबीर, गुरु नानक देव जी। उनके बाद हुए गुरुओं के बीच का संबंध- सभी भारतीय सभ्यता में आध्यात्मिक और बौद्धिक आदान-प्रदान की अमिट विरासत के उदाहरण हैं। इन पवित्र बंधनों ने समाज को एक नैतिक ढांचा प्रदान किया। इसके आंतरिक विकास को बढ़ावा दिया। आधुनिक युग में, देश के लोगों के मन में राष्ट्रवाद की अलख जगाने वाले छत्रपति शिवाजी महाराज तथा समाज को ज्ञान के प्रकाश से आलोकित करने में समर्थ गुरु रामदास, स्वामी विरजानंद सरस्वती और स्वामी दयानंद सरस्वती का योगदान अविस्मरणीय रहेगा। इसी गुरु परंपरा में स्वामी रामकृष्ण परमहंस भी हुए हैं, जिनकी शिक्षा ने स्वामी विवेकानंद को एक आध्यात्मिक महापुरुष बनाया।
अपने मार्ग पर निरंतर आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करेगी
उन्होंने बाद में भारतीय दर्शन को पाश्चात्य देशों तक पहुँचाया। इसी कड़ी में महावतार बाबाजी, लाहिड़ी महाशय, श्री युक्तेश्वर और परमहंस योगानंद जैसे महापुरुषों के ज्ञान की ज्योति दुनिया भर के साधकों का मार्गदर्शन करती रहेगी। उन्हें अपने मार्ग पर निरंतर आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करेगी। उनके द्वारा दिए गए ज्ञान ने विश्व-बंधुत्व की भावना को बढ़ाया। संसार को ज्ञान की दिव्य दृष्टि प्रदान की। विश्व के सभी देशों में देवत्व के प्रति निष्ठा, समर्पण और व्यक्तिगत संबंध को अभिव्यक्त करने की परंपरा देखी जाती है। पश्चिमी देशों में ईश्वर की प्रार्थना के दौरान ‘ओ माई मास्टर’ शब्द का प्रयोग किया जाता है। यह ईश्वर के साथ गहरे आध्यात्मिक जुड़ाव का सूचक है।
प्रथम गुरु के रूप में मां शिशु को इस नए विश्व से परिचित कराती है। जीवन में पहला कदम उठाना सिखाती है। अगर दूसरे नजरिये से देखा जाए तो हमारी पांचों ज्ञानेन्द्रियां- कान, त्वचा, नेत्र, जिह्वा और नाक - बाहरी दुनिया से संवेदी सूचनाएं प्राप्त करती हैं। पांचों कर्मेन्द्रियां- हाथ, पांव, वाणी, गुदा, जननांग- शारीरिक क्रियाएं करती हैं तथा अंतःकरण की चारों वृत्तियां - मन, बुद्धि, अहंकार और चित्त हमारे विचारों, भावनाओं और क्रियाओं को प्रभावित करती हैं। संक्षेप में कहा जाए तो हमारी ज्ञानेंद्रियां प्रत्यक्ष जगत से प्राप्त जानकारियों को एकत्र करती हैं। मन उन्हें समझता है, बुद्धि निर्णय लेती है। अहंकार अनुभव को वैयक्तिक बनाता है। कर्मेंद्रियाँ क्रिया संपन्न करती हैं। चित्त उसे स्मृति के रूप में दर्ज करता है। गुरु ज्ञान के जिज्ञासुओं को ज्ञान प्रदान करता है। सद्गुरु अपने शिष्यों में बुद्धिमत्ता का संचार करता है। उनके मार्गदर्शन से ही इन सभी अदृश्य आंतरिक जटिलताओं के बीच हमारे मन में सद्गुणों का संचार होता है।
सभी सद्गुणों से युक्त व्यक्ति एक पुष्ट फलों से युक्त फलते-फूलते वृक्ष के समान है, जिसकी मज़बूत जड़ों को गुरु के ज्ञान, परिवार के सहयोग और समग्र समाज के मूल्यों से सींचा गया हो। व्यक्ति के कर्म इन आंतरिक मूल्यों की केवल अभिव्यक्ति हैं। पूर्णिमा का विशेष अवसर इन सभी तथ्यों पर आत्मनिरीक्षण का अवसर प्रदान करता है। यह मात्र एक खगोलीय घटना नहीं है। यह एक आध्यात्मिक दर्पण है। एक सांस्कृतिक समारोह है। एक वैज्ञानिक घटना है। जीवन में नवीनता लाने, चिंतन करने तथा कृतज्ञता व्यक्त करने का एक गहन प्रतीकात्मक अवसर है। इसका महत्व धर्म, ज्ञान की विभिन्न शाखाओं और सदियों तक विस्तीर्ण है। यह हमें हमारे अंतःकरण में स्थित प्रकृति की लय और चक्र की याद दिलाता है। पूर्णिमा संपूर्णता और ज्ञानोदय का प्रतीक है। यह एक ऐसा समय है, जबकि हम अपने स्वत्व की खोज सर्वाधिक स्पष्ट रूप में कर सकते हैं। ठीक उसी प्रकार जैसे चंद्रमा सूर्य के प्रकाश को पूरी तरह से परावर्तित करता है। योगी और संत प्रायः पूर्णिमा को गहन ध्यान, जप, उपवास और दिव्य ऊर्जा से जुड़ने के लिए एक आदर्श समय मानते हैं।
गुरु पूर्णिमा सीखने, ज्ञान अर्जन करने और कृतज्ञता व्यक्त करने का त्योहार है। सूचना की भरमार, भ्रम, तुलना और प्रतिस्पर्धा के इस युग में एक सच्चे गुरु की हमारे जीवन में उपस्थिति काफी महत्वपूर्ण है। वह आध्यात्मिक गुरु हों अथवा कोई प्रशिक्षक। शिक्षा प्रदाता, माता-पिता या डिजिटल मार्गदर्शक क्यों न हों। उनकी उपस्थिति धर्म एवं धार्मिक अनुष्ठानों से कहीं अधिक महत्वपूर्ण है। 21वीं सदी के अनिश्चितता से भरे दौर में जबकि भू-राजनीतिक तनाव लगातार बढ़ रहे हैं। आतंकवाद, उग्रवाद, मादक पदार्थों की तस्करी, साइबर युद्ध और मानसिक स्वास्थ्य संबंधी समस्याएँ युवाओं को परेशान कर रही हैं। गुरुओं और संतों की ज्ञान परंपरा का उत्सव गुरु पूर्णिमा पूरी दुनिया के लिए अत्यधिक प्रासंगिक है। आज के युग में लोगों द्वारा नैतिकता पर बिलकुल विचार नहीं करने एवं गलत और सही कार्यों के बीच अंतर नहीं कर पाने के कारण लोगों के सामने ढेर सारी चुनौतियां उत्पन्न हो रही हैं। सामाजिक ताना-बाना बिखर रहा है। ऐसे में गुरु की उपस्थिति मात्र से ही लोगों को गलत रास्ते पर जाने से रोका जा सकता है।
हम जैसे-जैसे डिजिटल युग की ओर बढ़ रहे हैं। गुरु पूर्णिमा का शाश्वत संदेश हमें ज्ञान प्राप्त करने, अपने मन की शक्ति से मार्गदर्शन प्राप्त करने, अपने गुरु और मार्गदर्शक का सम्मान करने तथा दूसरों के लिए ज्ञान का स्रोत बनने के लिए प्रोत्साहित करता है। यह समाज में मानव मूल्यों को पोषित एवं सृजित करने का एक माध्यम सिद्ध होगा।
लेखक : अर्जुनराम मेघवाल, केंद्रीय विधि एवं न्याय मंत्री भारत सरकार