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स्मार्ट सिटी के नाम पर मोटा कमीशन आए ... फिर शहर चाहे भाड़ में जाए ...

स्मार्ट सिटी के नाम पर बीते आठ साल में बरेली की जो दुर्दशा हुई है, उसे शहर का प्रत्येक नागरिक अपनी आंखों से देख रहा है। नगर निगम में सिर्फ कमीशन खाने और खिलाने का दौर है।

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Sudhakar Shukla
बरेली भले ही आठ साल में स्मार्ट सिटी नहीं बन सका, मगर,  नगर निगम कमीशन खाने और खिलाने में जरुर स्मार्ट बन गया

बरेली भले ही आठ साल में स्मार्ट सिटी नहीं बन सका, मगर, नगर निगम कमीशन खाने और खिलाने में जरुर स्मार्ट बन गया

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बरेली, वाईबीएन संवाददाता

आठ साल पहले हुए निकाय चुनाव में बरेली को सिंगापुर की तरह स्मार्ट सिटी बनाने के नारे जोर-शोर से लगे थे। उस समय यूपी में सपा की सरकार थी और नगर निगम में भी साइकिल का दबदबा था। जनता ने बरेली को स्मार्ट बनाने के लिए सत्ता में बदलाव कर दिया। यूपी में सत्ता बदली।  नगर निगम में भी सत्ता परिवर्तन हुआ। तब शहरवासियों की आंखों में बरेली को स्मार्ट बनाने की उम्मीदें और परवान चढ़ीं। मगर, सत्ता बदलने के आठ साल बाद भी शहर स्मार्ट नहीं बन पाया। हां, इतना जरुर है कि नगर निगम जैसी जनता से सीधी जुड़ी संस्था कार्पोरेट संस्कृति का शिकार हो गई। बरेली की विकास यात्रा इतनी तेजी से आगे बढ़ी कि शहर तो बद से बदतर हालत में पहुंच गया। लेकिन निर्माण कार्यों में कमीशन खाकर कुर्ता पैजामा और टाई शूट वाले मालामाल हो गए। जिन्होंने बरेली को सिंगापुर की तरह स्मार्ट बनाने के सपने दिखाए थे, वह शहर को तो स्मार्ट नहीं बना पाए, लेकिन खुद जरूरत से ज्यादा स्मार्ट बनकर विदेशों की सैर करने लगे।  

नगर निगम में कमीशन खाने और खिलाने का दौर

आम नागरिक की जुबान में बोलें तो राजनीतिक और सांस्कृतिक दृष्टि से बरेली जैसा शहर फिलहाल स्मार्ट बनने की जगह बदहाली के कगार पर पहुंच चुका है। नगर निगम की ऐसी कोई सड़क या नाली नहीं बनी, जो तीन या छह महीने से ज्यादा चली हो। नगर निगम हर छह महीने में कभी स्मार्ट सिटी तो कभी अन्य मदों से करोड़ों रुपए खर्च करके लगाकर वही सड़क या नालियों का निर्माण कराता है, जो पहले से ही बन चुकी हैं। नगर निगम की नई निर्माणाधीन सड़क या नाली कई बार तो एक या दो महीने महीने भी नहीं चलती। शहर में हर जगह चर्चा है कि नगर निगम के प्रत्येक काम में ठेकेदार 45 प्रतिशत कमीशन देकर टेंडर लेते हैं। ऐसे में सड़क या नाली में गुणवत्ता कहां से आएगी। बड़ी बात यह है कि जब यही निम्न गुणवत्ता वाली सड़क या नाली दो-चार महीने में ही ध्वस्त हो जाती है तो कमीशन की ऊपरी कमाई के लिए उसी सड़क के दोबारा टेंडर होने लगते हैं। लंबे समय से नगर निगम के निर्माण कार्यों में सिर्फ कमीशन खाने और खिलाने का दौर चल रहा है। इस भ्रष्ट व्यवस्था के विरुद्ध इक्का-दुक्का आवाज उठती भी है तो वह उसके निजी हित साधने के स्वार्थ की भेंट चढ़ जाती है। नगर निगम इस समय विपक्ष विहीन है। मतलब, मुख्य विपक्षी दल सपा के सदस्य भी इस सिस्टम के आगे सरेंडर करके उसी व्यवस्था में शामिल हो गए है। 

सड़कें खस्ताहाल, हर गली-मोहल्ला बदहाल 

शहर में न केवल मुख्य मार्ग की सड़कें खस्ताहाल हैं बल्कि बरसात से पहले तलीझाड़ सफाई न होने से नाले-नालियां भी चोक हैं। जरा सी बारिश होने पर सड़कें तालाब बन जाती हैं। बरेली को स्मार्ट सिटी बनाने के नाम पर नीचे से ऊपर तक सिर्फ कमीशन की बात होती है। ठेकेदारों के अनुसार नगर निगम के निर्माण कार्यों के ठेकों में अब कमीशन 45 प्रतिशत तक पहुंच चुका है। सपा सरकार में यह 16 प्रतिशत था। उसमें  टेंडर लेने के लिए 10 से 15 प्रतिशत तो साहब लोगों को एडवांस देना पड़ता है। तब कहीं जाकर टेंडर मिलता हैं। उसकी भी गारंटी नहीं। किसी निविदा में कमीशन सेट न हो पाए तो वह टेंडर महीनों तक लटका रहता है। खास बात यह है कि किसी ठेकेदार ने मान लीजिए कि 10 करोड़ की सड़क का टेंडर लेने के लिए 15 प्रतिशत एडवांस दे दिया। आपसी कंपटीशन में उस ठेकेदार को वह टेंडर नहीं मिल पाया तो उस ठेकेदार का एडवांस वापस नहीं किया जाता। उससे कहा जाता है कि अगर यह टेंडर नहीं मिल पाया तो कोई बात नहीं। अब अगली बार जब टेंडर निकलेगा तो उसमें दिलवा देंगे। मतलब, ठेकेदार का एडवांस भी फंस जाता है। फिर वह अगले टेंडर निकलने तक इंतजार करता है। तमाम ठेकेदारों से सड़क या नाली निर्माण के टेंडरों का एडवांस फंस चुका है। मगर, ठेकेदार भी पक्के पर है। क्योंकि 45 प्रतिशत कमीशन देने के बाद फिर वह उसे खुली छूट है कि वह जैसे चाहे, वैसे सड़क या नाली निर्माण की खानापूरी करके अपना पेमेंट निकलवा ले। क्योंकि नगर निगम के जेई, एई या एक्सईएन कोई उसका पेमेंट नहीं रोकेगा। सबका हिस्सा पहले से जो तय है।

टेंडर आमंत्रित नहीं किए, सड़क बन गई 

शहर की तमाम सड़कें तो ऐसी हैं, जो पहले से बनी थीं। लेकिन नगर निगम के इंजीनियरों ने चकाचक बनी हुई सड़कों के टेंडर निकालकर करोड़ों रुपए ठिकाने लगा दिए। वहीं बहुत सी सड़कें ऐसी भी हैं, कुछ सड़कें ऐसी भी हैं कि टेंडर आमंत्रित ही नहीं किए गए। सीएम पोर्टल पर सड़क निर्माण कार्य पूरा होने की रिपोर्ट लगाकर अपलोड कर दी गई। उदाहरण के लिए श्यामगंज से सेटेलाइट रोड पर एक पहले से बनी हुई सड़क का टेंडर नगर निगम ने निकाल दिया। वह सड़क पहले से ही चकाचक थी। बाद में जूनियर इंजीनियर और ठेकेदार ने मिलकर उसका पेमेंट निकाल लिया। सड़क बनानी नहीं पड़ी और काम भी पूरा। वहीं कर्मचारी नगर निगम में एक ब्लैक लिस्टेड ठेकेदार को टेंडर दे दिया गया। जब सीएम पोर्टल पर शिकायत हुई तो उसका टेंडर निरस्त हुआ। सड़क अब भी नहीं बनी। मगर, नगर निगम के जेई ने सड़क निर्माण पूरा होने की रिपोर्ट लगाकर पोर्टल पर अपलोड कर दी। अब भी यह स्थिति सीएम पोर्टल पर देखी जा सकती है। स्मार्ट सिटी के नाम पर नगर निगम में जिस तरह नीचे से ऊपर तक कमीशन खाने और खिलाने का युग शहर की जनता को चिढ़ा रहा है, उसे देखकर एक प्रख्यात व्यंग्यकार की ये पंक्तियां माहौल समझने के लिए काफी हैं- 

जलती हुई मसाल बुझाता है इलेक्शन,

बुझती हुई मसाल जलाता है इलेक्शन 

रोम जब जल रहा हो हिंसा की आग में,

तो नीरो की तरह बंसी बजाता है इलेक्शन। 

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