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'...जो परिवार का नहीं वो जनता का नहीं', कुर्सी का खेल जब अपनों पर भारी पड़ा | यंग भारत न्यूज Photograph: (YBN)
नई दिल्ली, वाईबीएन डेस्क ।राजनीति में न रिश्ते टिकते हैं और न ही सिद्धांत। बिहार में लालू यादव का अपने बड़े बेटे तेज प्रताप को परिवार और पार्टी से बाहर करना हो या उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव का अपने पिता मुलायम सिंह और चाचा शिवपाल को दरकिनार करना, ये महज इत्तेफाक नहीं। यह सत्ता की भूख का स्याह सच है।
Young Bharat News का यह एक्सप्लेनर बताता है कि जो नेता अपने परिवार का नहीं हुआ, वह प्रदेश की जनता का हितैषी कैसे हो सकता है? पढ़िए, क्यों बदल रहे हैं भारतीय राजनीति के आंतरिक समीकरण।
भारतीय राजनीति का रंगमंच अक्सर बड़ा अजीबोगरीब होता है। यहां की हेडलाइन भले ही विकास, रोजगार, और जनकल्याण की बात करें, लेकिन पर्दे के पीछे की कहानी हमेशा सत्ता, कुर्सी और विरासत के इर्द-गिर्द घूमती रहती है। एक ऐसा खेल, जिसमें अक्सर सगे रिश्ते भी दांव पर लग जाते हैं।
बिहार और उत्तर प्रदेश के दो सबसे बड़े क्षेत्रीय राजनीतिक परिवारों का घटनाक्रम इसकी सबसे ज्वलंत मिसाल हैं।
बिहार लालू की 'विरासत' और तेज प्रताप का सच
बिहार की राजनीति में 'लालू प्रसाद यादव' एक ब्रांड नेम हैं। लेकिन आज उनके ही परिवार में जो दरार दिख रही है, वह किसी भी चुनावी हार-जीत से ज़्यादा गहरी है। सूत्र बताते हैं कि हाल ही में, राष्ट्रीय जनता दल RJD के मुखिया लालू प्रसाद यादव ने अपने बड़े बेटे तेज प्रताप यादव को न सिर्फ पार्टी की मुख्य धारा से, बल्कि परिवार से भी दूर कर दिया। सवाल उठता है, क्यों?
तेज प्रताप यादव मुखर हैं। वह राजनीति में सिद्धांतों और ईमानदारी की बात करते हैं, जो अक्सर 'लालू स्टाइल' की समझौतावादी राजनीति से मेल नहीं खाती। वह सच बोलने की क्षमता रखते हैं, और शायद इसी 'आदर्शवादी' रवैये की सज़ा उन्हें मिली।
लालू ने अपने छोटे बेटे, तेजस्वी यादव को अपनी राजनीतिक विरासत सौंपने का फैसला किया। तेजस्वी ने न केवल लालू के नक़्श-ए-कदम पर चलना सीखा, बल्कि वह राजनीति के दांव-पेंच में 'बाप के भी बाप' साबित हुए। सूत्रों की मानें तो, छोटे भाई ने बड़े भाई के राजनीतिक करियर में बाधाएं पैदा करने में कोई कसर नहीं छोड़ी।
आज बिहार चुनाव के ऐन मौके पर दोनों भाई जिस तरह आपस में तकरार कर रहे हैं, वह सीधे तौर पर परिवार के मुखिया की रणनीति का हिस्सा है-छोटे को स्थापित करो, बड़े को बाहर का रास्ता दिखाओ। यह सिर्फ एक परिवार की कहानी नहीं है, यह विरासत की राजनीति का क्रूर चेहरा है, जहां कुर्सी सगे भाई के रिश्ते पर भारी पड़ जाती है।
क्या कुर्सी के लिए अपनों को दरकिनार करने की यह राजनीति केवल बिहार तक सीमित है? नहीं इसका सबसे बड़ा और कड़वा उदाहरण पड़ोसी राज्य उत्तर प्रदेश में देखने को मिला।
यूपी अखिलेश की महत्वाकांक्षा और 'पिता-चाचा' का अपमान
समाजवादी पार्टी SP के संस्थापक मुलायम सिंह यादव ने कभी नहीं सोचा होगा कि जिस बेटे अखिलेश यादव को उन्होंने उंगली पकड़कर राजनीति सिखाई, वही एक दिन उन्हें पार्टी के शीर्ष पद से बेदखल कर देगा। उत्तर प्रदेश की सियासत में यह घटनाक्रम किसी राजनीतिक भूचाल से कम नहीं था। अखिलेश यादव ने पार्टी में अपनी पकड़ मजबूत करने के लिए अपने ही पिता मुलायम सिंह यादव को पार्टी के 'संरक्षक' पद पर धकेल दिया, जबकि खुद राष्ट्रीय अध्यक्ष बन बैठे। यह एक तरह से पिता को निष्क्रिय करने का कदम था।
मुलायम सिंह के सगे भाई और अखिलेश के चाचा शिवपाल यादव, एक अनुभवी राजनेता हैं। उन्हें इतना उत्पीड़ित और उपेक्षित किया गया कि उन्हें पार्टी छोड़ने और अपनी अलग पार्टी बनाने पर मजबूर होना पड़ा था। हालांकि, बदली हुई राजनीतिक परिस्थितियों में शिवपाल यादव ने हालातों से समझौता कर लिया और मजबूरी में उन्हें समाजवादी पार्टी में वापस आना पड़ा, लेकिन उनके साथ हुए अपमान को न जनता भूली है, न ही पार्टी के पुराने कार्यकर्ता।
इन दोनों घटनाओं में एक खतरनाक पैटर्न दिखता है। क्या यह सिर्फ 'पारिवारिक झगड़ा' है, या भारतीय राजनीति में सत्ता-हस्तांतरण की एक नई, क्रूर परंपरा शुरू हो रही है?
जो परिवार का नहीं हुआ, वह जनता का क्या होगा? एक खोजी पत्रकार होने के नाते, मेरा विश्लेषण इन दो क्षेत्रीय राजनीतिक घटनाओं से कहीं ज़्यादा गहरा है। यह सिर्फ दो प्रदेशों, दो परिवारों, या दो पार्टियों की बात नहीं है। यह एक मौलिक सवाल खड़ा करता है, जिसका जवाब हर मतदाता को ढूंढ़ना चाहिए कि "जो नेता अपने घर का, अपने सगे बाप का, अपने सगे भाई का या सगे चाचा का नहीं हो सका, वह प्रदेश की जनता का 'सगा' कैसे हो सकता है? उनका भला कैसे कर सकता है?"
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यह सवाल इसलिए गंभीर है क्योंकि राजनीति में विश्वसनीयता Credibility का एक बड़ा हिस्सा चरित्र Character से आता है।
नैतिकता का पतन: जब एक नेता केवल कुर्सी को ही अपना एकमात्र सिद्धांत मान लेता है, तो उसके लिए रिश्ते, नैतिकता, और जनसेवा सब गौण हो जाते हैं।
जनता का भविष्य: अगर कोई नेता सत्ता के लिए अपने जन्मदाता या सगे भाई को दरकिनार कर सकता है, तो चुनाव जीतने के बाद उसे जनता की अपेक्षाओं को दरकिनार करने में कितना समय लगेगा?
तानाशाही की आहट: यह प्रवृत्ति एक तरह की वंशवादी तानाशाही की ओर इशारा करती है, जहां नेता की महत्वाकांक्षा पार्टी और परिवार के सभी आंतरिक लोकतंत्र को रौंद देती है।
राजनीतिक परिवारों में दरार एक तुलनात्मक अध्ययन
| नेता पार्टी | किससे दरकिनार/अपमान किया गया | कारण जनता पर संदेश |
| तेजस्वी यादव RJD | तेज प्रताप यादव सगा भाई विरासत पर कब्जा, सिद्धांतों का टकराव | परिवार में 'सत्ता संघर्ष' हावी, बड़ा भाई उपेक्षित। |
| अखिलेश यादव SP मुलायम सिंह यादव पिता | शिवपाल यादव चाचापार्टी पर पूर्ण नियंत्रण की महत्वाकांक्षा | पिता और चाचा का अपमान, पार्टी में मनमानी। |
क्या जनता इस नैतिक पतन को देखकर भी ऐसे नेताओं पर भरोसा करेगी? बिहार चुनाव और यूपी की आगामी राजनीति में इसका क्या असर होगा? जनता का फैसला क्या ये 'फैमिली ड्रामा' वोटों पर असर डालेगा?
यह समझना ज़रूरी है कि यह 'फैमिली ड्रामा' केवल अखबारों की सुर्खियां नहीं है। यह ज़मीनी स्तर पर जनता की धारणा को प्रभावित करता है। क्या सोचती है जनता? विश्वास में कमी मतदाता ऐसे नेताओं पर भरोसा करना मुश्किल पाते हैं, जो अपने निजी स्वार्थ के लिए सबसे पवित्र माने जाने वाले पारिवारिक रिश्तों को भी तोड़ देते हैं।
वोट का गणित पारिवारिक दरारें: अक्सर पार्टी के मूल वोट बैंक में भ्रम और भटकाव पैदा करती हैं। वफादार कार्यकर्ता भी कंफ्यूज हो जाते हैं कि किसका समर्थन करें-विरासत संभालने वाले का, या सिद्धांतों की बात करने वाले का?
नए विकल्प की तलाश: इन घटनाओं से तंग आकर जनता अक्सर नए और साफ-सुथरे राजनीतिक विकल्पों की तलाश करती है, जिससे तीसरी ताकत के उभरने की संभावना बढ़ जाती है।
भारतीय राजनीति का बदलता डीएनए लालू और अखिलेश, दोनों ने ही साबित किया कि सत्ता के गलियारों में खून के रिश्ते मायने नहीं रखते मायने रखती है सिर्फ कुर्सी की ताकत। उनकी यह क्रूर राजनीति न सिर्फ उनके परिवार के लिए, बल्कि भारत की पूरी लोकतांत्रिक नैतिकता के लिए एक बड़ा खतरा है।
जनता को अब यह तय करना है कि वे ऐसे नेताओं पर विश्वास करेंगे, जिन्होंने अपने घर को तोड़ने में गुरेज नहीं किया, या उन सिद्धांतवादी नेताओं को मौका देंगे जो जनसेवा को सर्वोच्च मानते हैं। यह सिर्फ चुनाव नहीं है, यह नैतिकता बनाम महत्वाकांक्षा की लड़ाई है, और इसका फैसला जल्द ही बिहार के मतदाता करेंगे।
आपको बता दें कि जब अखिलेश यादव उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे, तब 1 जनवरी 2017 को उन्होंने चाचा रामगोपाल यादव के साथ मिलकर लखनऊ के जनेश्वर मिश्र पार्क में समाजवादी पार्टी का राष्ट्रीय अधिवेशन बुलाया। इसी अधिवेशन में अखिलेश यादव ने पार्टी में तख्तापलट करते हुए मुलायम सिंह यादव के राज को खत्म कर दिया और खुद पार्टी के अध्यक्ष बन गए।
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