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बिहार की सियासत से क्यों 'गायब' हो रहे मुसलमान, जिम्मेदार कौन?

बिहार की सियासत में 'एम-फैक्टर' गायब: 19% मुस्लिम आबादी के बावजूद 2020 में विधायकों की संख्या 19 तक सिमटी रही। RJD-कांग्रेस पर निर्भरता, AIMIM का उदय, और 'सेफ सीट' की राजनीति ने प्रतिनिधित्व घटाया। 2025 में भी गिरावट का डर। जानें, क्या है मुख्य कारण? 

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Ajit Kumar Pandey
बिहार की सियासत से क्यों 'गायब' हो रहे मुसलमान, जिम्मेदार कौन? | यंग भारत न्यूज

बिहार की सियासत से क्यों 'गायब' हो रहे मुसलमान, जिम्मेदार कौन? | यंग भारत न्यूज Photograph: (YBN)

नई दिल्ली, वाईबीएन डेस्क ।बिहार की राजनीति का संतुलन आज एक गंभीर सवाल के इर्द-गिर्द घूम रहा है 19% मुस्लिम आबादी होने के बावजूद, विधानसभा में उनका प्रतिनिधित्व लगातार क्यों घट रहा है? कभी सत्ता के समीकरण तय करने वाले मुस्लिम विधायक अब 6-12% तक सिमट गए हैं। यह गिरावट केवल वोट बैंक की राजनीति नहीं, बल्कि बदलती जातिगत गोलबंदी और बड़ी पार्टियों के माइक्रो मैनेजमेंट का नतीजा है, जो इस समुदाय को हाशिये पर धकेल रहा है। क्यों घट रहा है 'एम-फैक्टर'? क्या है 1977 से 2020 तक का चौंकाने वाला सफर? 

बिहार की राजनीति में मुस्लिम समुदाय की भूमिका हमेशा से अहम रही है। वे न केवल एक बड़ा वोट बैंक रहे हैं, बल्कि सामाजिक-राजनीतिक संतुलन की धुरी भी रहे हैं। लेकिन, पिछले चार दशकों में यह धुरी कमजोर हुई है। आंकड़ों पर नजर डालें तो 1977 में जहां 25 मुस्लिम विधायक चुनकर विधानसभा पहुंचे थे, वहीं 2020 के विधानसभा चुनाव में यह संख्या घटकर केवल 19 रह गई है। यह उनके जनसंख्या अनुपात 19% के मुकाबले बेहद कम है। 

यह गिरावट केवल संख्यात्मक नहीं, बल्कि मानसिक और राजनीतिक भी है। जब किसी समुदाय का राजनीतिक प्रतिनिधित्व घटता है, तो उसकी चिंताएं और मुद्दे भी सरकार की प्राथमिकता सूची से बाहर होने लगते हैं। क्या आपको पता है? 

साल 2020 के चुनाव में, मुस्लिम प्रतिनिधित्व की हिस्सेदारी केवल 7% थी, जबकि आबादी का अनुपात इससे ढाई गुना ज़्यादा है। 2020 का गणित किस पार्टी ने दिया टिकट और कौन बना विधायक? 

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तुलनात्मक रिपोर्ट: 2020 के विधानसभा चुनाव में विभिन्न राजनीतिक दलों ने मुस्लिम उम्मीदवारों को टिकट देने में अलग-अलग रणनीति अपनाई, जिसका सीधा असर उनके प्रतिनिधित्व पर पड़ा। यहां मुख्य दलों के आंकड़े दिए गए हैं। 

RJD-कांग्रेस महागठबंधन: महागठबंधन ने सबसे ज्यादा मुस्लिम उम्मीदवारों को मैदान में उतारा, लेकिन आरजेडी का स्ट्राइक रेट कांग्रेस से बेहतर रहा। आरजेडी ने लगभग आधे उम्मीदवारों को जीत दिलाई, जबकि कांग्रेस के मुस्लिम उम्मीदवार काफी संघर्ष करते दिखे। 

JDU-NDA में JDU ने भी मुस्लिम उम्मीदवारों को मौका दिया, लेकिन उनका जीत प्रतिशत कम रहा। इसका सीधा संकेत है कि पारंपरिक मुस्लिम वोट अब JDU के साथ पहले जितना मज़बूत नहीं रहा। 

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BJP भाजपा ने 'सबका साथ' की बात करते हुए भी, व्यावहारिक रूप से किसी मुस्लिम को टिकट नहीं दिया या बहुत कम दिया। यह उनकी कोशिश को दर्शाता है कि वे मुस्लिम वोटों के बिना भी सत्ता में आ सकते हैं। 

AIMIM का उदय: असदुद्दीन ओवैसी की AIMIM ने सीमांचल क्षेत्र में 5 सीटें जीतकर ध्रुवीकरण की राजनीति को नया आयाम दिया। हालांकि, बाद में उनके 3 विधायक RJD में शामिल हो गए। 

'सेक्युलर' पार्टियों की बदलती रणनीति क्यों टिकट देने से कतराते हैं? 

राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि मुस्लिम उम्मीदवारों को टिकट न देने के पीछे अब सिर्फ हार का डर नहीं है, बल्कि बदली हुई चुनावी इंजीनियरिंग है। 

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वोट बैंक का विभाजन: आरजेडी और कांग्रेस को पारंपरिक रूप से मुस्लिम वोटों का स्वाभाविक दावेदार माना जाता था। लेकिन, AIMIM और अन्य छोटे दलों के आने से यह वोट बिखर गया है। इस विभाजन के डर से पार्टियां ऐसे जातीय समीकरण पर फोकस कर रही हैं, जो उन्हें पक्की जीत दिला सके। 

कास्ट माइक्रो मैनेजमेंट: आज की राजनीति जाति आधारित माइक्रो मैनेजमेंट पर निर्भर है। पार्टियां यह देखती हैं कि किसी खास सीट पर सवर्ण, अति पिछड़ा EBC, या दलित समुदाय का कौन सा उम्मीदवार उन्हें सुरक्षित जीत दिलाएगा। कई बार मुस्लिम उम्मीदवार होने से 'हिंदू वोटों' के ध्रुवीकरण का खतरा होता है, जिससे बचने के लिए 'सेक्युलर' पार्टियां भी उन्हें किनारे कर देती हैं। 

अंदर की बात: एक वरिष्ठ आरजेडी नेता ने नाम न छापने की शर्त पर बताया, "हम जानते हैं कि मुस्लिम हमारे साथ हैं, लेकिन जब यादव-दलित-ओबीसी गठजोड़ से जीत पक्की हो रही है, तो हम विपक्षी ध्रुवीकरण का रिस्क क्यों लें? यह राजनीतिक मजबूरी है, न कि इच्छा।" 

'सेफ सीट' की तलाश: मुस्लिम उम्मीदवार अक्सर ऐसी सीटों पर उतारे जाते हैं जहां मुस्लिम आबादी निर्णायक होती है। लेकिन, ऐसी सीटों की संख्या सीमित है। 

अन्य सीटों पर, पार्टियां बहुसंख्यक समुदाय को साधने के लिए गैर-मुस्लिम उम्मीदवारों को प्राथमिकता देती हैं, भले ही उस क्षेत्र में मुस्लिम आबादी ठीक-ठाक हो। 

नेतृत्व की कमी: मुस्लिम समुदाय से राष्ट्रीय स्तर के कद्दावर नेताओं की कमी भी एक कारण है। ऐसे नेता जो पार्टी आलाकमान पर दबाव डाल सकें और बड़ी संख्या में टिकट सुनिश्चित करवा सकें। 

पार्टी का नामदिए गए मुस्लिम टिकट (लगभग)जीते हुए मुस्लिम विधायकजीत का प्रतिशत
राष्ट्रीय जनता दल (RJD)15-178-950%
कांग्रेस (Congress)10-12435%
जनता दल (यूनाइटेड) (JDU)10-112-320-25%
भारतीय जनता पार्टी (BJP)0-1000
AIMIM15-20525%


साल 2025 का भविष्य क्या और घटेगी हिस्सेदारी? 

भविष्य की ओर देखते हुए, साल 2025 के विधानसभा चुनाव में भी मुस्लिम प्रतिनिधित्व के लिए रास्ता आसान नहीं दिखता। 

महागठबंधन RJD-Congress: यह गठबंधन फिर भी सबसे ज्यादा मुस्लिम उम्मीदवारों को टिकट देता है, लेकिन जीत का स्ट्राइक रेट तभी सुधरेगा जब वे गैर-मुस्लिम वोटों को भी आकर्षित कर पाएं। RJD का फोकस अपने M-Y मुस्लिम-यादव समीकरण को मजबूत करने पर है। 

NDA JDU-BJP NDA का समीकरण जातिगत गोलबंदी और हिन्दुत्व के समन्वय पर टिका है। BJP मुस्लिम उम्मीदवार नहीं उतारती है, और JDU भी बहुत सीमित सीटों पर ही दांव लगाई है, जिससे कुल प्रतिनिधित्व में खास बढ़ोतरी की उम्मीद नहीं है। 

AIMIM और अन्य AIMIM जैसे छोटे दल वोटों के विभाजन को और बढ़ाएंगे। अगर वे 2020 जैसा प्रदर्शन दोहराते हैं, तो कुल सीटों में मुस्लिम प्रतिनिधित्व तो बढ़ेगा, लेकिन यह RJD-कांग्रेस के लिए नुकसानदेह साबित हो सकता है। 

राजनीतिक विश्लेषकों के अनुसार, 2025 में मुस्लिम प्रतिनिधित्व 18 से 22 के बीच रहने की संभावना है। यानी, 19% आबादी के लिए यह 8% से भी कम की हिस्सेदारी हो सकती है। 

समाधान क्या है? हाशिये से सत्ता के केंद्र तक का सफर 

मुस्लिम समुदाय के राजनीतिक सशक्तिकरण के लिए केवल वोट डालने से बात नहीं बनेगी। जातीय गोलबंदी से ऊपर उठकर उन्हें केवल धार्मिक पहचान पर वोट देने के बजाय, उन उम्मीदवारों को चुनना होगा जो वास्तविक विकास और सामाजिक न्याय की बात करते हैं। 

नए नेतृत्व का उदय: समुदाय को शिक्षित, सक्षम और गैर-विवादास्पद नए नेताओं को आगे लाना होगा जो सभी समुदायों के बीच स्वीकार्य हों। 

पार्टी पर दबाव: मुस्लिम संगठनों को राजनीतिक पार्टियों पर खुला दबाव बनाना होगा कि वे जनसंख्या के अनुपात में टिकट दें, न कि केवल जीत की संभावना के आधार पर। 

'सेफ सीट' के मिथक को तोड़ना: मुस्लिम नेताओं को उन सीटों पर भी जीतने की क्षमता दिखानी होगी, जहां मुस्लिम आबादी कम है। इससे पार्टियों का डर दूर होगा। 

बिहार के लोकतंत्र का अधूरा आईना 

बिहार की राजनीति में मुस्लिम विधायकों की घटती संख्या सिर्फ एक चुनावी आंकड़ा नहीं है यह राज्य के लोकतंत्र का अधूरा आईना है। जब एक बड़ा समुदाय प्रतिनिधित्व से वंचित होता है, तो वह अलगाव महसूस करता है, जो अंततः राज्य के सामाजिक ताने-बाने को कमजोर करता है। पार्टियों को क्षणिक चुनावी लाभ से ऊपर उठकर, समावेशी राजनीति का परिचय देना होगा। 

बिहार का भविष्य तभी उज्जवल होगा जब हर समुदाय को सत्ता के गलियारों में उसका सही और सम्मानजनक स्थान मिलेगा। 

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