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बिहार चुनाव में चंद्रशेखर आजाद की एंट्री: दलित राजनीति के नए समीकरण, मांझी-पासवान-मायावती के लिए बड़ी चुनौती

भीम आर्मी प्रमुख चंद्रशेखर आजाद के बिहार विधानसभा चुनाव में उतरने से दलित राजनीति के समीकरण बदल सकते हैं। जानें कैसे मांझी, पासवान और मायावती को मिलेगी चुनौती।

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YBN Bihar Desk
Bihar Election Dalit party and votes
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बिहार की सियासत में एक नया मोड़ आया है। भीम आर्मी प्रमुख और आजाद समाज पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष चंद्रशेखर आजाद ने राज्य के विधानसभा चुनाव में उतरने का ऐलान कर दिया है। उनकी इस एंट्री से दलित वोट बैंक पर कब्जे की जंग और तेज हो गई है, जहां पहले से ही जीतन राम मांझी, चिराग पासवान और मायावती जैसे नेता अपना दावा पेश कर रहे हैं।

बिहार में दलित समाज की आबादी करीब 20% है, जिसमें रविदास, पासवान (दुसाध) और मुसहर समुदाय प्रमुख हैं। अब तक यह वोट बैंक मांझी की 'हम' पार्टी और चिराग पासवान की लोजपा के पास रहा है। लेकिन रामविलास पासवान के निधन और लोजपा में टूट के बाद यहां एक नेतृत्व का वैक्युम बना हुआ था, जिसे भरने के लिए चंद्रशेखर आजाद मैदान में आ गए हैं।

मायावती की बसपा को भी झटका?

बिहार के यूपी सीमावर्ती जिलों जैसे कैमूर, बक्सर और रोहतास में बसपा का प्रभाव रहा है। हालांकि, 2020 के चुनाव में मायावती की पार्टी सिर्फ एक सीट जीत पाई थी। अब चंद्रशेखर आजाद के आने से बसपा को एक और चुनौती मिल गई है। राजनीतिक माहिरों का मानना है कि अगर चंद्रशेखर दलित-मुस्लिम गठजोड़ पर काम करते हैं, तो वे मायावती का विकल्प बन सकते हैं।

एनडीए और महागठबंधन के लिए क्या मायने?

बिहार की 38 आरक्षित विधानसभा सीटों पर एनडीए (21) और महागठबंधन (17) का कब्जा है। चंद्रशेखर की एंट्री से इन दलों को चिंता हो सकती है, क्योंकि अगर दलित वोट बंटता है, तो इसका फायदा किसी को भी हो सकता है। कुछ विश्लेषकों का मानना है कि भाजपा जैसे संगठित दलों को इससे अप्रत्यक्ष लाभ मिल सकता है।

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ओवैसी का थर्ड फ्रंट भी डगमगाया

मायावती ने साफ कर दिया है कि बसपा न तो एनडीए में जाएगी और न ही इंडिया गठबंधन में। इससे असदुद्दीन ओवैसी के थर्ड फ्रंट बनाने के प्रयासों को झटका लगा है। 2020 में बनी 'ग्रैंड डेमोक्रेटिक सेक्युलर फ्रंट' (GDSF) को भारी निराशा हाथ लगी थी, जिसमें ओवैसी की AIMIM को 5 और बसपा को सिर्फ 1 सीट मिली थी।

क्या बदलेगा बिहार का दलित समीकरण?

चंद्रशेखर आजाद की उम्र, आक्रामक छवि और सोशल मीडिया पहुंच उन्हें युवा दलित मतदाताओं के बीच लोकप्रिय बना सकती है। लेकिन बिहार की जटिल जातीय राजनीति में सफल होने के लिए उन्हें स्थानीय नेताओं का समर्थन जुटाना होगा। अगर वे दलित वोटों को एकजुट करने में सफल होते हैं, तो बिहार की सत्ता की राह बदल सकती है।

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