/young-bharat-news/media/media_files/2025/10/18/bihar-election-2025-2025-10-18-15-34-13.jpg)
Explainer: सत्ता के लिए हर सौदा मंजूर! क्या है गठबंधन की 'पलटू' पॉलिटिक्स? | यंग भारत न्यूज Photograph: (YBN)
नई दिल्ली, वाईबीएन डेस्क ।भारतीय राजनीति में गठबंधन अब वैचारिक नहीं, बल्कि विशुद्ध स्वार्थ की नींव पर खड़े हैं। बिहार विधानसभा चुनावों में चिराग पासवान, उपेंद्र कुशवाहा और नीतीश कुमार के लगातार बदलते पाले इस बात का सबूत हैं कि दलों का एकमात्र लक्ष्य सत्ता हासिल करना है। नैतिकता और विचारधारा को सुविधा से परिभाषित किया जा रहा है, जिसने गठबंधनों को एक 'भरोसेमंद' संस्था के बजाय 'पलटवार' का पर्याय बना दिया है।
एक ऐसा दौर जब देश के राजनीतिक दल खुद को लोकसेवा का सच्चा वाहक बताते हैं, लेकिन पर्दे के पीछे की सच्चाई कुछ और ही है। आज राजनीति का एकमात्र ध्रुव 'सत्ता' रह गया है। यह सत्ता ही वह 'अमृत' है जिसके लिए दल किसी भी वैचारिक लक्ष्मण रेखा को पार करने को तैयार हैं। यह कहानी सिर्फ बिहार की नहीं है, बल्कि देशभर में फैल चुकी उस स्वार्थ-आधारित गठबंधन की राजनीति की है, जिसने मतदाताओं के भरोसे को बुरी तरह तोड़ा है।
क्या आपने कभी सोचा है कि एक दल जिसके साथ 17 साल तक गठबंधन रहा, वह अचानक सिर्फ एक 'प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार' की घोषणा पर अलग हो जाता है? या फिर वह पार्टी जो वर्षों तक एक-दूसरे की धुर विरोधी रही, वह 'सांप्रदायिकता' या 'भ्रष्टाचार' के नाम पर हाथ मिला लेती है? यह सब अचानक नहीं होता, बल्कि यह सुनियोजित 'सत्ता-प्राप्ति' का गणित है।
बिहार का सियासी अखाड़ा जब विचारधारा बनी 'हथियार'
बिहार, हमेशा से ही देश की प्रयोगशाला रहा है। यहां की राजनीति में अस्थिरता और गठबंधनों के टूटने-जुड़ने की दास्तानें सबसे ज्यादा चर्चित हैं। वर्तमान में, बिहार विधानसभा चुनाव है। दोनों प्रमुख गठबंधनों में जो खींचतान और जोड़-तोड़ दिख रही है, उसने इस 'स्वार्थी' चेहरे को फिर उजागर किया है। उदाहरण सामने हैं चिराग पासवान पिछली बार राजग NDA से अलग होकर अकेले चुनाव लड़ा। अब, वह फिर से मजबूती से राजग का हिस्सा हैं। उपेंद्र कुशवाहा राजग से अलग होने के बाद उन्हें मोदी-शाह की जोड़ी ने फिर से गठबंधन में शामिल किया ।
टिकट बंटवारे पर नाराजगी की खबरें आम हैं। सियासी विश्लेषक मानते हैं कि सत्ता की धारा बदलते ही ये नेता पाला बदलने में देर नहीं लगाएंगे।
राजद-कांग्रेस-सीपीआई-एमएल गठबंधन
एक समय था जब सीपीआई-एमएल CPI-ML और राजद RJD में अपने युवा नेता चंद्रशेखर की हत्या को लेकर वर्षों तक तनाव रहा, लेकिन सत्ता के लिए अब वे एक साथ हैं। यहां 'वैचारिक आधार' महज एक सुविधाजनक शब्दावली बनकर रह गई है, जिसे दल अपनी जरूरत के हिसाब से गढ़ते हैं।
सुविधाजनक 'नैतिकता' और 'सैद्धांतिकी' का निर्माण
गठबंधन में शामिल होने या उसे छोड़ने के लिए राजनीतिक दल एक 'चतुराई' भरी नैतिकता Clever Morality की परिभाषा गढ़ते हैं। यह बिल्कुल ऐसा है, जैसे मौसम के हिसाब से अपनी टोपी बदल लेना। साल 2020 के बिहार चुनाव में, राजद की अगुआई वाले गठबंधन में सीपीआई-एमएल का शामिल होना इसका सबसे बड़ा उदाहरण था। उन्होंने तब खुद को 'सांप्रदायिकता विरोधी' Anti-communalism एक बड़े वैचारिक आधार के रूप में पेश किया, भले ही इसके लिए उन्हें अपने पुराने दर्द और नेता की हत्या की घटना को परे रखना पड़ा।
क्या कहते हैं सियासी पंडित? आज के गठबंधन वैचारिक या नैतिक नहीं, बल्कि विशुद्ध रूप से लेन-देन Transactional पर आधारित हैं। वैचारिक समानता की जरूरत ही नहीं है जरूरत है बस 'सत्ता में हिस्सेदारी' की। विचारधारा तो गठबंधन की 'सुविधा' के अनुसार बदलती रहती है। इतिहास के पन्ने 'गैर-कांग्रेसवाद' से 'सांप्रदायिकता विरोध' तक भारतीय गठबंधनों का इतिहास भी स्वार्थ और प्रतिक्रियावादी राजनीति Reactive Politics से भरा पड़ा है।
1963 में पहला गठबंधन: इसका वैचारिक आधार डॉ. राम मनोहर लोहिया द्वारा गढ़ा गया 'गैर-कांग्रेसवाद' था। यह विचार 1977 और 1989 में कांग्रेस को चुनावी शिकस्त देने में सफल रहा।
1992 का पलटाव: अयोध्या घटना के बाद समाजवादियों का मन बदल गया। भाजपा की बढ़ती ताकत को रोकने के लिए, उन्होंने उसी कांग्रेस का हाथ थाम लिया, जिसके विरोध में वे खड़े हुए थे।
'गैर-भाजपा' गठबंधनों का वैचारिक मुलम्मा
'सांप्रदायिक राजनीति का विरोध' बन गया, लेकिन हकीकत में मकसद कांग्रेस के साथ मिलने वाली सत्ता का स्वाद चखना था। आज न जाने कितने ऐसे दल कांग्रेस के साथ हैं, जिनका जन्म 'गैर-कांग्रेसवाद' की वैचारिक कोख से हुआ था। पश्चिम बंगाल, त्रिपुरा और केरल में वामपंथ का उदय भी कांग्रेस नीतियों के विरोध में हुआ, लेकिन आज वे उसी कांग्रेस के साथ खड़े हैं।
'पलटूराम' की राजनीति: नाम बदलता है, चरित्र नहीं जब सत्ता समीकरण बदलता है, तो राजनीतिक दलों की चालें भी बदल जाती हैं। इस विद्रूप को समझना हो तो तीन प्रमुख नेताओं के कदमों पर गौर करना जरूरी है, जिन्हें 'पलटूराम' Paltu Ram की संज्ञा मिली।
01. नीतीश कुमार: बिहार 1996 में जनता दल से अलग होकर समता पार्टी बनाई और भाजपा से गठबंधन किया। 2013 में मोदी को पीएम उम्मीदवार बनाए जाने से नाराज होकर 17 साल पुराना गठबंधन तोड़ा। 2017 में फिर भाजपा के साथ लौटे। 2022 में राष्ट्रीय राजनीति में भूमिका के लिए भाजपा से नाता तोड़कर राजद के साथ चले गए, जिसके खिलाफ उन्होंने अपनी राजनीति खड़ी की थी। यह रिश्ता दो साल भी नहीं चला और वे फिर पाला बदल लिए। उनकी 'स्थाई' निष्ठा सिर्फ 'सत्ता' के प्रति दिखती है।
02. मुकेश सहनी: बिहार में पिछली बार नीतीश कुमार के साथ थे। इस बार लालू यादव के साथी हैं।
03. ओम प्रकाश राजभर: पिछले यूपी विधानसभा चुनाव में भाजपा से दूर चले गए थे। बाद में फिर उसके साथ आ गए। यह दल 'चतुराई' से शाब्दिक जाल बुनकर नई सैद्धांतिकी गढ़ते हैं। यदि अगले चुनाव में एक दल को विरोधी गठबंधन सत्ता से बाहर कर देता है, और सत्ताधारी गठबंधन में शामिल दल का मिजाज बदल जाता है, तो वह दल उस पार्टी के साथ खड़े होने में देर नहीं लगाता, जिसके विरोध में वह सत्ताधारी गठबंधन का हिस्सा रहा था।
महाराष्ट्र की 'विचाराधारा' शिवसेना-कांग्रेस-एनसीपी की नई कहानी
महाराष्ट्र में 1989 में शिवसेना और भाजपा का गठबंधन औपचारिक रूप से कांग्रेस के विरोध में शुरू हुआ था। यह 'विचारधारा के स्वाभाविक सहयोगी' कहे जाने वाले दलों का गठबंधन 2019 तक लगातार चला। लेकिन अगले विधानसभा चुनाव में सत्ता की खींचतान ने शिवसेना को भाजपा से अलग कर दिया।
क्या हुआ नतीजा?: आज शिवसेना उसी कांग्रेस के साथ खड़ी है, जिसे कभी बालासाहेब ठाकरे ने 'सोनिया की पंचकड़ी' कहकर विरोध किया था। यह साफ है कि विचारधारा की समानता भी दोनों दलों को एक साथ नहीं रख सकी केवल और केवल 'सत्ता' ही अंतिम सत्य साबित हुई।
क्या गठबंधन पर भरोसा करना चाहिए?: गठबंधन की राजनीति का जो अस्थिर और स्वार्थ से भरा रूप आज दिख रहा है, वह स्पष्ट संकेत है कि किसी भी गठबंधन के 'स्थाई' होने पर भरोसा नहीं किया जा सकता। राजनीति में न तो स्थाई शत्रुता होती है और न ही मित्रता-केवल स्थाई 'स्वार्थ' होता है।
यदि किसी एक गठबंधन को पूर्ण बहुमत नहीं मिलता है, तो हमें एक बार फिर से 'नई नैतिक परिभाषा' के आधार पर दलों का आवागमन Political Migration देखने के लिए तैयार रहना चाहिए। मतदाताओं को यह बात समझ लेनी चाहिए कि उनके वोट से बनी सरकार किसी भी क्षण सिर्फ 'सत्ता समीकरण' साधने के लिए अपना चरित्र बदल सकती है।
Satta Sangam | Coalition Dynamics | bihar politics | Bihar politics 2025 | Bihar politics drama | Ideology Vs Power | bihar election 2025