बिहार की सियासी बिसात पर इन दिनों एक नई चाल चल रही है, जहां RJD अपने नेता तेजस्वी यादव को महागठबंधन का स्वाभाविक चेहरा मानती है, वहीं कांग्रेस अब सिर्फ 'सहयोगी' नहीं, 'सांझेदार' की भूमिका चाहती है। तेजस्वी यादव की लोकप्रियता और विपक्षी एकता की कमान संभालने की उनकी इच्छा अब कांग्रेस को उतनी सहज नहीं लग रही। कांग्रेस के नेता खुलकर चेहरा घोषित करने से बच रहे हैं। उनका फोकस सीट शेयरिंग और रणनीति तय करने पर है। कांग्रेस के नए प्रभारी अलावरू का बयान कि "अभी सीएम फेस पर बात करना जरूरी नहीं है" इस बात का संकेत है कि कांग्रेस इस बार चुपचाप नहीं खेलेगी।
दिल्ली से पटना तक दोहरी रणनीति
दिल्ली की बैठक में भले ही मंच पर तेजस्वी को बोलने का मौका मिला हो, लेकिन कांग्रेस के नेताओं की 'साइलेंट डिप्लोमेसी' साफ दिख रही है। यह चुप्पी कोई संकोच नहीं, बल्कि सियासी रणनीति है — जिससे कांग्रेस गैर-यादव वोटर्स को साध सके और तेजस्वी को एकमात्र विकल्प मानने से बचे।
सीटों की गिनती से परे असल लड़ाई
पिछले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को 70 में से सिर्फ 19 सीटें मिली थीं, जिनमें से आधे से ज़्यादा पर RJD के वोट ट्रांसफर नहीं हो पाए थे। अब कांग्रेस फील्ड वर्क और जातीय समीकरणों के सहारे खुद को फिर से प्रासंगिक साबित करने की कोशिश कर रही है। कन्हैया कुमार की पदयात्रा, दलित नेता राजेश राम का उभार और गैर-यादव वोट बैंक पर फोकस — यह सब RJD के लिए नरम चुनौती नहीं है। कांग्रेस अपने "हिस्से" से कम में राज़ी नहीं दिख रही।
कांग्रेस की दोहरी मांग: सीटें और उपमुख्यमंत्री
सूत्रों के अनुसार, कांग्रेस चाहती है कि न सिर्फ उन्हें मनपसंद सीटें मिलें, बल्कि उपमुख्यमंत्री पद के लिए दलित चेहरे को स्वीकार भी किया जाए, जो कि राजेश राम हो सकते हैं। वहीं मुकेश सहनी भी इसी पद के लिए दावेदार हैं, जिससे गठबंधन में अंतर्विरोध और गहरा गया है।
महागठबंधन में यह सवाल अब तैर रहा है कि क्या कांग्रेस अंततः तेजस्वी को चेहरा मानने को तैयार है या यह सब सीटों की सौदेबाज़ी के लिए दबाव बनाने की 'पॉलिटिक्स' है? बैठकें जारी हैं, लेकिन सहमति की दूरी अब भी बरकरार है। बिहार में महागठबंधन की राह आसान नहीं। कांग्रेस अब पिछली बार की तरह सिर्फ संख्यात्मक भागीदार नहीं बनना चाहती, बल्कि नीतिगत और नेतृत्व स्तर पर हिस्सेदारी चाहती है।