बिहार की सियासत में सीमांचल एक बार फिर केंद्र में है — लेकिन इस बार मुद्दा महज सीटों का नहीं, सियासी नेतृत्व के संकट और अल्पसंख्यक राजनीति के पुनर्संयोजन का है। बहादुरगंज से चार बार विधायक रह चुके तौसीफ आलम (Tausif Alam) के कांग्रेस छोड़ AIMIM में शामिल होने ने इस क्षेत्र में राजनीति की दिशा बदलने की दस्तक दे दी है।
हैदराबाद में असदुद्दीन ओवैसी और बिहार AIMIM प्रमुख अख्तरुल ईमान की मौजूदगी में आलम की एंट्री केवल एक दल-बदल नहीं, बल्कि एक नए नेतृत्व की दावेदारी का संकेत है — खासकर उस वक्त जब सीमांचल में मुस्लिम मतदाता निर्णायक भूमिका निभाते हैं।
चार बार विधायक रहे हैं तौसीफ आलम
तौसीफ आलम की सीमांचल में मजबूत पकड़ और चार बार की जीत उन्हें सिर्फ एक नेता नहीं, बल्कि स्थानीय मुस्लिम राजनीति का चुपचाप चलता इंजन बनाती है। 2020 में AIMIM के ही अंजार नईमी से मिली हार और बाद में नईमी का RJD में जाना, इस पूरे घटनाक्रम को और दिलचस्प बना देता है।
AIMIM की आक्रामक रणनीति
ओवैसी ने पहले ही साफ किया है कि उनकी पार्टी किसी गठबंधन का हिस्सा नहीं बनेगी। यह घोषणा बिहार में अन्य दलों के समीकरणों को उलझा चुकी है। AIMIM की निगाह सीमांचल पर है, जहां वह पुराने गढ़ों को फिर से मजबूत करने के साथ-साथ नए क्षेत्रों में पैठ बनाने की तैयारी में है।
कांग्रेस के लिए खतरे की घंटी
आलम का जाना कांग्रेस के लिए सिर्फ एक नेता की विदाई नहीं, बल्कि सीमांचल में पार्टी की अल्पसंख्यक पकड़ कमजोर पड़ने का स्पष्ट संकेत है। पहले ही कई जिलों में कांग्रेस संगठनात्मक शिथिलता से जूझ रही है। अब अनुभवी मुस्लिम चेहरों का पार्टी छोड़ना उसे 2025 की लड़ाई में हाशिए पर खड़ा कर सकता है।