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नई दिल्ली, वाईबीएन डेस्क ।बिहार विधानसभा चुनाव 2025 में महागठबंधन की करारी हार के बाद अब कांग्रेस और राजद के बीच टकराव खुलकर सामने आ गया है। सूत्रों के मुताबिक, हार का ठीकरा तेजस्वी यादव की 'मनमानी' और सीट बंटवारे में 'भेदभाव' पर फोड़ा जा रहा है। कांग्रेस आलाकमान ने मंथन शुरू कर दिया है, जहां आरोप है कि राजद ने जानबूझकर "खराब सीटें" थमाईं। यह 'भीतरघात' न सिर्फ हार की असली वजह है, महागठबंधन के भविष्य पर भी गंभीर सवाल खड़े करता है। 61 सीटों का 'जाल' क्या तेजस्वी ने कांग्रेस को हारने के लिए ही दी थीं सीटें?
बिहार चुनाव परिणाम सामने आने के बाद से ही महागठबंधन में बेचैनी है। लेकिन यह बेचैनी सिर्फ हार की नहीं, बल्कि 'घर के अंदर' हुए एक बड़े राजनीतिक 'धोखे' की है। कांग्रेस के अंदरखाने से जो खबरें छनकर आ रही हैं, वे चौंकाने वाली हैं।
कांग्रेस का स्पष्ट आरोप है कि राजद RJD ने सहयोगी धर्म नहीं निभाया, बल्कि जानबूझकर ऐसी 'जाल वाली' सीटें दीं जहां जीतना नामुमकिन था। आखिर 61 सीटों के गणित में ऐसा क्या था जिसने महागठबंधन का खेल बिगाड़ दिया? कांग्रेस के 'हाथ' आईं सीटें, मगर जीत से कितनी दूर?
कुल सीटें मिलीं 61 'फ्रेंडली फाइट' वाली सीटें
यानी इन सीटों पर दोनों दलों के नेता एक दूसरे को काटने में लगे रहे। ऐसी सीटें जहां कभी जीत नहीं मिली। पिछले कई चुनावों में कांग्रेस या राजद का कोई वजूद नहीं रहा। 'कभी-कभी' वाली सीटें ऐसी सीटें जहां पिछले कई चुनावों में सिर्फ एक बार जीत मिली थी।
'जिताऊ' सीटें: जहां जीतने की प्रबल संभावना थी सिर्फ यह डेटा चीख-चीखकर बता रहा है कांग्रेस को जानबूझकर हारी हुई सीटें बांटी गईं। अगर 61 में से सिर्फ 14 सीटें ही जीतने लायक थीं, तो यह साफ है कि तेजस्वी यादव ने सीट बंटवारे में पूरी तरह 'मनमानी' की।
कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता ने नाम न छापने की शर्त पर कहा, "हमने 14 जिताऊ सीटों में से 6 सीटें जीती हैं। यानी हमारा स्ट्राइक रेट अच्छा रहा। अगर हमें 40 भी जिताऊ सीटें मिलतीं, तो आज तस्वीर कुछ और होती। यह सीधे तौर पर राजद की साजिश थी।" तेजस्वी की 'जल्दी' और ओवैसी का 'फायदा' क्या सीएम की चाहत पड़ी भारी? हार की वजह सिर्फ सीट बंटवारा नहीं है। कांग्रेस आलाकमान का दूसरा बड़ा आरोप तेजस्वी यादव के जल्दबाजी में सीएम फेस बनने की जिद पर है।
सूत्रों के मुताबिक, राजद ने महागठबंधन में तेजस्वी को मुख्यमंत्री चेहरा घोषित करवाने पर इस कदर जोर दिया कि गठबंधन में भारी खींचतान मच गई।
सीएम और डिप्टी सीएम फेस की जिद, और तीन बड़े 'साइड इफेक्ट'
मुकेश सहनी की डिप्टी सीएम मांग तेजस्वी को सीएम फेस घोषित करने के बाद, मुकेश सहनी वीआईपी को उप-मुख्यमंत्री पद का वादा करना पड़ा। महागठबंधन के भीतर इस तरह के दबाव ने सहयोगियों के बीच विश्वास कम किया। मुस्लिम मतों का बिखराव ओवैसी फैक्टर मुस्लिम समुदाय में यह बात गहराई तक गई कि एक 'मुख्यमंत्री की चाहत' वाले नेता के लिए महागठबंधन में दबाव बनाया जा रहा है। इसका सीधा नकारात्मक असर दिखा।
AIMIM ओवैसी ने इस मौके का फायदा उठाया और सीमांचल में मुस्लिम मतों का बड़ा हिस्सा खींच लिया, जिससे राजद और कांग्रेस दोनों को भारी नुकसान हुआ।
दलित-सवर्णों की नाराज़गी: मुख्यमंत्री पद की जल्दबाजी ने दलित और सवर्ण मतदाताओं के बीच भी एक तरह की नकारात्मक छवि बनाई, जिसका फायदा जेडीयू और बीजेपी को मिला। यह एक बड़ी राजनीतिक भूल थी।
जब नीतीश कुमार जैसा कद्दावर नेता सामने था, तब सीएम फेस की घोषणा की जिद ने तेजस्वी की छवि को 'सत्ता-लोभी' के रूप में पेश किया। नीतीश के सामने 'टूरिस्ट' दिखे तेजस्वी आख़िरी दिनों की रैलियां क्यों थीं बेअसर?
नीतीश कुमार के अनुभवी चेहरे के सामने तेजस्वी यादव टिक नहीं सके, यह एक कड़वी सच्चाई है। चुनाव विश्लेषकों का मानना है कि तेजस्वी ने अपनी राजनीतिक साख को मजबूत करने के लिए पिछले पांच साल तक कोई ठोस ज़मीनी काम नहीं किया। कहां चूक गए बिहार के युवा नेता?
पांच साल का 'प्रचार-प्रसार ब्रेक'
सत्ता से बाहर होने के बावजूद, तेजस्वी लगातार ज़मीनी स्तर पर प्रचार-प्रसार और पार्टी संगठन को मजबूत करने से दूर रहे।
आखिरी मिनट की घोषणाएं: चुनाव के ठीक पहले किए गए रोज़गार, पलायन रोकने और लाभार्थी योजनाओं के वादे जनता के दिल तक नहीं पहुंच पाए, क्योंकि उन्हें पर्याप्त समय नहीं मिला।
'25 रैलियों' का बोझ: चुनाव के अंतिम दिनों में रोज 25 रैलियां करने का फैसला महज 'दिखावा' साबित हुआ।
इन रैलियों में तेजस्वी सिर्फ उम्मीदवारों को वोट देने की अपील करते दिखे, न कि अपने प्रमुख मुद्दों रोजगार, पलायन को जनता को समझाते। वरिष्ठ राजनीतिक पत्रकार विजय सिन्हा कहते हैं, "तेजस्वी को अपने एजेंडे को स्थापित करने के लिए कम से कम 6 महीने पहले से धुआंधार प्रचार में उतरना चाहिए था। आखिरी दिनों की भाग-दौड़ ने उन्हें एक 'टूरिस्ट लीडर' की तरह पेश किया, जो सिर्फ टिकट देने के लिए आया है।"
जीविका दीदियां और 'बाहरी बिहारी' वो वोट जो साइलेंटली फिसल गया
हार के विश्लेषण में कुछ ऐसे 'साइलेंट वोटर्स' की भूमिका सामने आई है, जिसने नतीजों को अप्रत्याशित रूप से पलट दिया।
जीविका दीदियों का निर्णायक वोट: जीविका दीदियां SHGs बिहार में एक बड़ा वोट बैंक हैं। चुनाव के ठीक समय पर, कथित तौर पर उन्हें 10 हज़ार की राशि मिलती रही। इस 'लाभार्थी' फैक्टर ने महिलाओं के एक बड़े वर्ग का झुकाव एनडीए की तरफ कर दिया।
हालांकि चुनाव आयोग ने इस पर कोई ठोस एक्शन नहीं लिया, लेकिन इसने नतीजों पर गहरा असर डाला।
'बाहरी बिहारी' वोटर्स की घर वापसी: बीजेपी ने एक प्रभावी रणनीति अपनाई। दूसरे राज्यों में काम करने वाले बिहारियों को अपने खर्चे पर टिकट देकर उन्हें मतदान के लिए वापस बिहार भेजा गया। यह अच्छी-खासी संख्या थी, जो सीधे-सीधे बीजेपी के पक्ष में गई।
वोट चोरी का मुद्दा और ममता बनर्जी का 'मॉडल' तेजस्वी का 'कमजोर' स्टैंड?
कांग्रेस ने चुनाव में 'वोट चोरी' और ईवीएम में गड़बड़ी का मुद्दा उठाया, लेकिन राजद ने इसे पूरी मज़बूती से जनता के बीच नहीं भुनाया। कांग्रेस का प्रयास राज्य में कमजोर संगठन और छोटा दल होने के बावजूद, कांग्रेस ने इस मुद्दे को पुरजोर तरीके से उठाया।
तेजस्वी की चुप्पी: बड़ा और मजबूत दल होने के बावजूद, तेजस्वी यादव ने पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की तर्ज़ पर इस मुद्दे को जनता से कनेक्ट नहीं किया। ममता ने ऐसे ही मुद्दों को भावनात्मक तरीके से उठाकर सत्ता में वापसी की थी।
विपक्षी दलों की यह सबसे बड़ी विफलता है कि वे जनता के बीच 'लोकतंत्र बचाओ' के इस मुद्दे को सही से स्थापित नहीं कर पाए।
रामलीला मैदान में 'वोट चोरी' पर महा-रैली
हार की शुरुआती समीक्षा के बाद, कांग्रेस अब एक आक्रामक रणनीति की ओर बढ़ रही है।
डाटा जुटाना: कांग्रेस जल्द ही बिहार चुनाव में कथित वोट चोरी और 'SIR' Systematic Irregularity in Results में गड़बड़ी के आंकड़े जुटाएगी।
हाई-लेवल चर्चा: लालू प्रसाद यादव और तेजस्वी से राहुल गांधी और मल्लिकार्जुन खड़गे की फोन पर चर्चा हो चुकी है।
अब महागठबंधन के बाकी दलों के नेताओं से संपर्क किया जा रहा है।
रामलीला मैदान में हुंकार: दिसंबर की शुरुआत में, दिल्ली के रामलीला मैदान में इसी मुद्दे पर एक विशाल महा-रैली का आयोजन होगा, जिसमें महागठबंधन के सभी दलों को आमंत्रित किया जाएगा।
यह स्पष्ट है कि महागठबंधन में अंदरूनी कलह और आरोप-प्रत्यारोप का सिलसिला अभी थमेगा नहीं। लेकिन बड़ा सवाल यह है कि क्या तेजस्वी यादव अपनी 'मनमानी' का ठीकरा सिर्फ कांग्रेस पर फोड़कर महागठबंधन के भीतर अपनी साख बचा पाएंगे? भविष्य की राजनीति के लिए यह टकराव एक गंभीर संकेत है।
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