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150 साल का वो सफर जिसने भारत को 'मां भारती' कहा | यंग भारत न्यूज Photograph: (X.com)
नई दिल्ली, वाईबीएन डेस्क ।आज से ठीक 150 साल पहले, 7 नवंबर 1875 को, बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय ने एक ऐसी अमर रचना लिखी, जो महज कविता नहीं, बल्कि आजादी की आत्मा बन गई। 'वंदे मातरम' सिर्फ राष्ट्रगीत नहीं, बल्कि हर भारतीय के लिए मातृभूमि के प्रति अटूट प्रेम का वो मंत्र है, जिसने गुलामी की बेड़ियों को तोड़ दिया।
इस 150वीं वर्षगांठ पर जानिए कैसे एक पत्रिका में छपा गीत, देश का अमर राष्ट्रगीत बन गया और आज भी हर दिल में गूंजता है। एक कविता जो बन गई 'आजादी का महामंत्र' 'वंदे मातरम' - ये सिर्फ दो शब्द नहीं, बल्कि करोड़ों भारतीयों की भावना है।
कल्पना कीजिए उस दौर की, जब भारत अंग्रेजी हुकूमत की जंजीरों में जकड़ा हुआ था। हर तरफ निराशा थी, लेकिन बंगाल के एक महान साहित्यकार, बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय की लेखनी में वो चिंगारी थी, जो पूरे देश में आग लगा सकती थी।
7 नवंबर 1875 अक्षय नवमी का पावन अवसर: माना जाता है कि इसी दिन बंकिम चंद्र ने इस गीत को रचा। उनका मकसद सिर्फ एक गीत लिखना नहीं था, बल्कि मातृभूमि को 'देवी' के रूप में पूजने का एक नया विचार देना था। उन्होंने भारत को एक अमूर्त भूमि के बजाय, साक्षात 'मां' के रूप में देखने की दृष्टि दी।
बंगदर्शन से 'आनंदमठ' तक का सफर
दिलचस्प बात यह है कि 'वंदे मातरम' को पहली बार किसी बड़े मंच पर नहीं, बल्कि एक बंगाली साहित्यिक पत्रिका 'बंगदर्शन' में प्रकाशित किया गया था। यह किसी को नहीं पता था कि पत्रिका का एक छोटा सा अंश, इतिहास का रुख मोड़ देगा। लेकिन इस गीत को अमरता मिली साल 1882 में, जब बंकिम चंद्र ने इसे अपने कालजयी उपन्यास 'आनंदमठ' में शामिल किया। क्या है 'आनंदमठ' की कहानी?
उपन्यास 'आनंदमठ' की कहानी 1770 के संन्यासी विद्रोह पर आधारित है। इसमें संन्यासियों का एक समूह 'मां भारती' की सेवा को ही अपना धर्म मानता है। उनके लिए 'वंदे मातरम' केवल एक गीत नहीं, बल्कि पूजा का प्रतीक है। उपन्यास में मां की तीन मूर्तियां भारत के तीन स्वरूपों को दर्शाती हैं अतीत की गौरवशाली माता, वर्तमान की पीड़ित माता और भविष्य की पुनर्जीवित माता। क्या आप जानते हैं कि इसी उपन्यास के आधार पर महान दार्शनिक अरविंदो घोष ने कहा था कि यह मां भीख का कटोरा लिए हुए नहीं है, बल्कि 'सत्तर करोड़ हाथों में तलवार लिए भारत माता' है?
इस सोच ने राष्ट्रीय चेतना को एक नया आयाम दिया। गुरुदेव टैगोर की 'धुन' और पहला सार्वजनिक गायन एक गीत को जन-जन तक पहुंचाने के लिए उसे एक दमदार धुन की जरूरत होती है। यह ऐतिहासिक काम किया नोबेल पुरस्कार विजेता रवींद्रनाथ टैगोर ने। उन्होंने 'वंदे मातरम' को संगीत में ढालकर उसे वो 'आवाज़' दी, जो सीधे दिल में उतरती थी।
पहला सार्वजनिक गायन साल 1896 में: कलकत्ता में हुए कांग्रेस अधिवेशन में रवींद्रनाथ टैगोर ने इसे पहली बार सार्वजनिक रूप से गाया।
राजनीतिक नारा बना 7 अगस्त 1905 को: जब बंगाल विभाजन के विरोध में लोग सड़कों पर उतरे, तब 'वंदे मातरम' पहली बार एक शक्तिशाली राजनीतिक नारे के रूप में इस्तेमाल हुआ।
ब्रिटिश हुकूमत के लिए यह गीत खतरे की घंटी बन गया था। इस गीत की लोकप्रियता ने उन्हें झकझोर कर रख दिया।
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प्रतिरोध का गीत जब यह हर भारतीय की आवाज़ बना
साल 1905 का स्वदेशी आंदोलन इस गीत के लिए टर्निंग पॉइंट साबित हुआ। यह कोलकाता से लाहौर तक, गांव से शहर तक फैल गया। 'वंदे मातरम' के जयघोष से ब्रिटिश शासन को खुलेआम चुनौती मिलने लगी। ब्रिटिश सरकार ने स्कूलों और कॉलेजों में इस गीत पर रोक लगा दी। लेकिन इसका नतीजा उल्टा हुआ क्या आप जानते हैं?
एक बार तो 200 छात्रों पर यह गीत गाने के लिए 5-5 रुपये का जुर्माना लगाया गया था, लेकिन उन्होंने इसकी परवाह नहीं की। लाला लाजपत राय ने लाहौर से अपना जर्नल 'वंदे मातरम' नाम से प्रकाशित किया। देश-विदेश में क्रांतिकारी इस गीत से प्रेरणा लेने लगे।
अंतर्राष्ट्रीय पहचान: साल 1907 में जर्मनी के स्टुटगार्ट में मैडम भीकाजी कामा ने जब पहली बार भारत का तिरंगा फहराया, तो उस पर गर्व से 'वंदे मातरम' लिखा था।
अंतिम शब्द: इंग्लैंड में फांसी से पहले मदनलाल धींगरा के अंतिम शब्द थे - 'वंदे मातरम'।
इसने साबित कर दिया कि यह गीत सिर्फ एक कविता नहीं, बल्कि आजादी की लड़ाई की 'आत्मा' बन चुका था।
विवादों के बावजूद राष्ट्रगीत का दर्जा: आजादी के बाद, 'वंदे मातरम' को लेकर कुछ धार्मिक संगठनों ने आपत्ति जताई। उनका तर्क था कि इस गीत में मातृभूमि को देवी दुर्गा के रूप में दर्शाया गया है।
यह विवाद आज भी कभी-कभी सिर उठाता है। लेकिन स्वतंत्रता संग्राम में इसकी अभूतपूर्व भूमिका को नकारा नहीं जा सकता था।
ऐतिहासिक फैसला: 24 जनवरी 1950 को, संविधान सभा ने सर्वसम्मति से 'वंदे मातरम' को भारत का राष्ट्रीय गीत घोषित किया।
डॉ. राजेंद्र प्रसाद का वक्तव्य: तत्कालीन अध्यक्ष डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने घोषणा की कि 'वंदे मातरम' को राष्ट्रगान 'जन गण मन' के समान सम्मान दिया जाएगा।
इस घोषणा के साथ ही, यह गीत देश के गौरव, एकता और राष्ट्रभावना का प्रतीक बन गया। 150 साल का जश्न क्यों है आज भी ये गीत इतना प्रासंगिक?
इस वर्ष, केंद्र सरकार पूरे देश में 'वंदे मातरम' के 150 वर्ष पूरे होने का भव्य उत्सव मना रही है। यह उत्सव एक साल तक चलेगा, ताकि नई पीढ़ी इस गीत के महत्व को जान सके।
राष्ट्रीय समारोह दिल्ली के इंदिरा गांधी इंडोर स्टेडियम में प्रधानमंत्री द्वारा उद्घाटन समारोह होगा।
स्मारक जारी: इस अवसर पर विशेष स्मारक डाक टिकट और सिक्का जारी किया जाएगा।
विश्व स्तर पर सम्मान: 'वंदे मातरम सैल्यूट टू मदर अर्थ' थीम पर भारत के सभी दूतावासों में सांस्कृतिक कार्यक्रम और पौधरोपण अभियान आयोजित होंगे।
आज 150 साल बाद भी, जब यह गीत गूंजता है, तो हर भारतीय के रोंगटे खड़े हो जाते हैं। यह हमें याद दिलाता है कि भारत की असली ताकत उसकी विविधता में एकता और मातृभूमि के प्रति अटूट समर्पण में है। यह गीत केवल अतीत की स्मृति नहीं, बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए राष्ट्रवाद की सबसे बड़ी प्रेरणा है।
वंदे मातरम की उपेक्षा आजादी के बाद का कड़वा सच
यह बहुत ही दु:खद है कि आजादी के बाद, जिस गीत ने लाखों बलिदानियों को ऊर्जा दी, वह धीरे-धीरे सरकारी उपेक्षा का शिकार हो गया। आजादी के बाद की कई सरकारों ने इसे वह महत्व नहीं दिया, जिसका यह हकदार था। कुछ राजनीतिक दलों और नेताओं ने तुष्टिकरण की राजनीति के चलते, समय-समय पर इसके पूर्ण गायन का विरोध किया।
कांग्रेस ने भी 1937 में इसके केवल पहले दो छंदों को ही स्वीकार किया था। यह बहस चलती रही कि राष्ट्रगान और राष्ट्रगीत के बीच प्राथमिकता किसकी हो? इस उपेक्षा का सबसे बड़ा नुकसान यह हुआ कि एक पूरी पीढ़ी 'वंदे मातरम' के क्रांतिकारी इतिहास से अंजान रह गई।
आज, जब हम 150 साल का जश्न मना रहे हैं, तो यह सोचना जरूरी है कि क्या हमने इस गीत को केवल 'राष्ट्रगीत' का दर्जा देकर इसके मूल भाव और क्रांतिकारी इतिहास को भुला तो नहीं दिया?
यह सिर्फ एक गीत नहीं, बल्कि 'मां भारती' के प्रति समर्पण की एक अमर गाथा है।
Bankim Chandra | Vande Mataram | वंदे मातरम 150 वर्ष
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