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जब भारत का PMO ही बना था विदेशी जासूसों का अड्डा! अब BJP सांसद ने खोल दी 1985 की खुफिया फाइल! | यंग भारत न्यूज Photograph: (Google)
नई दिल्ली, वाईबीएन डेस्क ।आज गुरूवार 10 जुलाई 2025 को भाजपा सांसद निशिकांत दुबे ने अपने सोशल मीडिया हैंडल एक्स पर एक डाक्यूमेंट जारी करते हुए एक ऐसा खुलासा किया जिसने देश को हिला दिया है! जारी पोस्ट के मुताबिक साल 1985 में कैसे प्रधानमंत्री कार्यालय (PMO) ही विदेशी जासूसी का अड्डा बन गया था? रक्षा सौदों से लेकर गोपनीय फाइलों तक, भारत की सुरक्षा से खिलवाड़ की वो पूरी कहानी, जिसने देश को सदमे में डाल दिया था।
आपको बता दें कि भारत के इतिहास में कुछ ऐसी तारीखें होती हैं जो सिर्फ़ कैलेंडर पर अंकित नहीं होतीं, बल्कि राष्ट्र के सामूहिक मानस पर एक गहरा निशान छोड़ जाती हैं। 1985 का वह दौर, जब देश श्रीमती इंदिरा गांधी की निर्मम हत्या और भोपाल गैस त्रासदी जैसे भयावह हादसों से उबरने की कोशिश कर रहा था, तब एक और बम फटा। यह बम था विदेशी जासूसी का, जिसने सीधे भारत के प्रधानमंत्री कार्यालय (PMO) की दीवारों में सेंध लगा दी थी। आज, 10 जुलाई 2025 को भाजपा सांसद निशिकांत दुबे के एक्स (पूर्व ट्विटर) हैंडल से जारी एक दस्तावेज़ ने उस भूले-बिसरे अध्याय को फिर से कुरेद दिया है, जिसने एक समय देश की सुरक्षा पर गंभीर सवाल खड़े कर दिए थे।
1985 पूरा माननीय राजीव गांधी जी का प्रधानमंत्री कार्यालय विदेशी जासूसी का अड्डा
— Dr Nishikant Dubey (@nishikant_dubey) July 10, 2025
1. कूमर नारायण रक्षा सौदे का बिचौलिया पकड़ाया
2. प्रधानमंत्री जी के प्रधान सचिव अलेक्जेंडर साहब को इस्तीफ़ा देना पड़ा
3. प्रधानमंत्री कार्यालय के अधिकारियों सहित 17 लोगों को जासूसी के जुर्म में जेल… pic.twitter.com/O2vj3XDB2P
PMO में सेंध: जब सुरक्षा का किला ही असुरक्षित हो गया
PMO देश का सबसे संवेदनशील कार्यालय, जहां राष्ट्र की सुरक्षा, विदेश नीति और परमाणु ऊर्जा से जुड़े सबसे गोपनीय निर्णय लिए जाते हैं, वही विदेशी ताकतों के लिए एक खुला मैदान बन जाए। 1985 में ठीक ऐसा ही हुआ था। यह सिर्फ़ एक जासूसी कांड नहीं था, यह भारत की संप्रभुता पर सीधा हमला था, एक ऐसी चोट जिसने देश के आत्मविश्वास को हिला दिया था। सवाल यह उठता है कि क्या हम वास्तव में गुलाम थे, जैसा कि निशिकांत दुबे ने अपने पोस्ट में कहा है: "कॉंग्रेस का हाथ?"
कुमर नारायण और रक्षा सौदों का गहरा राज़
इस पूरे प्रकरण के केंद्र में था कूमर नारायण, जिसे रक्षा सौदों का बिचौलिया बताया गया। ऐसा व्यक्ति, जिसके तार सीधे देश के प्रधानमंत्री कार्यालय से जुड़े थे और वह संवेदनशील रक्षा जानकारी विदेशी एजेंटों तक पहुंचा रहा था। यह सिर्फ़ एक बिचौलिया नहीं था, बल्कि वह उस मकड़जाल का एक महत्वपूर्ण सिरा था, जो भारत की सुरक्षा को खोखला कर रहा था। रक्षा सौदे, जो देश की सैन्य शक्ति की रीढ़ होते हैं, उन्हीं में सेंधमारी भारत की सामरिक क्षमताओं को सीधे तौर पर कमजोर कर सकती थी। कूमर नारायण की गिरफ्तारी ने इस बात की पुष्टि की कि मामला कितना गंभीर था। यह उस विश्वासघात की शुरुआत थी, जिसने भारत को हिला दिया।
अलेक्जेंडर साहब का इस्तीफा: एक पर्दा और कई सवाल
जासूसी के इस भयंकर तूफान में एक और बड़ा नाम सामने आया - प्रधानमंत्री के प्रधान सचिव, पी.सी. अलेक्जेंडर। वे न केवल तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी, बल्कि राजीव गांधी के भी शीर्ष सहयोगी थे और देश के सबसे सम्मानित सिविल सेवकों में से एक थे। उन पर सीधे तौर पर जासूसी का आरोप नहीं लगा था, लेकिन उनके कार्यालय से सैकड़ों गोपनीय फाइलों के लीक होने के बाद उन्हें "नैतिक जिम्मेदारी" लेते हुए इस्तीफा देना पड़ा था।
क्या यह सिर्फ़ नैतिक जिम्मेदारी थी, या कुछ और गहरा राज़ था जो परदे के पीछे छिपा था? एक ऐसे उच्च पदस्थ अधिकारी का इस्तीफा, जो देश की सुरक्षा के सबसे करीब था, अपने आप में कई अनुत्तरित प्रश्न छोड़ गया। यह घटना इस बात का प्रमाण थी कि जासूसी का यह जाल कितना गहरा और व्यापक था।
17 लोगों को जेल और दोषी ठहराया जाना: न्याय या सिर्फ़ ऊपरी सफाई?
इस जासूसी रैकेट में सिर्फ़ कूमर नारायण या पी.सी. अलेक्जेंडर ही नहीं, बल्कि प्रधानमंत्री कार्यालय के कई अन्य अधिकारी और कुछ व्यवसायी भी शामिल थे। कम से कम 15 सरकारी अधिकारियों और तीन व्यवसायियों को आधिकारिक गोपनीयता अधिनियम (Official Secrets Act) के उल्लंघन और सरकार के खिलाफ आपराधिक साजिश के आरोप में गिरफ्तार किया गया था।
निशिकांत दुबे के अनुसार, इनमें से 17 लोगों को जासूसी के जुर्म में जेल भेजा गया और अदालत ने उन्हें दोषी भी ठहराया। यह आंकड़ा चौंकाने वाला है! जब देश का सर्वोच्च कार्यालय ही इस तरह की गतिविधियों में लिप्त हो, तो आम नागरिक की सुरक्षा और विश्वास का क्या? क्या यह केवल कुछ "मोहरे" थे, या इस पूरे प्रकरण के पीछे कोई बड़ी साजिश थी, जिसके बारे में आज तक पूरी जानकारी सामने नहीं आई है?
गोपनीयता का पर्दा: आखिर क्या छिपाया गया?
सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि तत्कालीन सरकार ने इस मामले की पूरी जानकारी सार्वजनिक नहीं की। यह बताया गया कि सरकार उन रहस्यों का खुलासा करने में संकोच कर रही थी जो उजागर हुए थे। प्रधानमंत्री के कार्यालय में एक व्यक्ति के पास रक्षा, विदेश नीति, परमाणु ऊर्जा और आधिकारिक गतिविधि से संबंधित सभी गोपनीय फाइलों तक पहुंच थी।
इसका मतलब है कि भारत के सबसे संवेदनशील निर्णय और रणनीतिक जानकारियां विदेशी ताकतों के हाथों में जा चुकी थीं। द हिंदुस्तान टाइम्स ने तब यह रिपोर्ट भी प्रकाशित की थी कि नई दिल्ली के सबसे बड़े अंग्रेजी भाषा के दैनिक ने विदेशी एजेंटों को दस्तावेज सौंपे थे। यह दर्शाता है कि यह जासूसी सिर्फ़ PMO तक ही सीमित नहीं थी, बल्कि इसका जाल और भी गहरा था। आखिर क्या छिपाया गया था? कौन से रहस्य थे जो देश की सुरक्षा के लिए खतरा बन चुके थे? ये सवाल आज भी अनुत्तरित हैं।
राजीव गांधी का युवा नेतृत्व और एक देश का विश्वास
यह जासूसी कांड ऐसे समय हुआ जब राजीव गांधी ने अपनी मां की दुखद हत्या के बाद युवा नेतृत्व संभाला था। उनकी कांग्रेस (आई) पार्टी ने राष्ट्रीय चुनावों में भारी जीत हासिल की थी, और देश उन पर बड़ा भरोसा कर रहा था। लेकिन इस कांड ने देश की सुरक्षा को एक गंभीर धक्का पहुंचाया, जिसकी जिम्मेदारी राजीव गांधी के युवा कंधे पर आ पड़ी थी। उन्हें एक ऐसे जासूसी घोटाले का सामना करना पड़ा था, जिसे उन्होंने "सबसे गंभीर" बताया था। एक नया भारत बनाने की उम्मीदों के बीच, यह घटना एक काला धब्बा बन गई थी। यह उस समय की राजनीति पर एक गंभीर प्रश्नचिह्न लगाती है, जब देश को स्थिरता और सुरक्षा की सबसे ज्यादा जरूरत थी।
आज भी गूंजते सवाल: क्या हम सच में आज़ाद थे?
निशिकांत दुबे का यह खुलासा आज भी कई सवाल खड़े करता है। क्या 1985 में हम सचमुच विदेशी ताकतों के गुलाम थे, जैसा कि वह कहते हैं? क्या उस समय की सरकार देश की सुरक्षा को लेकर पर्याप्त रूप से गंभीर नहीं थी, या यह एक ऐसी गहरी साजिश थी जिसका पता लगाना असंभव था? इस तरह के जासूसी कांड न केवल राष्ट्र की सुरक्षा को खतरे में डालते हैं, बल्कि नागरिकों के भरोसे को भी तोड़ते हैं। यह दिखाता है कि कैसे देश के भीतर से ही कुछ लोग विदेशी हितों के लिए काम कर सकते हैं, जिससे देश की संप्रभुता पर आंच आती है।
वर्तमान परिप्रेक्ष्य: सबक लेना ज़रूरी है
आज, जब भारत वैश्विक मंच पर अपनी स्थिति मजबूत कर रहा है और एक शक्तिशाली राष्ट्र के रूप में उभर रहा है, तो 1985 जैसे जासूसी कांडों से सबक लेना और भी महत्वपूर्ण हो जाता है। देश की सुरक्षा, डेटा गोपनीयता और महत्वपूर्ण प्रतिष्ठानों की सुरक्षा आज भी एक चुनौती है। विदेशी शक्तियां हमेशा भारत की बढ़ती ताकत को कमजोर करने की कोशिश में रहती हैं। इसलिए, हमें अपनी आंतरिक सुरक्षा प्रणाली को और मजबूत करना होगा, ताकि भविष्य में ऐसा कोई जासूसी कांड हमारे देश को फिर से हिला न सके। यह सिर्फ़ इतिहास का एक अध्याय नहीं, बल्कि भविष्य के लिए एक गंभीर चेतावनी है।
क्या इस पर और जांच होनी चाहिए?
निशिकांत दुबे द्वारा जारी किए गए दस्तावेज़ ने एक पुरानी बहस को फिर से जिंदा कर दिया है। क्या इस मामले पर और गहराई से जांच होनी चाहिए, ताकि उन सभी सवालों के जवाब मिल सकें जो आज भी अनुत्तरित हैं? क्या देश को यह जानने का हक है कि उस समय क्या हुआ था, और इसमें कौन-कौन शामिल थे? पारदर्शिता और जवाबदेही किसी भी लोकतंत्र की नींव होती है। अगर हम अपने अतीत से सबक नहीं सीखते हैं, तो इतिहास खुद को दोहरा सकता है।
1985 का जासूसी कांड भारत के इतिहास का एक काला अध्याय है। यह न केवल देश की सुरक्षा व्यवस्था की खामियों को उजागर करता है, बल्कि यह भी दर्शाता है कि कैसे कुछ लोगों के स्वार्थ देश को भारी नुकसान पहुंचा सकते हैं। निशिकांत दुबे का यह खुलासा हमें एक बार फिर उस दौर की याद दिलाता है और हमें अपनी सुरक्षा प्रणालियों को मजबूत करने के लिए प्रेरित करता है। देश को यह जानने का हक है कि क्या सच में उस समय देश के भीतर से ही विदेशी ताकतों को मदद मिल रही थी। यह केवल एक खबर नहीं, बल्कि एक चेतावनी है कि देश की सुरक्षा सर्वोपरि है और इसमें कोई समझौता नहीं किया जा सकता।
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