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नई दिल्ली, वाईबीएन डेस्क ।मुंबई आतंकी हमले 26/11 की वह रात, जब ASI तुकाराम ओंबले ने अपनी जान देकर एकमात्र आतंकी मोहम्मद अजमल कसाब को जिंदा पकड़ा। यह गिरफ्तारी क्यों थी सबसे ज़रूरी? कसाब अगर मारा जाता, तो पाकिस्तान कैसे आसानी से पल्ला झाड़ लेता? समझें कैसे एक जिंदा सबूत ने दुनिया को 26/11 का असली चेहरा दिखाया और 'हिंदू आतंकवाद' जैसे झूठे नैरेटिव को हमेशा के लिए दफ़न कर दिया। कसाब का ज़िंदा पकड़ा जाना क्यों था 26/11 की 'सत्य-कुंजी' यंग भारत न्यूज की इस एक्सप्लेनर में पढ़ें पूरी कहानी।
मुंबई हमले Mumbai Attack को 17 साल बीत चुके हैं, लेकिन 26/11 की उस रात का ख़ौफ आज भी ज़िंदा है। उस भयानक हमले में मारे गए 166 मासूम लोगों की मौत का सच पूरी दुनिया के सामने कैसे आया? इसका सीधा, और सबसे बड़ा जवाब है आतंकी मोहम्मद अजमल आमिर कसाब का ज़िंदा पकड़ा जाना है। यह सिर्फ एक गिरफ्तारी नहीं थी यह पाकिस्तान से प्रायोजित आतंकवाद के ख़िलाफ़ भारत के हाथ लगा सबसे मज़बूत, जीवित सबूत था।
जरा सोचिए, अगर ASI तुकाराम ओंबले Tukaram Omble अपनी जान जोखिम में डालकर कसाब को जिंदा नहीं पकड़ते, तो क्या होता? क्या भारत के पास पाकिस्तान को कटघरे में खड़ा करने के लिए कोई ठोस सबूत होता? शायद नहीं। कसाब की मौत, 26/11 के सच को हमेशा के लिए गहरे अंधेरे में धकेल सकती थी।
पहला डर: सबूतों के बिना सिर्फ आरोप-प्रत्यारोप का खेल
अगर कसाब को मौके पर ही मार दिया जाता, तो भारत भले ही चिल्ला-चिल्लाकर कहता कि यह हमला पाकिस्तान से हुआ है, लेकिन दुनिया पूछती, "सबूत कहां हैं?"
पाकिस्तान का साफ़ इनकार: जिंदा सबूत के अभाव में पाकिस्तानी सरकार और उसकी सेना फौरन यह बयान जारी कर देती कि "यह भारत का आंतरिक मामला है।" जैसा कि आपने देखा, वर्ल्ड पॉलिटिक्स भावनाओं से नहीं, बल्कि ठोस सबूतों के आधार पर चलती है।
अंतरराष्ट्रीय जांच का अभाव: कसाब के जिंदा पकड़े जाने से ही इंटरपोल और अन्य अंतरराष्ट्रीय जांच एजेंसियों का दबाव पाकिस्तान पर पड़ा। अगर वह मारा जाता, तो यह मामला सिर्फ भारत और पाकिस्तान के बीच आरोप-प्रत्यारोप का खेल बनकर रह जाता।
दबाव बनाने का आधार: कसाब से पूछताछ में उसकी पहचान, जन्मस्थान, ट्रेनिंग कैंप, हैंडलर्स के कॉल रिकॉर्ड्स, और मुंबई में दाखिल होने का रूट—ये सब सबूत मिले।
इसी जिंदा सबूत ने पाकिस्तान पर वैश्विक दबाव बनाने का आधार तैयार किया।
कसाब की चुप्पी यानी 26/11 के सच की मौत
सबसे बड़ा ख़तरा 'हिंदू आतंकवाद' का झूठा नैरेटिव कैसे हावी होता? यह बात आपको चौंका सकती है कि कसाब जब पकड़ा गया था, तो उसके हाथ में 'कलावा' बंधा हुआ था। यह जानबूझकर रची गई एक खतरनाक साजिश का हिस्सा था।
भ्रम की फैक्ट्री: अगर कसाब मारा जाता, तो सिर्फ उसके हाथ का कलावा ही सबसे बड़ा 'भ्रम' पैदा करता। सियासी फायदा उठाने वाले लोग फौरन यह नैरेटिव गढ़ते, "देखिए, हमलावर हिंदू थे।"
राजनीतिक रंगत: बिना किसी जिंदा आतंकी के बयान या कबूलनामे के, इस हमले को 'अंदरूनी साजिश' या 'स्थानीय ग्रुप' द्वारा अंजाम दिया गया हमला बताया जाता। कई लोग तो इसे राजनीतिक रंग देने की कोशिश भी करते।
किताबों में झूठ: किताबों में झूठ गढ़ने और परोसने का यह प्रयास कसाब के जिंदा पकड़े जाने के बाद भी हु।
'आरएसएस की साजिश- 26/11' जैसी विवादित किताबों ने झूठे दावे किए। लेकिन, आधिकारिक जांच, कसाब का कबूलनामा और अदालती कार्यवाही ने स्पष्ट किया कि हमलावर पाकिस्तानी आतंकवादी संगठन लश्कर-ए-तैयबा से थे।
कसाब के जिंदा रहने ने उस कलावा वाले झूठ को बेअसर कर दिया। उसने दुनिया को बताया कि यह भारत को बांटने की एक सोची-समझी साजिश थी।
साजिश की जड़ें: अगर कसाब नहीं बोलता, तो अंधेरे में रहती फंडिंग और ट्रेनिंग 26/11 सिर्फ बंदूक चलाने वाले 10 आतंकवादियों का हमला नहीं था।
यह एक बड़ी, संगठित मशीनरी का काम था जिसमें रिसर्च, फंडिंग, ट्रेनिंग, ट्रैवल और कम्युनिकेशन शामिल थे।
अंधेरे में दब जातीं ये बातें
कसाब अगर मारा जाता, तो इस हमले की जड़ तक पहुंचना भारत के लिए लगभग असंभव हो जाता। ये महत्वपूर्ण सवाल हमेशा अनुत्तरित रह जाते आतंकियों को मुंबई हमले के लिए किसने फंड किया? पाकिस्तान में कौन-सा लॉन्चिंग पॉइंट इस्तेमाल हुआ? उनको कौन से ट्रेनिंग कैंप में तैयार किया गया था? हैंडलर्स कौन थे और उनके निर्देश क्या थे?
खुलासे की कड़ी: कसाब ही वह कड़ी था जिसने पूछताछ में बताया कि वे समुद्री रास्ते से कैसे मुंबई में दाखिल हुए, पाकिस्तान में उन्हें कौन ट्रेनिंग देता था, और किस आतंकी संगठन ने उन्हें भर्ती किया था। कसाब का जिंदा बचना, पाकिस्तान में बैठे साज़िशकर्ताओं के नेटवर्क को सबके सामने ले आया। विदेशी या देसी?
पहचान पर सबसे बड़ा सवाल: कसाब के जिंदा पकड़े जाने से एक और अहम सवाल का जवाब मिला क्या हमलावर विदेशी थे या भारतीय?
भाषा और गांव: कसाब से पूछताछ में उसकी भाषा, बोलने का तरीका, पाकिस्तान में उसके गांव, और उसके माता-पिता के बारे में पता चला।
ये सभी बातें इस बात का ठोस सबूत थीं कि 26/11 के हमले में पाकिस्तान की ज़मीन का इस्तेमाल किया गया।
प्रमाणिकता का संकट: अगर कसाब मारा जाता, तो भारत जब कहता कि "हमलावर विदेशी हैं, " तो दुनिया सबूत मांगती।
देश के भीतर भी कई लोग सवाल उठाते कि क्या यह किसी लोकल ग्रुप का काम है? कसाब की जीवित उपस्थिति ने 'विदेशी' होने की संभावना को "स्पष्ट" बना दिया।
ASI तुकाराम ओंबले सिर्फ एक आतंकी को नहीं बल्कि 'सत्य' को बचाया
26 नवंबर 2008 की रात, गिरगांव चौपाटी पर हुई वह मुठभेड़ सिर्फ कुछ मिनटों की थी, लेकिन उसका असर पूरे विश्व पर पड़ा। ASI तुकाराम ओंबले के शरीर में एके-47 की कई गोलियां लगीं, लेकिन उन्होंने उस आतंकी को जाने नहीं दिया। कसाब को जिंदा पकड़ने का उनका यह बलिदान, केवल एक आतंकवादी को पकड़ना नहीं था, बल्कि मुंबई हमले के सच को जिंदा बचाना था। अगर ओंबले ने कसाब को मार दिया होता, तो दुनिया 26/11 की सच्चाई को लेकर अनिश्चित रहती।
साजिश करने वालों का नेटवर्क शायद हमेशा अंधेरे में रहता, और 26/11 की कहानी "आधा सच" बनकर रह जाती। तुकाराम ओंबले ने अपनी जान देकर भारत के सच को दुनिया के सामने आने दिया। उन्हें भारत का सर्वोच्च शांतिकाल वीरता पुरस्कार 'अशोक चक्र' प्रदान किया गया, जो उनके अतुलनीय साहस और बलिदान को हमेशा याद दिलाता रहेगा।
कसाब का जिंदा पकड़ा जाना एक 'गेम चेंजर' था। इसने पाकिस्तान के झूठ के पुलिंदे को फाड़ दिया, 'हिंदू आतंकवाद' जैसे खतरनाक नैरेटिव को पनपने से रोका, और 26/11 के मास्टरमाइंड्स तक पहुंचने का रास्ता खोला।
अगर कसाब नहीं होता, तो भारत की 26/11 की कहानी सिर्फ आरोपों की एक लंबी फेहरिस्त होती, जिसके पास दुनिया को दिखाने के लिए कोई 'जीवित गवाह' नहीं होता।
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