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Bihar voter revision LIVE: सुप्रीम कोर्ट को भी चुनाव आयोग की कवायद पर शक, पूछे 3 सवाल

जस्टिस धूलिया ने कहा कि सारी कवायद को लेकर तीन सवाल हैं। सबसे अहम अगला सवाल समय का है। ऐन चुनाव से पहले चुनाव आयोग को ऐसा करने की जरूरत क्यों पड़ी?

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Shailendra Gautam
Election Commission

नई दिल्ली, वाईबीएन डेस्कः मतदाता सूचियों के विशेष गहन पुनरीक्षण (एसआईआर) को लेकर चल रही सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने भी कुछ आशंकाएं जाहिर की हैं। जस्टिस धूलिया ने कहा कि सारी कवायद को लेकर तीन सवाल हैं। पहला कि इसमें कोई संदेह नहीं है कि अदालत के समक्ष जो मुद्दा है वह लोकतंत्र की जड़ और मतदान के अधिकार से जुड़ा है। दूसरा कि यह केवल चुनाव आयोग की शक्तियों का नहीं, बल्कि अपनाई गई प्रक्रिया का भी मामला है। तीसरा और सबसे अहम अगला सवाल  समय का है। ऐन चुनाव से पहले चुनाव आयोग को ऐसा करने की जरूरत क्यों पड़ी?
चुनाव आयोग के वकील राकेश द्विवेदी ने कहा कि चुनाव आयोग का मतदाताओं से सीधा संबंध है। अगर मतदाता ही नहीं होंगे तो हमारा अस्तित्व ही नहीं रहेगा। इसके अलावा, हम धर्म, जाति आदि के आधार पर भेदभाव नहीं कर सकते। हर व्यक्ति जो नागरिक है और 18 वर्ष से कम आयु का नहीं है और कानून द्वारा प्रतिबंधित नहीं है और अयोग्य नहीं है वो मतदाता के रूप में पंजीकृत होने का हकदार होगा।

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सिंघवी, सिब्बल और वृंदा ग्रोवर के ईसी से तीखे सवाल

विरोधी पक्ष की तरफ से पेश अभिषेक मनु सिंघवी ने कहा कि यह नागरिकता जांचने की एक प्रक्रिया है। कपिल सिब्बल का कहना था कि अगर मेरा जन्म 1950 के बाद हुआ है तो मैं भारत का नागरिक हूं। अगर कोई इसे चुनौती दे रहा है तो उसे साबित करना होगा। अधिकारी को उनके घर जाकर सत्यापन करना होगा। बिहार में 1 करोड़ लोग प्रवासी हैं। यह प्रक्रिया चुनाव आयोग के अधिकार क्षेत्र से पूरी तरह बाहर है। वकील वृंदा ग्रोवर ने कहा कि यह जांच केवल हाशिए पर पड़े लोगों के लिए है। इसका असर केवल गरीब और हाशिए पर पड़े लोगों पर पड़ेगा। एक बार जब मैं सूची से बाहर हो जाऊंगी तो आप मुझे फारेन ट्रिब्यूनल में भेजने का प्रयास करेंगे। 

एडीआर के साथ, महुआ, मनोज झा और योगेंद्र यादव ने भी लगाई है रिट

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टाप कोर्ट आगामी विधानसभा चुनावों से पहले बिहार में मतदाता सूचियों के विशेष गहन पुनरीक्षण (एसआईआर) के चुनाव आयोग के फैसले को चुनौती देने वाली कई याचिकाओं पर सुनवाई कर रहा है। जस्टिस सुधांशु धूलिया और जॉयमाल्या बागची की बेंच इस मामले की सुनवाई कर रही है। एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) उन शुरुआती लोगों में से एक था जिन्होंने पीआईएल के साथ शीर्ष अदालत का रुख किया था। उसने चुनाव आयोग के 24 जून के उस निर्देश को रद्द करने की मांग की थी, जिसके तहत बिहार में मतदाताओं के एक बड़े वर्ग को मतदाता सूची में बने रहने के लिए नागरिकता का प्रमाण प्रस्तुत करना अनिवार्य है। तृणमूल सांसद महुआ मोइत्रा, राजद सांसद मनोज झा और सामाजिक कार्यकर्ता योगेंद्र यादव ने भी इसी तरह की याचिकाओं के साथ शीर्ष अदालत का रुख किया है।

एडीआर ने बताया कि क्यों ये कवायद गैरकानूनी है

एडीआर ने तर्क दिया है कि चुनाव आयोग का यह कदम संविधान के आर्टिकल 14, 19, 21, 325 और 326 का उल्लंघन करता है। ये जनप्रतिनिधित्व अधिनियम 1950 के साथ मतदाता पंजीकरण नियम 1960 के नियम 21ए के प्रावधानों का भी उल्लंघन करता है। याचिका के अनुसार यह आदेश नए दस्तावेजों की आवश्यकताएं लागू करता है। दस्तावेज पेश करने का सारा दायित्व सरकार से हटाकर लोगों पर डाल दिया गया है। इसमें आधार और राशन कार्ड जैसे व्यापक रूप से प्रचलित दस्तावेजों को शामिल न करने पर भी चिंता जताई गई है। रिट में कहा गया है कि इससे गरीब और हाशिए पर पड़े मतदाता बुरी तरह से प्रभावित होंगे।

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एसआईआर के फरमान में सारा दायित्व लोगों पर डाला गया

एसआईआर दिशानिर्देशों के तहत 2003 की मतदाता सूची में शामिल न होने वाले मतदाताओं को अब अपनी नागरिकता साबित करने वाले दस्तावेज पेश करने होंगे। दिसंबर 2004 के बाद जन्मे मतदाताओं के लिए यह निर्देश न केवल उनके अपने दस्तावेज, बल्कि माता-पिता दोनों के दस्तावेज भी अनिवार्य करता है। ऐसे मामलों में जहां माता-पिता विदेशी नागरिक हैं, आवेदक को जन्म के समय उनका पासपोर्ट और वीजा दिखाने को कहा गया है। एडीआर के अनुसार बिहार जैसे राज्य में ये डिमांड गैरजरूरी है। सूबे में जन्म पंजीकरण की दर काफी कम है। कई मतदाताओं की आधिकारिक दस्तावेजों तक पहुंच भी नहीं है। याचिका में कहा गया है कि बिहार में तीन करोड़ से ज्यादा मतदाता इन मानकों को पूरा नहीं कर पाएंगे और उन्हें मतदाता सूची से हटाया जा सकता है। याचिका के अनुसार, चुनाव आयोग ने इस तरह के विशेष संशोधन के आदेश के लिए कोई कारण नहीं बताया है। जन प्रतिनिधित्व अधिनियम 1950 की धारा 21(3) वैध कारणों से ही विशेष संशोधन की अनुमति देती है। एडीआर का कहना है कि चुनाव आयोग के आदेश में ऐसा कोई औचित्य नहीं है।

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