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बिहार में नेतृत्व के संकट से जूझ रही बीजेपी, केवल मोदी के करिश्मे का सहारा

बीजेपी 6 बार सत्ता का सुख भोग चुकी है पर वो साझीदार के तौर पर ही बिहार सरकार में रही। उसे हमेशा नीतीश कुमार की परछाईं के तौर पर रहना पड़ा, जिससे बिहार से कोई बड़ा नेता तैयार नहीं हो सका।

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Shailendra Gautam
PM Modi in Argentina

Photograph: (IANS)

नई दिल्ली, वाईबीएन डेस्कः बिहार विधानसभा का चुनाव नवंबर में होना है। सारे दल कमर कसकर मैदान में उतरने की तैयारी कर चुके हैं। कांग्रेस आरजेडी के साथ गठबंधन में है तो बीजेपी नीतीश कुमार की अगुवाई में चुनाव लड़ने जा रही है। हालांकि चुनावी परिदृश्य में देश की सबसे बड़ी दो पार्टियों का बिहार में हाल देखा जाए तो दोनों की हालत कमोवेश एक जैसी ही है। राज्य स्तर पर न तो कांग्रेस के पास कोई करिश्माई नेता और न ही बीजेपी के पास। कांग्रेस राहुल गांधी के साथ लालू यादव पर निर्भर है तो बीजेपी नीतीश के साथ नरेंद्र मोदी के करिश्मे पर निर्भर कर रही है। बिहार बीजेपी में ऐसा कोई नेता नहीं है जो बीजेपी को जीत दिला सके। 

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1980 से बिहार में हुई थी बीजेपी की एंट्री, मिली थीं 21 सीटें

बीजेपी की स्थापना 1980 में हुई थी। स्थापना के बाद बीजेपी ने बिहार चुनाव में ताल ठोकी। इन चुनावों में कांग्रेस को 311 में से 169 सीटें मिली थीं। तब भाजपा ने 246 में से 21 सीटें जीती थीं। हालांकि ये आंकड़ा किसी भी लिहाज से अच्छा नहीं कहा जा सकता लेकिन एक नई बनी पार्टी के लिए ये बेहतरीन कहा जाएगा। बिहार में बीजेपी अपनी जड़ें जमाने में कामयाब रही थी। 1985 के चुनाव आए तो बीजेपी का प्रदर्शन पहले जैसा ही रहा। इस बार उसने 16 सीटें जीतीं। तब राजनीति में कांग्रेस का बोलबाला होता था। 1985 से पहले इंदिरा गांधी की पावर थी तो उसके बाद के दौर में 1990 तक राजीव गांधी का करिश्मा लोगों के सिर चढ़कर बोलता था। 


2005 में हुए दो बार चुनाव, नीतीश के साथ मिल बीजेपी पहली बार सत्ता में आई

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बीजेपी ने इन सबके बीच अपना बेस बढ़ाना जारी रखा। 1990 में बीजेपी का विकास हुआ और वो 39 सीटें जीतने में कामयाब रही। 1995 के चुनाव आए तो वो 41 सीटें जीत गई। साल 2000 का चुनाव बीजेपी के लिए कुछ अच्छे पल लेकर आया। लालू ने राबड़ी देवी को सीएम बनाकर अपनी ताकत दिखा दी थी। एकीकृत बिहार के आखिरी चुनाव में बीजेपी 67 सीटें जीतने में कामयाब रही। यहीं से बीजेपी एक ताकत के रूप में उभरनी शुरू हो गई। 2005 का साल आया तो बीजेपी अपनी शर्तों पर राजनीति कर रही थी। इस साल दो बार चुनाव कराने की नौबत आ गई। इस चुनाव के बाद से बिहार में कांग्रेस का ग्राफ नीचे आने लगा वहीं बीजेपी ने पहली दपा सत्ता का स्वाद चखा। नीतीश कुमार ने लालू के खिलाफ मोर्चा बनाया और 88 सीटें जीत लीं। उन्होंने बीजेपी के साथ मिलकर बिहार में सरकार बनाई। 2005 में दो बार चुनाव हुए थे। पहली दफा बीजेपी ने 37 सीटें जीती थीं जबकि दूसरी बार 55। 2010 तक बीजेपी नीतीश कुमार की जरूरत बन चुकी थी। दोनों ने मिलकर चुनाव लड़ा और सरकार बनाई। लेकिन 2015 में नीतीश ने बीजेपी से अलग रास्ता बना लिया। वो लालू के साथ मिलकर चुनाव लड़े। नरेंद्र मोदी के आक्रामक प्रचार के बावजूद बीजेपी महज 53 सीटें ही जीत सकी। हालांकि कुछ समय बाद नीतीश कुमार फिर से बीजेपी के साथ आ गए और दोनों ने मिलकर सरकार बना ली। 

छह बार सत्ता का सुख ले चुकी है बीजेपी पर एक भी करिश्माई नेता नहीं बना पाई

2024 तक का दौर देखा जाए तो बीजेपी नीतीश के साथ मिलकर 6 बार सत्ता का स्वाद चख चुकी है। लेकिन उसके पास बिहार में एक भी ऐसा नेता नहीं है जिसके नाम पर वोट मिल सकें। बिहार से मोदी सरकार में 8 मंत्री बनाए गए हैं। जीतन राम मांझी, गिरिराज सिंह, ललन सिंह और चिराग पासवान कैबिनेट मंत्री हैं जबकि नित्यानंद राय, रामनाथ ठाकुर, सतीशचंद्र दुबे और राज भूषण चौधरी ने राज्य मंत्री बनाए गए। नीतीश सरकार में बीजेपी के दो नेता डिप्टी सीएम बनाए गए हैं। सम्राट चौधरी और विजय कुमार सिन्हा। हालांकि केंद्रीय नेतृत्व ने दोनों डिप्टी सीएम के साथ नित्यानंद राय और गिरिराज किशोर को पूरी छूट दी कि वो विपक्ष पर आक्रामक रहें। लेकिन चुनावी हाल देखा जाए तो ये नेता बड़ा अंतर पैदा करने की स्थिति में नहीं हैं। 

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नरेंद्र मोदी का करिश्मा ही दिला सकता है बिहार में सीटें

छह बार बिहार की सरकार में शामिल रहने के बावजूद और पिछले 11 सालों से दिल्ली में अपनी सरकार होने के बाद भी बीजेपी के पास बिहार में एक भी ऐसा नेता नहीं है जिसके दम पर वो ऐलान कर सके कि इस बार वो अपने दम पर सरकार बनाएगी। सारे के सारे नेता पीएम के करिश्मे पर निर्भर हैं। उनको लगता है कि देर सवेर पीएम कुछ ऐसा करेंगे जिससे बिहार में बीजेपी की बयार बहने लग जाएगी। जानकार कहते हैं कि बिहार बीजेपी के पास कोई मजबूत नेता न होने की वजह मोदी-शाह का पावर को अपने पास रखना भी है। बीजेपी के नेताओं को बिहार में बोलने की इजाजत तो है पर वो कोई कारगर फैसला कर पाने की स्थिति में नहीं हैं। यही वजह है कि उनका जुड़ाव जनता से नहीं बन पाता और वो बड़ा नाम नहीं बन पाते। बिहार के नेता पहले अटल बिहारी वाजपेयी, लाल कृष्ण आडवाणी और फिर नरेंद्र मोदी के सहारे पर ही रहे। ये इतने बड़े नाम थे कि इनके सामने लोकल लीडरशिप खड़ी ही नहीं हो सकी। 

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