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CJI ने खींची एक लाइन पर सरकार ने उसे नहीं माना, अब क्या करेगा SC?

गवई जब सीजेआई बने तो उन्होंने सरकार को स्पष्ट शब्दों में बता दिया कि वह कालेजियम के नामों को चुन-चुनकर नहीं रख सकती। लेकिन इसके कुछ ही दिनों बाद केंद्र सरकार ने चार नामों में से केवल दो को ही मंजूरी दी।

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Shailendra Gautam
CJI BR Gavai

नई दिल्ली, वाईबीएन डेस्कः पिछले महीने जब सीजेआई बीआर गवई ने सुप्रीम कोर्ट का कार्यभार संभाला तो उन्होंने केंद्र सरकार को स्पष्ट शब्दों में बता दिया कि वह कॉलेजियम के नामों को चुन-चुनकर नहीं रख सकती। यह कोई अचानक की गई टिप्पणी नहीं थी, बल्कि जानबूझकर की गई थी। इससे हाल के दिनों में जजों की नियुक्तियों को लेकर एक बेचैनी को दर्शाती है। सीजेआई ने कहा कि योग्यता से कभी समझौता नहीं किया जाएगा। लेकिन इसके कुछ ही दिनों बाद केंद्र सरकार ने बॉम्बे हाईकोर्ट में पदोन्नति के लिए अनुशंसित चार नामों में से केवल दो को ही मंजूरी दी। उस सूची में पहले और सबसे वरिष्ठ नाम राजेश सुधाकर दातार को चुपचाप नजरअंदाज कर दिया। दातार ने जजशिप के लिए नाम वापस ले लिया है। लेकिन देखा जाए तो यह केवल सिद्धांतों का विरोधाभास नहीं है। यह एक संस्थागत विफलता का क्षण है। 

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कालेजियम की सिफारिशों को लेकर सीजेआई गवई ने दी थी चेतावनी

पिछले साल सितंबर में तत्कालीन सीजेआई डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाले सुप्रीम कोर्ट कालेजियम ने चार वकीलों दातार, सचिन शिवाजीराव देशमुख, गौतम अश्विन अंखड और महेंद्र माधवराव नेर्लिकर को बॉम्बे हाईकोर्ट के जज के रूप में नियुक्ति के लिए सिफारिश की थी। जिस क्रम में नामों की सिफ़ारिश की गई वह मनमाना नहीं था। यह वरिष्ठता और पेशेवर ट्रैक रिकॉर्ड पर आधारित था। दातार पहले स्थान पर थे। लेकिन जब सरकार ने लगभग दस महीने बाद कॉलेजियम की सिफारिश पर कार्रवाई की तो केवल देशमुख, अंखड और नेर्लिकर को ही पास किया गया। दातार की सिफ़ारिश क्यों रोकी गई, इसका कोई स्पष्टीकरण नहीं दिया गया। यही वह बात है जिसके बारे में सीजेआई गवई ने जून के अंत में एक सार्वजनिक मंच पर बोलते हुए चेतावनी दी थी। उन्होंने कहा कि सरकार कालेजियम के फैसलों को बुफे टेबल की तरह नहीं ले सकती। या तो आप सब मान लें या फिर कुछ भी न मानें। यह पहली बार नहीं है जब सरकार ने कॉलेजियम की सिफारिश को खारिज किया हो।

मनमाने तरीके से कालेजियम की सिफारिशों पर अमल करती है सरकार

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पिछले कुछ वर्षों में इसी तरह के पैटर्न सामने आए हैं। और दातार अकेले ऐसे नहीं हैं जो पीछे हट गए हैं। इस साल की शुरुआत में वकील श्वेताश्री मजूमदार ने दिल्ली हाईकोर्ट में जजशिप के लिए अपना नाम वापस ले लिया था। कालेजियम ने अगस्त 2024 में अजय दिगपॉल और हरीश वैद्यनाथन शंकर के साथ उनकी सिफारिश की थी। जनवरी 2025 में सरकार ने दिगपॉल और शंकर की नियुक्तियों की अधिसूचना जारी की। मजूमदार का नाम छोड़ दिया गया। स्पष्टीकरण के बगैर केवल सरकार की एक चुप्पी। थोड़ा और पीछे जाएँ तो एडवोकेट आदित्य सोंधी का मामला मिलेगा, जिनकी 2021 में कर्नाटक हाईकोर्ट के जज के रूप में सिफारिश की गई थी। कालेजियम ने 2022 की शुरुआत में उनके नाम की फिर से सिफारिश की। लेकिन कुछ नहीं हुआ। बाद में सोंधी ने अपनी सहमति वापस ले ली और अपनी अच्छी-खासी प्रैक्टिस फिर से शुरू कर दी। चौथा नाम जो याद करने लायक है, वह है एडवोकेट आरजॉन सत्यन का। मद्रास हाईकोर्ट में पदोन्नति के लिए उनके नाम की सिफारिश सबसे पहले सुप्रीम कोर्ट कालेजियम ने फरवरी, 2022 को की थी। उनके साथ जिन अन्य लोगों की सिफ़ारिश की गई थी - जिनमें एल विक्टोरिया गौरी, केके रामकृष्णन, वी शिवगणनम और आर शक्तिवेल शामिल हैं। बाकियों को लगभग तुरंत मंज़ूरी दे दी गई। सत्यन को रोक दिया गया।

चेतावनी से काम नहीं चलेगा, सुप्रीम कोर्ट को उठाना पड़ेगा कदम

ये कोई अलग-थलग घटनाएँ नहीं हैं। ये एक ऐसी व्यवस्था को दर्शाती हैं जहां योग्य, जांचे-परखे और बार में मजबूत स्थिति वाले वकीलों को जांच-पड़ताल से नहीं, बल्कि चुप्पी से दरकिनार कर दिया जाता है। उनमें से किसी को भी खारिज नहीं किया गया। उनके नाम वापस नहीं किए गए। उन्हें बस इंतजार करने के लिए छोड़ दिया गया। यही सीजेआई गवई के कदम को इतना महत्वपूर्ण बनाता है। उन्होंने समस्या का जिक्र किया। लेकिन जब तक कॉलेजियम आगे नहीं बढ़ता और भाषण से ज्यादा कुछ करके अपनी बात नहीं रखता, तब तक उस चेतावनी का कोई मतलब नहीं होगा।

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