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Delhi हाईकोर्ट ने उठाया चौंकाने वाला कदम! अब हर केस में नहीं होगी पोस्टमार्टम जांच, जानें क्यों? | यंग भारत न्यूज Photograph: (Google)
नई दिल्ली, वाईबीएन डेस्क ।आज बुधवार 9 जुलाई 2025 को दिल्ली हाईकोर्ट ने फोरेंसिक विज्ञान प्रयोगशालाओं (FSL) पर बढ़ते बोझ को कम करने के लिए दिल्ली सरकार को महत्वपूर्ण दिशा-निर्देश जारी किए हैं। ये दिशानिर्देश आपराधिक मामलों में त्वरित न्याय सुनिश्चित करने और जांच प्रक्रिया को गति देने में सहायक होंगे। न्यायालय ने अनावश्यक पोस्टमार्टम नमूनों की जांच से FSLs पर पड़ने वाले दबाव पर चिंता व्यक्त की है, जो महत्वपूर्ण मामलों में विश्लेषण में देरी का कारण बन रहा है।
क्या आप जानते हैं कि हमारे देश में न्याय प्रक्रिया की रफ्तार अक्सर फोरेंसिक रिपोर्ट पर निर्भर करती है? लेकिन क्या हो अगर यही प्रयोगशालाएं अनावश्यक बोझ तले दबी हों और महत्वपूर्ण मामलों की रिपोर्ट आने में महीनों लग जाएं? दिल्ली उच्च न्यायालय ने इसी गंभीर मुद्दे को पहचाना है और एक ऐतिहासिक कदम उठाया है। अब FSL को 'फालतू' नमूनों से मुक्ति मिल सकती है, जिससे असली अपराधियों तक पहुंचने का रास्ता साफ होगा और पीड़ितों को जल्द न्याय मिल सकेगा।
STORY | Formulate guidelines to lessen burden on FSLs: Delhi HC to govt over 'unnecessary' referrals
— Press Trust of India (@PTI_News) July 9, 2025
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क्यों ज़रूरी था यह कदम?
कल्पना कीजिए, एक जघन्य अपराध हुआ है, और पुलिस को सबूत जुटाने के लिए फोरेंसिक रिपोर्ट का इंतजार है। लेकिन FSL में पहले से ही सैकड़ों ऐसे नमूनों की कतार लगी है, जिनकी जांच शायद उतनी ज़रूरी न हो। ऐसे में, जो रिपोर्ट कुछ दिनों में आनी चाहिए, उसमें महीनों लग जाते हैं। इससे न केवल जांच धीमी होती है, बल्कि न्याय भी विलंबित होता है। आपराधिक मामलों में, समय पर सबूतों का विश्लेषण न केवल जांच की दिशा तय करता है, बल्कि अभियुक्तों के भाग्य का भी फैसला करता है। FSL पर बोझ का सीधा असर हमारी पूरी न्याय प्रणाली पर पड़ रहा था।
डॉ. सुभाष विजयन, मौलाना आजाद मेडिकल कॉलेज में फोरेंसिक मेडिसिन में एमडी कर रहे एक रेजीडेंट डॉक्टर ने इस मुद्दे को लेकर जनहित याचिका दायर की थी। उनकी याचिका ने एक ऐसे अदृश्य बोझ को सामने लाया, जिसका खामियाजा सीधे तौर पर न्याय पाने वाले भुगत रहे थे। यह दिखाता है कि कैसे एक व्यक्ति की पहल पूरे सिस्टम में बदलाव ला सकती है।
न्यायालय का सख्त रुख और उम्मीद की किरण
मुख्य न्यायाधीश डी. के. उपाध्याय और न्यायमूर्ति अनीश दयाल की खंडपीठ ने इस मामले में कड़ा रुख अपनाया है। उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा कि इस तरह के "अंधाधुंध रेफरल" FSLs को अत्यधिक बोझिल कर रहे हैं, जिससे महत्वपूर्ण नमूनों के विश्लेषण में देरी हो रही है। इस देरी का सीधा प्रभाव समय पर जांच और आपराधिक मामलों में न्याय प्रदान करने पर पड़ रहा है। न्यायालय ने दिल्ली सरकार को ऐसे दिशानिर्देश तैयार करने पर विचार करने का निर्देश दिया है, जो राज्य-संचालित फोरेंसिक विज्ञान प्रयोगशालाओं को अनावश्यक पोस्टमार्टम नमूनों की जांच से विनियमित करें। यह एक ऐसा कदम है जो सालों से चली आ रही इस समस्या का समाधान कर सकता है।
FSL पर अनावश्यक बोझ के दुष्परिणाम
जांच में देरी: पुलिस को अक्सर FSL रिपोर्ट के लिए लंबा इंतजार करना पड़ता है, जिससे जांच की गति धीमी हो जाती है और कई बार महत्वपूर्ण सुराग भी खत्म हो जाते हैं।
न्याय में विलंब: आपराधिक मामलों में पीड़ितों को न्याय मिलने में बेवजह देरी होती है, जिससे उनका विश्वास डगमगाता है।
संसाधनों की बर्बादी: FSL के सीमित संसाधनों का उपयोग अनावश्यक नमूनों की जांच में होता है, जबकि महत्वपूर्ण मामलों को प्राथमिकता नहीं मिल पाती।
सबूतों का खराब होना: लंबे समय तक इंतजार करने से कुछ नमूनों की गुणवत्ता खराब हो सकती है, जिससे विश्लेषण की सटीकता प्रभावित होती है।
कर्मचारियों पर दबाव: FSL कर्मचारी पहले से ही काम के बोझ तले दबे होते हैं, और अनावश्यक नमूने इस दबाव को और बढ़ाते हैं।
यह समझना ज़रूरी है कि FSL सिर्फ एक लैब नहीं, बल्कि न्याय की रीढ़ है। जब इसकी रीढ़ झुकती है, तो पूरी न्याय प्रणाली कमजोर पड़ जाती है।
आगे क्या? दिशानिर्देशों का इंतजार
अब सबकी निगाहें दिल्ली सरकार पर टिकी हैं कि वह कब तक इन दिशानिर्देशों को तैयार करती है और उन्हें कैसे लागू करती है। इन दिशानिर्देशों में स्पष्ट रूप से यह परिभाषित करना होगा कि कौन से पोस्टमार्टम नमूने FSL को भेजे जाने चाहिए और कौन से नहीं। इसके लिए चिकित्सा विशेषज्ञों, कानूनी पेशेवरों और FSL वैज्ञानिकों के बीच समन्वय की आवश्यकता होगी।
संभावित दिशानिर्देशों में शामिल हो सकते हैं
प्राथमिकता निर्धारण: गंभीर और जघन्य अपराधों से जुड़े नमूनों को प्राथमिकता देने के लिए एक स्पष्ट प्रोटोकॉल।
मापदंडों का निर्धारण: ऐसे मामलों की पहचान करना जहां फोरेंसिक जांच अनिवार्य नहीं है।
प्रशिक्षण और जागरूकता: पुलिस अधिकारियों और डॉक्टरों को फोरेंसिक नमूनों के महत्व और उनके सही रेफरल के बारे में प्रशिक्षित करना।
डिजिटलीकरण: नमूना प्रबंधन और रिपोर्टिंग को डिजिटल बनाना ताकि प्रक्रिया में पारदर्शिता और गति आ सके।
मानव संसाधन बढ़ाना: जरूरत पड़ने पर FSL में कर्मचारियों और उपकरणों की संख्या बढ़ाना।
यह पहल केवल FSL पर बोझ कम करने की नहीं है, बल्कि यह पूरे न्याय वितरण तंत्र को मजबूत करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है। उम्मीद है कि दिल्ली उच्च न्यायालय का यह निर्देश देशभर की अन्य FSLs के लिए भी एक मिसाल बनेगा और न्याय की रफ्तार तेज होगी।
न्याय में देरी का मतलब न्याय से इनकार है। यह कहावत आज भी उतनी ही सच है, जितनी पहले थी। उम्मीद है कि इस पहल से वाकई न्याय की रफ्तार बढ़ेगी और पीड़ितों को जल्द राहत मिलेगी।
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