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Explain- UNSC में कैसे पहुंचा पाकिस्तान, क्या भारत को चिंता करनी चाहिए?

UNSC में पाकिस्तान की भूमिकाएं संयुक्त राष्ट्र में भारतीय हितों के लिए प्रत्यक्ष कूटनीतिक खतरा नहीं दर्शाती हैं। बल्कि, ये UNSC की कमजोरी को दिखाती हैं, क्योंकि पाकिस्तान खुले तौर पर सीमापार से आतंकवाद को बढ़ावा दे रहा है।

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Shailendra Gautam
UNSC Meeting- India - Pakistan Tension

Photograph: (Google)

नई दिल्ली, वाईबीएन डेस्कः ऑपरेशन सिंदूर के लगभग एक महीने बाद जून की शुरुआत में पाकिस्तान ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (UNSC) की दो अहम जगहों पर एंट्री मारी तो ये एक बड़ा घटनाक्रम माना गया। उसने 2025-26 के लिए निर्वाचित गैर-स्थायी सदस्य के रूप में महत्वपूर्ण भूमिकाएं हासिल कीं। यह अब 1988 तालिबान प्रतिबंध समिति का अध्यक्ष और 1373 आतंकवाद-निरोधक समिति का उपाध्यक्ष है। साथ की साथ पाकिस्तान यूएनएससी के दो अनौपचारिक कार्य समूहों में सह-अध्यक्ष है। भारत ने पिछली UNSC गैर-स्थायी सदस्यता (2021-2022) के दौरान तीन समितियों 1988 टीएससी, 1970 लीबिया प्रतिबंध समिति और 1373 सीटीसी के अध्यक्ष के रूप में काम किया था। प्रतिबंध समितियों की स्थापना व्यक्तियों और संस्थाओं या राज्यों के खिलाफ लगे प्रतिबंध की निगरानी के लिए की जाती है। सीटीसी सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव 1373 से पनपी है। 9/11 के आतंकवादी हमलों के बाद UNSC का अध्याय VII संकल्प सभी सदस्य देशों के लिए बाध्यकारी हैं। इस मसौदे ने आतंकवाद का मुकाबला करने के लिए राज्यों की जिम्मेदारियों को व्यापक रूप से निर्धारित किया था।

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पाकिस्तान ने ये पद कैसे हासिल किए?

इन समितियों की अध्यक्षता/उपाध्यक्षता पाकिस्तान के पास जानी ही थी। संयुक्त राष्ट्र चार्टर के आर्टिकल 28 कहता है कि इनमें से प्रत्येक समिति को  UNSC का सहायक अंग माना जाता है। इसलिए 1988 TSC और 1373 CTC दोनों में किसी भी समय परिषद के सभी 15 सदस्य शामिल होते हैं। अपनी दो साल की UNSC सदस्यता के कारण कोई भी गैर-स्थायी सदस्य अपने कार्यकाल के दौरान परिषद के कई सहायक निकायों में से कम से कम एक की कमान संभालता है। ये इस वजह से भी जरूरी है, क्योंकि UNSC के स्थायी सदस्य (चीन, फ्रांस, रूस, यूके और यूएस) हितों के टकराव से बचने के लिए प्रतिबंध समितियों की अध्यक्षता नहीं करते हैं। हालांकि ये प्रक्रिया सवालों के दायरे में है। UNSC की 2018 सालाना ब्रीफिंग के दौरान समिति के अध्यक्षों ने एक नई प्रणाली की आवश्यकता पर जोर दिया था जो स्थायी और निर्वाचित सदस्यों के बीच अध्यक्षता पर जोर देती है। 

पाकिस्तान की नई भूमिकाओं का क्या मतलब है?

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पाकिस्तान जून 2024 में एशिया-अफ्रीका समूह से UNSC के गैर-स्थायी सदस्य के रूप निर्वाचित हुआ था। UNSC के नियमों के मुताबिक चुने जाने के बाद उसे अंतिम समिति अध्यक्षता खुद ब खुद मिल गई। अब वह 1988 की समिति के अध्यक्ष के रूप में काम करेगा। फिलहाल वह समिति के एजेंडे को प्रस्तावित करने और तैयार करने की शक्ति रखता है। लेकिन सिक्के का दूसरा पहलू ये भी है कि अध्यक्ष की कोई विशेष शक्तियां नहीं हैं और भारत के हितों को नुकसान पहुंचाने के लिए पाकिस्तान की गुंजाइश सीमित है। इसके अपने कारण हैं। 

तीन कारणों से समझिये पाकिस्तान की भूमिका

पहला कारण ये कि 1988 की समिति को प्रतिबंधित व्यक्तियों और संस्थाओं की अपनी सूची के संदर्भ में एक महत्वपूर्ण बदलाव के साथ काम करना पड़ता है। किसी भी स्थिति में पाकिस्तान एकतरफा ढंग से नए व्यक्तियों को सूचीबद्ध करने या सूची से बाहर करने में सफल नहीं हो पाएगा। दूसरा कारण ये है कि सीटीसी जैसी संस्थाएं  UNSC की तकनीकी संस्थाएं हैं, जिनका दायरा बेहद सीमित है। इस तरह की तकनीकी संस्थाओं का काम UNSCR के 1373 और इससे जुड़े प्रस्तावों को क्रियान्वित करना है। सीटीसी की आतंकी हमलों की जांच करने, संस्थाओं पर प्रतिबंध लगाने की सिफारिश करने या किसी व्यक्ति या संस्था को आतंकवादी घोषित करने में भी कोई भूमिका नहीं है। तीसरा कारण ये है कि UNSC की सहायक समितियों में पाकिस्तान का प्रभाव अप्रत्यक्ष रहा है। पाकिस्तान अपने प्रमुख आतंकवादियों को चीन के समर्थन से परिषद में बचाता रहा है। भारत ने 1267 अलकायदा प्रतिबंध समिति में अब्दुल रऊफ अजहर पर प्रतिबंधों का प्रस्ताव रखा था। यह खारिज हो गया क्योंकि 15  UNSC के सदस्यों में से चीन ही एकमात्र ऐसा देश था जो इस प्रस्ताव पर अड़ा हुआ था। 

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तो क्या भारत को चिंता करनी चाहिए?

 UNSC के सहायक निकायों में पाकिस्तान की अध्यक्षता और उपाध्यक्ष की भूमिकाएं संयुक्त राष्ट्र में भारतीय हितों के लिए प्रत्यक्ष कूटनीतिक खतरा नहीं दर्शाती हैं। बल्कि,  ये UNSC की कमजोरी को दिखाती हैं, क्योंकि पाकिस्तान खुले तौर पर सीमापार से आतंकवाद को बढ़ावा दे रहा है। प्रमाण होने के बावजूद भी परिषद उसके खिलाफ कुछ नहीं कर पाई है।  2013 में पाकिस्तान ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की अपनी रोटेशनल अध्यक्षता का उपयोग करके संयुक्त राष्ट्र का ध्यान कश्मीर की ओर मोड़ने का प्रयास किया। उसने आतंकवाद का मुकाबला करने में अपनी कमियों को छिपाने की भी कोशिश की, जिसके लिए उसने तत्कालीन विदेश मंत्री हिना रब्बानी खार की अध्यक्षता में आतंकवाद-रोधी मंत्रिस्तरीय बहस को शुरू कराया था। यह बहस ओसामा बिन लादेन को मार गिराने के दो साल से भी कम समय बाद हुई थी।

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