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नई दिल्ली, वाईबीएन डेस्कः संसद में बुधवार को उस वक्त भारी हंगामा देखने को मिला जब अमित शाह ने एक ऐसा बिल पेश किया जो संविधान में 130वें संशोधन की बात कहता है। इसमें कहा गया है कि अगर प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री और मंत्री पांच साल से ज्यादा की सजा वाले अपराधों के लिए 30 दिन से ज्यादा जेल में रहते हैं, तो उन्हें पद से हटाया जा सकता है। विपक्ष ने विधेयक को असंवैधानिक करार देते हुए लोकसभा में बवाल काट दिया। बिल के टुकड़े करके अमित शाह की तरफ उछाले गए। इंडिया ब्लाक के सांसद सरकारी सांसदों से दो-दो हाथ करने पर भी आमादा थे। सरकार का कहना था कि यह विधेयक गिरते नैतिक मानकों को ऊपर उठाने और राजनीति में ईमानदारी बनाए रखने के लिए लाया गया है। लेकिन विपक्ष का तर्क था कि ये बिल कानून में बदला तो केवल गैर बीजेपी नेताओं को निशाना बनाया जाएगा।
जब नहीं हैं सरकार के पास नंबर तो क्यों मचा रही हंगामा
एक बात पर गौर करें तो एक दिलचस्प कहानी सामने आती है। संविधान संशोधन विधेयक को दोनों सदनों में दो-तिहाई बहुमत से पारित होना जरूरी है। एनडीए के पास इसे संसद से पारित कराने के लिए पर्याप्त संख्याबल नहीं है, जब तक कि कांग्रेस जैसी कोई प्रमुख विपक्षी पार्टी इसका समर्थन न करे। विपक्ष ऐसा करने के मूड में नहीं है तो सवाल यह है कि सरकार संसद में हंगामा क्यों मचा रही है। एक ऐसा कानून लाकर राजनीतिक तूफान क्यों खड़ा कर रही है जिसे वह जानती है कि वह अपने मौजूदा स्वरूप में लागू नहीं कर सकती। असल बात तो बारीकियों में है। गौर से देखने पर पता चलता है कि यह कानून एक व्यापक धारणा की लड़ाई के लिए बनाया गया है। चुनाव आयोग को लेकर सरकार पर सवाल उठ रहे हैं। वो भी चोरी के। काउंटर शायद ऐसी ही हो सकता है।
पहले समझते हैं कि क्या है कानून
संविधान संशोधन विधेयक का उद्देश्य भारत के संविधान के तीन अनुच्छेदों 75, 164 और 239AA में संशोधन करना है। इसमें कहा गया है कि कोई भी मंत्री, मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री जो पांच साल या उससे अधिक की जेल की सजा वाले किसी अपराध के आरोप में गिरफ्तार होता है, अगर वो 30 दिनों से अधिक समय तक हिरासत में रहा तो पद से हटा दिया जाएगा। पद से ऐसी बर्खास्तगी किसी आरोप के आधार पर की जा सकती है। दोषसिद्धि जरूरी नहीं है। कानून यह भी कहता है कि पद से ऐसी बर्खास्तगी व्यक्ति को उसकी रिहाई के बाद फिर से उस पद पर बहाल होने से नहीं रोकती।
सरकार का कहना है कि निर्वाचित प्रतिनिधि भारत की जनता की आशाओं और आकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व करते हैं। उनसे अपेक्षा की जाती है कि वे राजनीतिक हितों से ऊपर उठकर केवल जनहित और जनकल्याण के लिए काम करें। यह अपेक्षा की जाती है कि पद पर आसीन मंत्रियों का चरित्र और आचरण किसी भी संदेह से परे होना चाहिए। मसौदा विधेयक में कहा गया है कि गंभीर आपराधिक आरोपों का सामना कर रहे नेता से संवैधानिक नैतिकता और सुशासन के सिद्धांतों को नुकसान पहुंच सकता है। इससे लोगों का उस पर भरोसा कम हो सकता है। इसमें यह भी कहा गया है कि हालांकि, गंभीर आपराधिक आरोपों के कारण गिरफ्तार और हिरासत में लिए गए किसी मंत्री को हटाने का संविधान में कोई प्रावधान नहीं है।
अब जानिए विपक्ष की आपत्ति
अमित शाह ने जब विवादास्पद विधेयक पेश किया तो लोकसभा में अफरा-तफरी मच गई और कुछ सदस्यों ने कागज फाड़कर गृह मंत्री पर फेंक दिए। विपक्षी दल कुछ समय से जांच एजेंसियों के दुरुपयोग का आरोप लगा रहे हैं। उनका कहना है कि यह नया विधेयक भारत को पुलिस राज के और करीब ले जाएगा। प्रियंका गांधी ने विधेयक को बेमतलब का बताया। और कहा कि इसे भ्रष्टाचार विरोधी उपाय के रूप में पेश करने का काम लोगों की आंखों पर पर्दा डालने जैसा है। दूसरे नेताओं ने भी प्रियंका की लाइन पर सरकार की आलोचना की।
एक दिन पहले ही क्यों लाया गया विधेयक
दिलचस्प बात यह है कि केंद्र ने यह विधेयक मानसून सत्र समाप्त होने से एक दिन पहले पेश किया। इसमें यह भी जिक्र किया गया है कि इसे एक संयुक्त संसदीय समिति को भेजा जाएगा। साफ है कि केंद्र इस विधेयक को पारित कराने की कोई जल्दी में नहीं है। हालांकि विवादास्पद विधेयकों को अक्सर गहन विचार-विमर्श के लिए सदन की समितियों के पास भेजा जाता है, लेकिन केंद्र किसी विधेयक को सूचीबद्ध करते समय शायद ही कभी इसका प्रस्ताव रखता है। स्पीकर ने अब इस विधेयक की जांच एक संयुक्त समिति से करवाने का फैसला किया है, जिसमें लोकसभा के 21 सदस्य और राज्यसभा के 10 सदस्य शामिल होंगे। इन सदस्यों की नियुक्ति लोकसभा अध्यक्ष और राज्यसभा के सभापति करेंगे। सत्र समाप्त होने वाला है इसलिए यह एक लंबा मामला होगा।
क्या सरकार इस विधेयक को पास कराने की स्थिति में है
किसी भी संविधान संशोधन विधेयक को राष्ट्रपति के पास मंजूरी के लिए भेजे जाने से पहले संसद के दोनों सदनों में दो-तिहाई बहुमत से पारित होना जरूरी है। वर्तमान में लोकसभा में 542 सदस्य हैं। दो-तिहाई बहुमत के लिए कम से कम 361 वोटों की जरूरत होती है। एनडीए के पास 293 सदस्य हैं। अगर कुछ और दल भी सरकार का समर्थन करते हैं, तब भी उसके पास आवश्यक संख्या नहीं होगी।
राज्यसभा में भी यही स्थिति है। उच्च सदन में अभी 239 सदस्य हैं। विधेयक को दो-तिहाई बहुमत के लिए 160 सदस्यों के समर्थन की आवश्यकता होगी। एनडीए के पास 132 वोट हैं। ये काफी कम है। खास बात यह है कि विपक्ष के समर्थन के बिना यह विधेयक संसद में पारित नहीं हो पाएगा। मानें कि ये विधेयक संसद से पारित भी हो जाता है तो भी आगे का रास्ता लंबा है। यह विधेयक देश के संघीय ढांचे को प्रभावित करता है और इसके लिए कम से कम आधे राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों की स्वीकृति की आवश्यकता होगी। हालांकि, अधिकांश राज्यों में सत्तारूढ़ भाजपा के लिए यह कोई समस्या नहीं हो सकती है।
लेकिन इस विधेयक को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी जा सकती है। कई सांसदों ने कहा है कि यह संविधान के मूल ढांचे के विरुद्ध है और दोषी सिद्ध होने तक निर्दोष के सिद्धांत को चुनौती देता है।
वोट चोरी के आरोपों पर सरकारी पलटवार है विधेयक
कोई भी सोच सकता है कि सरकार ऐसा कानून क्यों लाएगी। इसका जवाब धारणा की लड़ाई हो सकता है। विपक्ष बिहार में विशेष गहन पुनरीक्षण और कांग्रेस के वोट चोरी के आरोपों को लेकर सरकार को घेरने की कोशिश कर रहा है। इसके काउंटर में सरकार नैतिकता की बात कहते हुए इस विधेयक को ले आई। सरकार का कहना है कि अगर यह विधेयक कानून नहीं बनता है, तो भी कोई फर्क नहीं पड़ता। इसका उद्देश्य विपक्ष को कठघरे में खड़ा करना है। अगर वह इसका विरोध करता है तो इससे यह संदेश जाएगा कि विपक्ष को जेल से मंत्रालय चलाने वाले किसी व्यक्ति से कोई आपत्ति नहीं है।
सरकार ने विपक्ष के उन आरोपों का भी खंडन किया कि इस कानून का इस्तेमाल गैर-भाजपाई मुख्यमंत्रियों को फंसाने के लिए किया जा सकता है। एक बीजेपी नेता ने कहा कि गिरफ्तारी एक प्रक्रिया के बाद की जाती है। किसी भी समय व्यक्ति अदालत का दरवाजा खटखटाकर राहत मांग सकता है। यानि साफ है कि सरकार विधेयक के कानून मं तब्दील होने को लेकर ज्यादा फिक्रमंद नहीं है। वो तो विपक्ष के उन आरोपों को पर काउंटर करना चाहती है जो वोट चोरी से जुड़े हैं।
शाह-वेणुगोपाल की लड़ाई में दिखी एक बानगी
इसकी बानगी तब दिखी जब लोकसभा में यह टकराव एक समय व्यक्तिगत भी हो गया। जब कांग्रेस नेता केसी वेणुगोपाल ने 2010 में गुजरात के गृह मंत्री रहते हुए अमित शाह की गिरफ्तारी का जिक्र किया। शाह ने पलटवार करते हुए कहा- आप हमें नैतिकता का क्या पाठ पढ़ा रहे हैं? मैंने इस्तीफा दे दिया था। मैं चाहता हूं कि नैतिक मूल्य बढ़ें। हम इतने बेशर्म नहीं हो सकते कि आरोपों का सामना करते हुए भी संवैधानिक पदों पर बने रहें। मैंने पद दोबारा तभी स्वीकार किया जब आरोपों से बरी हो गया। यानि साफ है कि सरकार की मंशा कानून बनाने से ज्यादा विपक्ष को गलत साबित करने की है। चोरी के आरोप पर एक दमदार पलटवार।
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