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Explain: केजरीवाल के नक्शेकदम पर क्यों चले सीएम नीतीश कुमार

नीतीश जानते हैं कि 2020 में वो 43 सीटें जीतकर भी सीएम बन गए थे। पर इस बार हालात अलग हैं। बीजेपी उनके साथ एकनाथ शिंदे जैसा सलूक कर सकती है। जदयू मजबूत स्थिति में बनी रहती है तो वो बीजेपी को उंगलियों पर नचा सकते हैं।

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Shailendra Gautam
Nitish Kumar

नई दिल्ली, वाईबीएन डेस्कः बिहार के सीएम नीतीश कुमार अचानक टाप गियर में दिखने लगे हैं। एक के बाद एक करके ऐसी घोषणाएं वो करते जा रहे हैं जो चुनावी रुख पर असर डाल सकती हैं। उनकी राजनीति का पैटर्न काफी कुछ दिल्ली के सीएम रह चुके अरविंद केजरीवाल जैसा है। मुफ्त बिजली, सोलर प्लांट और सरकारी नौकरियों की भरमार। लेकिन बड़ा सवाल ये है कि नीतीश कुमार ने अचानक से अपना गियर क्यों बदला। नीतीश को जानने वाले लोग कहते हैं कि उनको भांपना बहुत टेढ़ी खीर है, क्योंकि वो अपनी सुविधा के हिसाब से अपने स्टैंड को बदलने में माहिर हैं। 

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जदयू को सबसे बड़ी पार्टी बनाने की फिराक में नीतीश

नीतीश कुमार ने जो घोषणाएं की हैं वो सीधी जनता से जुड़ी हैं। 1 अगस्त से वो बिहार के 1.67 करोड़ परिवारों को 125 यूनिट बिजली मुफ्त में देने जा रहे हैं। इसके साथ ही अगले तीन साल के भीतर घरेलू उपभोक्ताओं को राहत देने के लिए उन्होंने सोलर प्लांट लगाने की वायदा भी किया है। गरीब परिवारों के लिए सरकार ये काम मुफ्त में करेगी। कुटीर ज्योति योजना में इसका प्रावधान सरकार ने किया है। इसके तहत वो अगले तीन सालों के दौरान 10 हजार मेगावाट बिजली उपलब्ध कराने जा रहे हैं। तीसरा सबसे अहम फैसला जो उन्होंने लिया है वो सरकारी स्कूलों में भरती का है। शिक्षा विभाग से कहा गया है कि सरकारी विद्यालयों में अध्यपकों की वैकेंसी का पता लगाए और आचार संहिता लगने से पहले नियुक्ति कर दी जाएं। 

जितनी तेजी के साथ नीतीश ने ये फैसले लिए वो बीजेपी के साथ उनके धुर विरोधियों को भी भौचक्का कर गए। जानकार कहते हैं कि इनकी भनक किसी को नहीं लगने दी गई। माना जा रहा है कि नीतीश नवंबर में होने वाले बिहार चुनाव के बाद जदयू को सबसे बड़ी पार्टी बनाना चाहते हैं। उनको पता है कि ऐसा नहीं हो पाया तो सीएम की कुर्सी तो जाएगी ही, जदयू में टूटफूट भी हो सकती है। मोलभाव की ताकत बनाए रखनी है तो नई असेंबली में जदयू को बीजेपी से बड़ी पार्टी में तब्दील करना होगा।

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बीजेपी पर रत्ती भर भी भरोसा नहीं करते नीतीश

नीतीश और बीजेपी साथ मिलकर 2005 से चुनाव लड़ रहे हैं। दोनों की दोस्ती 2013 तक बदस्तूर जारी थी। लेकिन जैसे ही बीजेपी ने 2014 लोकसभा चुनावों के लिए अपनी कैंपेन कमेटी का चेयरमैन नरेंद्र मोदी को बनाया, नीतीश ने बीजेपी से नाता तोड़ लिया। वो लालू यादव के साथ चले गए। 2015 चुनाव भी उन्होंने लालू यादव के साथ मिलकर लड़ा था। उसके बाद वो एक बार फिर से बीजेपी के साथ आ गए। कुछ दिन शांत रहे और फिर लालू यादव का दामन थामकर बीजेपी को गच्चा दे गए। 2024 चुनाव के लिए इंडिया गठबंधन का तानाबाना उन्होंने ही बुना था। लेकिन जब संयोजक पद को लेकर बात नहीं बनी तो फिर से बीजेपी के पास लौट आए।

नहीं बनना चाहते एकनाथ शिंदे

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नीतीश को पता है कि बीजेपी अपने साझेदारों को निपटाने में माहिर है। देश भर में जिसने भी बीजेपी का साथ दिया मौका मिलते ही बीजेपी ने उसको निपटा दिया। महाराष्ट्र का खेल उनके सामने है। बीजेपी ने चुनाव तो एकनाथ शिंदे के चेहरे पर लड़ा लेकिन जैसे ही रिजल्ट आया शिंदे को कोने में धकेल दिया गया। अब शिंदे अपने अस्तित्व को बचाने की लड़ाई लड़ रहे हैं। 

नीतीश जानते हैं कि अगर उनका हाल 2020 जैसा रहा तो बीजेपी इस बार उनका हाल भी एकनाथ शिंदे जैसा कर सकती है। यही वजह है कि वो जदयू को सबसे बड़ी पार्टी में तब्दील करने के लिए कमर कस चुके हैं। उनको पता है कि जो ऐलान उन्होंने जनता के लिए किए वो उनके अपने हैं। न तो कोई कैबिनेट की बैठक और न ही एनडीए का जमावड़ा। नीतीश ने एक ट्वीट किया और जनता के लिए केजरीवाल स्टाइल में घोषणाएं कर दीं। उन्होंने जदयू को फायदा दिलाने के लिए इस तरह की रणनीति तैयार की। 

2020 में बीजेपी के इशारे पर नीतीश पर हमलावर थे चिराग

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नीतीश को पता है कि बीजेपी पर नकेल नहीं डाली गई तो उनको ही निगल सकती है। 2020 की सियासत उनके सामने है। तब बीजेपी ने चिराग पासवान को नीतीश के सामने खड़ा कर दिया था। चिराग ने वोट काटने का काम किया। यही वजह रही कि 243 की असेंबली में बीजेपी 74 तक पहुंच गई वहीं नीतीश कुमार की सीटें 43 पर ही सिमट गईं। 2015 में नीतीश लालू के साथ मिलकर लड़े थे। तब लालू ने 80 सीटें जीती थीं जबकि नीतीश के 71 विधायक थे। बीजेपी तब 53 सीटें ही जीत सकी थी। बावजूद इसके कि 1 साल पहले ही नरेंद्र मोदी प्रचंड लहर पर सवार होकर प्रधानमंत्री बने थे। 2015 के चुनाव में उन्होंने मनमाफिक पैकेज का ऐलान बिहार के लिए किया था। लेकिन उनके ऐलान का बीजेपी को ज्यादा फायदा नहीं मिला।

2010 के चुनावों की बात की जाए तो तब नीतीश बीजेपी के साथ थे। उस दौरान जदयू ने 115 सीटों पर जीत हासिल की थी। जबकि बीजेपी के 91 विधायक जीतकर आए थे। नीतीश को पता है कि 2015 के बाद उनके वोट बैंक में जो सेंध लगी उसमें बीजेपी का बड़ा योगदान रहा। 2020 में चिराग खुलेआम खुद को नरेंद्र मोदी का हनुमान कहते रहे। लेकिन वो नीतीश पर खासे हमलावर थे। बीजेपी सबकुछ देख रही थी पर बोली कुछ नहीं। मोदी या अमित शाह की तरफ से एक बार भी चिराग को चेतावनी नहीं दी गई। 2024 के चुनाव आए तो चिराग को बीजेपी ने फिर से गले लगा दिया। यानि साफ है कि वो बीजेपी के इशारे पर ही तमाम बयानबाजी कर रहे थे। 

नीतीश जानते हैं कि सीटें घटी तो निपटा देगी बीजेपी

नीतीश जानते हैं कि 2020 में वो 43 सीटें जीतकर भी सीएम बन गए थे। पर इस बार हालात अलग हैं। बीजेपी उनके साथ एकनाथ शिंदे जैसा सलूक कर सकती है। यानि उनको एक कोने में बिठा दिया जाए। नीतीश को पता है कि वो बिहार की राजनीति में तब तक प्रासंगिक हैं जब तक जदयू मजबूत स्थिति में बनी रहती है। अगर वो ताकतवर रहे तो बीजेपी को उंगलियों पर नचा सकते हैं। अपने हिसाब से लालू और कांग्रेस से मोलभाव भी कर सकते हैं। इसके लिए जरूरी है जनता का साथ। जनता को अपने साथ लाने के लिए ही उन्होंने अरविंद केजरीवाल की स्टाइल में मुफ्त घोषणाओं का पिटारा खोला। उनको पता है कि असेंबली में वो मजबूत नहीं हुए तो उनके 12 सांसद कभी उनको गच्चा देकर बीजेपी के साथ जा सकते हैं। खुद को मजबूत करने के लिए उनके पास केजरीवाल के नक्शेकदम पर चलने के सिवाय कोई चारा नहीं था। उन्होंने एक दांव खेला है चल गया तो वो मनमाफिक तरीके से बीजेपी के साथ बिहार की राजनीति को अपने हिसाब से काबू कर सकते हैं। उनको पता है कि मुफ्त की रेवड़ी बांटकर ही केजरीवाल आज राजनीति में इस मुकाम तक पहुंच चुके हैं। क्या पता बिजली के नाम पर जनता उनके पीछे चल निकले।

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