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Explained: राज और उद्धव का साथ आना BJP के लिए क्यों है खतरे की घंटी

अगर राज और उद्धव के साथ आने के बाद मराठा और हिंदू वोटबैंक उनकी तरफ चला गया तो ये एक तरह का नया प्रयोग होगा। इसे बाद दूसरे सूबों में भी ऐसे ही प्रयोग हो सकते हैं जिनमें हिंदुत्व की विचारधारा पर चलने वाली पार्टियां एक दूसरे के करीब आ सकती हैं।

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Shailendra Gautam
Uddhav-Raj Thackeray

नई दिल्ली, वाईबीएन डेस्कः उद्धव ठाकरे ने अपने चचेरे भाई राजठाकरे के साथ शनिवार को 20 साल बाद मंच साझा किया तो सबसे ज्यादा दिक्कत बीजेपी को हुई। परेशानी एकनाथ शिंदे को भी है लेकिन उतनी नहीं जितनी भारतीय जनता पार्टी को है। दरअसल, बीजेपी की मुश्किल ये है कि देश में पहली बार किसी सूबे में ऐसा कोई गठबंधन खड़ा हो गया है जिससे उसे खासी परेशानी पैदा हो सकती है। इस गठबंधन की खास बात ये है कि जिस वोट बैंक की राजनीति बीजेपी करती रही है राज और उद्धव की जोड़ी उसी तबके को निशाना बनाने वाली है। 

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आखिरी बार 2005 में साथ दिखे थे उद्धव और राज ठाकरे

उद्धव और राज आखिरी बार 2005 में एक साथ आए थे। वो एक चुनावी रैली थी। उस दौरान बाल ठाकरे जिंदा थे। उस दौरान राज और उद्धव एक साथ मंच पर दिखे थे। हालांकि राज की बाल ठाकरे और उनके परिवार से अनबन पहले ही शुरू हो चुकी थी लेकिन वो 2006 का साल था जब राज ने पूरी तरह से बाल ठाकरे और उनके परिवार से किनारा कर लिया। पहले राज ने शिवसेना छोड़ी और उसके बाद वो महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना लेकर सामने आ गए। 

उस घटना के बाद से दोनों भाई अलग-अलग ही दिखे। हालांकि जब एक बार राज बीमार पड़े तो उद्धव उन्हें खुद कार ड्राइव करके अस्पताल तक ले गए। पर उसे एक खास पल कहा जा सकता है। उसके बाद से दोनों भाई अलग ही दिखे। बाल ठाकरे के देहावसान पर भी राज का परिवार मातोश्री के इर्द गिर्द दिखा था। लेकिन उसे भी एक खास पल का नाम दिया जा सकता है। उसके बाद के दौर में दोनों को एक साथ कभी भी नहीं देखा गया। राज ठाकरे अपने चाचा बाल ठाकरे की लीक पर चलकर तीखे तेवरों में राजनीति करते रहे। कभी वो बालीवुड के लोगों को धमकाते थे तो कभी सीधे सरकार से पंगा ले लेते थे। पर वो जमीन तैयार नहीं कर सके। 

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दोनों की नजर बाल ठाकरे के बनाए वोट बैंक पर

देखा जाए तो राज और उद्धव का साथ आना केवल एक घटना है। लेकिन ये घटना एक बड़ा सियासी बवंडर भी पैदा कर सकती है, शर्त ये है कि दोनों कितने सधे हुए अंदाज में अपने पत्ते फेकते हैं। फिलहाल इस गठजोड़ की जरूरत दोनों के लिए एक सी अहमियत रखती है। राज ठाकरे अपनी पार्टी मनसे को उठा नहीं पा रहे हैं तो उद्धव की शिवसेना उठकर भी इतनी ज्यादा बैठ चुकी है कि उनके अस्तित्व पर संकट मंडरा रहा है। दोनों को अपने उस वोट बैंक को इकट्ठा करने की जरूरत है जिसे बाल ठाकरे ने सालों की मेहनत के बाद तैयार किया था। 

बाबरी विध्वंस के दौरान ही बाल ठाकरे ने खेल दिया था हिंदुत्व का पत्ता 

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बाल ठाकरे ने जब राजनीति शुरू की थी तो उन्होंने मराठी पर फोकस करने के साथ हिंदुत्व का नारा भी बुलंद किया था। 1992 में बाबरी विध्वंस हुआ तो देश भर में अकेले बाल ठाकरे ने छाती ठोककर कहा था कि उन्हें फख्र है कि बाबरी मस्जिद को शिवसेना के लोगों ने गिराया। बाल ठाकरे जानते थे कि इस बयान उनको कानूनी मुश्किलों से दो-चार होना पड़ सकता है लेकिन वो दूरदर्शी थे। उनको आगे की चीजें साफ दिख रही थीं। वो हिंदुत्व के ब्रान्ड पर नजर गड़ाए हुए थे। 

बाल ठाकरे बीजेपी को मानते थे दोयम दर्जे की पार्टी

बाल ठाकरे अपने जीवन के अंतिम समय तक खुद को हिंदू नेता कहलाने में ज्यादा फख्र महसूस करते थे। इस लीक पर चलकर वो खुद को महाराष्ट्र में मजबूती से स्थापित कर चुके थे। बीजेपी ने जब महाराष्ट्र में अपनी जड़ें जमाने की कोशिश की तो उसे बाल ठाकरे के सामने झुकना पड़ गया। बावजूद इसके कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का दफ्तर उसी महाराष्ट्र में स्थित था। बाल ठाकरे समझते थे कि बीजेपी कभी भी उनको धोखा दे सकती है, इसी वजह से उन्होंने हमेशा कमान अपने हाथ में रखी। बीजेपी को छोटे भाई का दर्जा देकर उन्होंने हैसियत बता दी थी। 

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2019 के बाद सियासत बदली, बीजेपी से छोटी हो गई शिवसेना

बाल ठाकरे के बाद महाराष्ट्र की सियासत में तब्दीली देखने को मिली। 2019 तक आते आते छोटे भाई का दर्जा शिवसेना के पास चला गया। यानि कमान बीजेपी के पास आ गई। सीएम की कुर्सी देवेंद्र फडणवीस को मिली। हालांकि शिवसेना का दावा था कि चुनाव से पहले ये बात हुई थी कि ढाई साल बाद सीएम की कुर्सी शिवसेना के पास जाएगी। दोनों के बीच तनाव पैदा हुआ और उद्धव ने अपनी अलग राह बना ली। वो कांग्रेस और शरद पवार के साथ आकर सीएम बन गए। उसके बाद बीजेपी ने शिवसेना को उसकी हैसियत बताने में कोई कसर नहीं छोड़ी। पहले एकनाथ शिंदे को अपनी तरफ करके उद्धव की सरकार गिराई तो फिर शिवसेना का वो नाम भी उनसे छीन लिया जो बाल ठाकरे की देन था। बीजेपी शिवसेना को नेसत्नाबूद करने पर आमादा हो चली थी लेकिन ऐन वक्त पर दोनों भाईयों ने साथ आकर उसे भौचक कर डाला। 

उद्धव-राज जीतने लगे तो बीजेपी के लिए पैदा होंगी बड़ी मुश्किलें

फिलहाल दोनों का साथ आना बीजेपी के लिए खतरे की घंटी है। ये बात केवल महाराष्ट्र के परिपेक्ष्य में नहीं है बल्कि पूरे देश के लिए भी कही जा सकती है। बीजेपी हिंदूत्व की राजनीति करती है। अगर राज और उद्धव के साथ आने के बाद मराठा और हिंदू वोटबैंक उनकी तरफ चला गया तो ये एक तरह का नया प्रयोग होगा। इसे बाद दूसरे सूबों में भी ऐसे ही प्रयोग हो सकते हैं जिनमें हिंदुत्व की विचारधारा पर चलने वाली पार्टियां एक दूसरे के करीब आ सकती हैं। हाल फिलहाल में राज और उद्धव दोनों के ही पास वोटबैंक नहीं है। दोनों के साथ आने से बालठाकरे के जमाने वाले लोग उनके साथ आ गए तो बीजेपी की मुश्किलें बढ़ेंगी। ऐसा नहीं है कि बीजेपी को इस बात का पता नहीं है। बीजेपी इसे बखूबी समझ रही है। यही वजह रही कि राज और उद्धव के बीच तनातनी पैदा करने के लिए सीएम देवेंद्र फडणवीस ने पूरा जोर लगाया। लेकिन वो राज ठाकरे को नहीं मना सके। उनको पता था कि दोनों का साथ आना और उसके बाद छोटी सी भी जीत हासिल कर लेना बहुत बड़े अफसाने में तब्दील हो सकती है। अगर दोनों भाई चुनावी जीत हासिल करने लग गए तो एकनाथ शिंदे उनके साथ आ सकते हैं। शिंदे को वैसे भी बीजेपी ने बेमतलब का कर दिया है। वो साथ आए तो उद्धव-राज बड़ी ताकत बन सकते हैं।

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