नई दिल्ली, वाईबीएन डेस्क । CJI संजीव खन्ना रिटायर हो गए। 13 मई उनका सुप्रीम कोर्ट में आखिरी दिन था। विदाई पार्टी में साथी जजों ने उनकी मुक्त कंठ से सराहना की। लेकिन इस मौके पर उनसे ज्यादा उनके चाचा का जिक्र हो रहा था। साथी जजों ने ही नहीं बल्कि SG और AG ने भी चाचा को सराहा।
सीजेआई के चाचा थे सुप्रीम कोर्ट के जज, दिया था ऐतिहासिक फैसला
दरअसल सीजेआई के चाचा एचआर खन्ना भी सु्प्रीम कोर्ट के जज थे। 70 के दशक में वो सर्वोच्च न्यायालय के सबसे धाकड़ जज थे। केवल उस दशक में ही नहीं वरन सुप्रीम कोर्ट के इतिहास में उन्हें सबसे ज्यादा तेज तर्रार और स्टैंड लेने वाला जज माना गया है। एक मामले में सरकार के खिलाफ गए तो सीनियारिटी में सबसे आगे होने के बावजूद उनको केवल इस बात के चलते सीजेआई नहीं बनाया गया। लेकिन वो झुके नहीं और जूनियर के मातहत काम करने को अपनी तौहीन माना। उन्होंने नौकरी को ही नमस्ते कर ली। इंदिरा गांधी सरकार के खिलाफ 1977 में इमरजेंसी के दौरान फैसला देने के उनके हौसले की आज भी तारीफ होती है। सीजेआई की विदाई पार्टी के दौरा भी उनसे ज्यादा जस्टिस एचआर खन्ना का जिक्र था।
भावी सीजेआई बीआर गवई ने सबसे पहले किया चाचा को याद
भावी सीजेआई बीआर गवई ने सीजेआई खन्ना के दिवंगत चाचा को याद करते हुआ बताया कि एडीएम जबलपुर मामले में सरकार के खिलाफ फैसला सुनाने के बाद भारत के मुख्य न्यायाधीश के पद के लिए उनको नजरअंदाज कर दिया गया था। जस्टिस गवई ने कहा कि सीजेआई खन्ना लंबे समय तक उसी कोर्ट रूम में बैठे जहां उनके चाचा ने अदालत लगाई थी।
एसजी बोले- धाकड़पने की वजह से सरकार ने नहीं बनाया था सीजेआई
सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा कि सीजेआई खन्ना के चाचा जस्टिस एचआर खन्ना को अपने भतीजे पर गर्व हो रहा होगा। जस्टिस खन्ना को भारत में आपातकाल के दौरान एडीएम जबलपुर मामले में नागरिक स्वतंत्रता को बरकरार रखने के लिए याद किया जाता है। एक ऐसा फैसला जिसकी वजह से उन्हें भारत के मुख्य न्यायाधीश का पद गंवाना पड़ा। इस मामले में सरकार के खिलाफ फैसला सुनाने के बाद इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली सरकार ने एक जूनियर जज को सीजेआई नियुक्त किया था। जस्टिस एचआर खन्ना ने कुछ ही समय बाद अपने पद से इस्तीफा दे दिया था। एसजी मेहता ने आज सीजेआई संजीव खन्ना से कहा कि जस्टिस एचआर खन्ना को आज आप पर बहुत गर्व होता।
जानिए क्या था एडीएम जबलपुर बनाम शिवकांत शुक्ला केस
एडीएम जबलपुर बनाम शिवकांत शुक्ला मामले को Habeas Corpus Case (बंदी प्रत्यक्षीकरण मामले) के रूप में भी जाना जाता है। ये मामला भारत में आपातकाल की अवधि (1975-1977) के दौरान सामने आया था। इसमें सर्वोच्च न्यायालय ने यह निर्णय दिया था कि बंदी प्रत्यक्षीकरण रिट के माध्यम से हिरासत को चुनौती देने का अधिकार संविधान के अनुच्छेद 359 के तहत मौलिक अधिकारों के निलंबन के दौरान लागू किया जा सकता है या नहीं। ये फैसला सरकार के खिलाफ था। तत्कालीन पीएम इंदिरा गांधी इससे गुस्से में आ गईं, क्योंकि इमरजेंसी के दौरान सरकार मनमर्जी किसी को भी जेल में डाल दे रही थी। फैसला देने का खामियाजा जस्टिस एचआर खन्ना को सीजेआई की कुर्सी गंवाकर चुका पड़ा था।
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