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हाईकोर्ट का Indira Gandhi के खिलाफ वो फैसला, जिसके बाद लगी इमरजेंसी, जानिए — पूरा सच | यंग भारत न्यूज
नई दिल्ली, वाईबीएन डेस्क । आज से 49 साल पहले, 12 जून 1975 का वो दिन भारतीय राजनीति के इतिहास में एक ऐसा भूचाल लेकर आया था, जिसने देश का भविष्य हमेशा के लिए बदल दिया। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के चुनाव को रद्द कर दिया, उन्हें चुनावी धांधली का दोषी ठहराया। ये फैसला सिर्फ एक अदालत का निर्णय नहीं था, बल्कि इसने देश को आपातकाल के उस काले दौर की तरफ धकेल दिया, जिसकी कल्पना भी किसी ने नहीं की थी। अगर आप जानना चाहते हैं कि कैसे एक न्यायिक फैसले ने भारत की दिशा बदल दी, तो यह कहानी आपके लिए है।
आप कल्पना कीजिए, देश की सबसे शक्तिशाली प्रधानमंत्री, जिन्हें लोग 'दुर्गा' का अवतार मानते थे, अचानक अदालत के कठघरे में खड़ी हो जाती हैं। वो आरोप थे चुनाव में धांधली के, सरकारी मशीनरी के दुरुपयोग के। जब इलाहाबाद हाईकोर्ट के जज जगमोहन लाल सिन्हा ने 12 जून 1975 को ये ऐतिहासिक फैसला सुनाया कि इंदिरा गांधी का 1971 का रायबरेली चुनाव अवैध है, तो पूरे देश में सन्नाटा छा गया। ये सिर्फ एक कानूनी जीत नहीं थी, बल्कि विपक्षी दलों के लिए एक बड़ी उम्मीद की किरण थी, और इंदिरा गांधी के सामने उनके राजनीतिक जीवन की सबसे बड़ी चुनौती।
पर क्या आप जानते हैं कि इस फैसले के बाद क्या हुआ? क्या इंदिरा गांधी ने इस्तीफा दे दिया? क्या लोकतंत्र की जीत हुई? या फिर कुछ ऐसा हुआ, जिसने भारत के लोकतांत्रिक इतिहास पर एक अमिट छाप छोड़ दी? ये सिर्फ एक कानूनी लड़ाई नहीं थी, बल्कि सत्ता और विपक्ष के बीच, न्याय और राजनीति के बीच, और अंततः, संविधान और व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं के बीच की लड़ाई थी। ये कहानी आपको उस ऐतिहासिक दिन के हर पहलू से रूबरू कराएगी और बताएगी कि कैसे एक फैसले ने भारत के इतिहास को मोड़ दिया।
आज से ठीक 49 साल पहले, 12 जून 1975 का वो दिन भारतीय लोकतंत्र के माथे पर एक ऐसी लकीर खींच गया, जिसे आज भी कोई मिटा नहीं पाया है। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने एक ऐतिहासिक फैसला सुनाया, जिसने देश की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को चुनावी भ्रष्टाचार का दोषी ठहराया। इस फैसले ने सिर्फ इंदिरा गांधी के राजनीतिक करियर को ही नहीं, बल्कि पूरे देश को एक ऐसे अंधकारमय दौर में धकेल दिया, जिसे 'आपातकाल' के नाम से जाना जाता है। यह कहानी सिर्फ एक कानूनी लड़ाई की नहीं, बल्कि सत्ता की पकड़, लोकतंत्र की अग्निपरीक्षा और एक राष्ट्र के भविष्य की कहानी है।
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वो ऐतिहासिक 12 जून 1975: जब न्याय ने सत्ता को चुनौती दी
कल्पना कीजिए! देश की सबसे शक्तिशाली नेता, जिसने 1971 के युद्ध में पाकिस्तान को धूल चटाकर भारत का मान बढ़ाया था, अचानक न्यायिक प्रक्रिया के सामने खड़ी होती है। 12 जून 1975, शुक्रवार का दिन था। सुबह 10 बजे, इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति जगमोहन लाल सिन्हा ने उस ऐतिहासिक फैसले को सुनाना शुरू किया, जिसका इंतजार पूरा देश कर रहा था। यह फैसला 1971 के लोकसभा चुनाव में रायबरेली सीट से इंदिरा गांधी के निर्वाचन को चुनौती देने वाली याचिका पर आधारित था। याचिकाकर्ता कोई और नहीं, बल्कि उनके धुर विरोधी और समाजवादी नेता राज नारायण थे। राज नारायण ने आरोप लगाए थे कि इंदिरा गांधी ने चुनाव जीतने के लिए सरकारी मशीनरी का दुरुपयोग किया, तय सीमा से ज्यादा पैसा खर्च किया और अधिकारियों की मदद ली।
अदालत ने इंदिरा गांधी को चुनावी भ्रष्टाचार के दो आरोपों में दोषी पाया: पहला, सरकारी अधिकारी यशपाल कपूर को चुनाव प्रचार में इस्तेमाल करना, जब वे अभी भी सरकारी सेवा में थे; और दूसरा, चुनाव के लिए मंच, लाउडस्पीकर और अन्य सुविधाओं के लिए सरकारी धन का इस्तेमाल करना। न्यायमूर्ति सिन्हा ने इंदिरा गांधी के रायबरेली निर्वाचन को अमान्य घोषित कर दिया और उन्हें अगले छह साल तक किसी भी निर्वाचित पद पर रहने से रोक दिया। यह फैसला एक बम की तरह फटा।
न्यायपालिका की स्वतंत्रता की जीत या राजनीतिक साजिश?
यह फैसला केवल एक न्यायिक निर्णय नहीं था, यह न्यायपालिका की स्वतंत्रता और देश के लोकतांत्रिक मूल्यों की जीत का प्रतीक था। यह दिखाता था कि कानून की नजर में कोई भी, चाहे वह कितना भी शक्तिशाली क्यों न हो, बड़ा नहीं होता। हालांकि, सत्ता के गलियारों में इसे एक राजनीतिक साजिश के तौर पर भी देखा गया। विपक्षी दल इस फैसले से उत्साहित थे और उन्होंने इंदिरा गांधी के इस्तीफे की मांग तेज कर दी। जयप्रकाश नारायण (जेपी) के नेतृत्व में पूरे देश में आंदोलन जोर पकड़ने लगा था, और यह फैसला उस आंदोलन को और भी ताकत देने वाला था।
इंदिरा का शुरुआती रिएक्शन: सदमे से इनकार तक
जब फैसला आया, तो इंदिरा गांधी दिल्ली में थीं। कहा जाता है कि शुरुआत में उन्हें और उनके करीबियों को विश्वास ही नहीं हुआ। वे इस फैसले से स्तब्ध थे। हालांकि, इंदिरा गांधी ने जल्द ही खुद को संभाला। उनके सलाहकारों और पार्टी के वफादारों ने उन्हें इस्तीफा न देने की सलाह दी। उन्हें लगा कि यह उनके खिलाफ एक राजनीतिक हमला है और अगर उन्होंने इस्तीफा दे दिया तो विपक्ष को बड़ी जीत मिल जाएगी। कांग्रेस पार्टी ने तुरंत इंदिरा गांधी के समर्थन में प्रस्ताव पारित किए और उन्हें पार्टी का निर्विवाद नेता घोषित किया।
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विरोध प्रदर्शन और इस्तीफे की मांग
इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले के बाद, विपक्षी दलों ने एकजुट होकर इंदिरा गांधी के इस्तीफे की मांग तेज कर दी। जयप्रकाश नारायण ने दिल्ली के रामलीला मैदान में एक विशाल रैली को संबोधित किया, जहां उन्होंने देश के विभिन्न वर्गों से अपील की कि वे सरकार के खिलाफ एकजुट हों। उन्होंने सेना, पुलिस और सरकारी कर्मचारियों से भी सरकार के "अवैध" आदेशों का पालन न करने का आह्वान किया। यह एक अभूतपूर्व आह्वान था, जिसने सरकार को हिला दिया। सड़कों पर विरोध प्रदर्शन तेज हो गए, छात्रों और युवाओं ने इसमें बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया।
क्या था आपातकाल? कैसे भारत की आत्मा पर लगा दाग
जब चारों ओर से दबाव बढ़ने लगा, तो इंदिरा गांधी ने एक ऐसा कदम उठाया, जिसने भारत के लोकतांत्रिक इतिहास पर एक अमिट छाप छोड़ दी - आपातकाल। 25 जून 1975 की रात, राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद ने इंदिरा गांधी की सलाह पर आंतरिक आपातकाल की घोषणा कर दी। यह संविधान के अनुच्छेद 352 के तहत किया गया था, जिसमें कहा गया था कि अगर देश की सुरक्षा को आंतरिक गड़बड़ी से खतरा हो तो आपातकाल लगाया जा सकता है।
आपातकाल की घोषणा के साथ ही देश में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, प्रेस की स्वतंत्रता और नागरिक अधिकारों पर प्रतिबंध लग गए। विपक्षी नेताओं, कार्यकर्ताओं, पत्रकारों और यहां तक कि असंतुष्ट कांग्रेसियों को भी रातों-रात गिरफ्तार कर लिया गया। मीसा (Maintenance of Internal Security Act) के तहत हजारों लोगों को बिना किसी आरोप के जेल में डाल दिया गया। अखबारों पर सेंसरशिप लागू कर दी गई, रेडियो और टीवी पर सिर्फ सरकारी प्रचार दिखाया जाने लगा।
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तानाशाही की आहट: मनमानी और दमन का दौर
आपातकाल का दौर भारतीय लोकतंत्र के लिए एक काला अध्याय था। इस दौरान सरकार ने अपनी शक्तियों का भरपूर दुरुपयोग किया। लोगों के मौलिक अधिकार निलंबित कर दिए गए। पुलिस को असीमित शक्तियां दे दी गईं। संजय गांधी, इंदिरा गांधी के छोटे बेटे, एक अनौपचारिक शक्ति केंद्र बन गए और उनकी भूमिका कई विवादों से घिरी रही, जिनमें जबरन नसबंदी और दिल्ली के पुराने इलाकों में झुग्गियों को हटाना शामिल था।
प्रशासन में भ्रष्टाचार बढ़ गया और सत्ता के करीबियों को लाभ पहुँचाया जाने लगा। प्रेस की स्वतंत्रता पर इतना बड़ा हमला हुआ कि कई अखबारों ने विरोध में अपने संपादकीय स्थान को खाली छोड़ना शुरू कर दिया। यह दिखाता था कि पत्रकारिता किस हद तक कुचल दी गई थी।
लोकतंत्र की अग्निपरीक्षा: जब जनता ने दिया जवाब
आपातकाल 21 महीने तक चला, यानी मार्च 1977 तक। इतने लंबे समय तक दमन और अत्याचार सहने के बाद, जब इंदिरा गांधी ने अचानक चुनाव की घोषणा की, तो कई लोग हैरान थे। उन्हें लगा कि जनता अभी भी उनके पक्ष में है। लेकिन वे गलत थीं। आपातकाल के दौरान जनता के मन में जो गुस्सा और निराशा भरी थी, वह चुनाव के रूप में सामने आई।
जनता पार्टी, जो विभिन्न विपक्षी दलों के विलय से बनी थी, ने इंदिरा गांधी और उनकी पार्टी को भारी शिकस्त दी। खुद इंदिरा गांधी और संजय गांधी भी अपनी-अपनी सीटों से चुनाव हार गए। यह भारत के लोकतांत्रिक इतिहास में एक असाधारण क्षण था, जब जनता ने तानाशाही को खारिज कर दिया और लोकतंत्र की बहाली का मार्ग प्रशस्त किया।
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इलाहाबाद हाईकोर्ट का फैसला: एक सबक, एक प्रेरणा
इलाहाबाद हाईकोर्ट का 12 जून 1975 का फैसला केवल एक कानूनी निर्णय नहीं था, बल्कि यह भारतीय लोकतंत्र के लिए एक महत्वपूर्ण सबक था। इसने दिखाया कि न्यायपालिका कितनी स्वतंत्र और शक्तिशाली हो सकती है, भले ही सामने देश की सबसे शक्तिशाली नेता क्यों न हो। इस फैसले ने उन शक्तियों को भी उजागर किया जो एक लोकतांत्रिक सरकार के पास होती हैं और जिनका दुरुपयोग करने पर लोकतंत्र को कितना नुकसान हो सकता है।
आज भी, जब हम 12 जून 1975 के बारे में सोचते हैं, तो हमें उस दौर की याद आती है जब भारत का लोकतंत्र अपनी सबसे बड़ी परीक्षा से गुजर रहा था। यह हमें सिखाता है कि सतर्क रहना कितना महत्वपूर्ण है, और अपने अधिकारों की रक्षा के लिए हमेशा तैयार रहना चाहिए। यह हमें यह भी याद दिलाता है कि सत्ता पर हमेशा अंकुश लगाना जरूरी है, और न्यायपालिका की स्वतंत्रता किसी भी स्वस्थ लोकतंत्र के लिए अपरिहार्य है।
क्या भारत में फिर लग सकता है आपातकाल?
यह एक ऐसा सवाल है जो आज भी कई लोगों के मन में उठता है। हालांकि संविधान में आपातकाल लगाने के प्रावधान अभी भी मौजूद हैं, लेकिन 1975 का अनुभव भारतीय राजनेताओं और जनता के लिए एक कड़वा सबक रहा है। अब आपातकाल लगाना इतना आसान नहीं होगा, क्योंकि लोग अपने अधिकारों के प्रति अधिक जागरूक हैं और न्यायपालिका भी अधिक सतर्क है। मीडिया और सोशल मीडिया का भी अब एक मजबूत रोल है, जो किसी भी ऐसे कदम पर तुरंत प्रतिक्रिया देगा।
फिर भी, हमें हमेशा सतर्क रहना चाहिए। लोकतंत्र कोई ऐसी चीज़ नहीं है जिसे एक बार हासिल कर लिया जाए और फिर उसे भूल जाया जाए। इसकी लगातार रक्षा करनी पड़ती है, इसके लिए संघर्ष करना पड़ता है और इसे मजबूत बनाना पड़ता है। 12 जून 1975 का दिन हमें इसी बात की याद दिलाता है।
12 जून 1975, भारतीय इतिहास का एक ऐसा दिन है, जिसने देश को हिलाकर रख दिया। इलाहाबाद हाईकोर्ट का फैसला, इंदिरा गांधी पर चुनावी भ्रष्टाचार के आरोप, और उसके बाद आपातकाल की घोषणा – ये सभी घटनाएं भारतीय लोकतंत्र के सफर में मील के पत्थर साबित हुईं। इन्होंने हमें सिखाया कि न्याय और सत्ता के बीच संतुलन कितना नाजुक हो सकता है, और कैसे एक राष्ट्र अपने सबसे कठिन दौर में भी अपनी लोकतांत्रिक आत्मा को बचा सकता है। यह कहानी सिर्फ एक घटना की नहीं, बल्कि एक राष्ट्र के संघर्ष, उसके पतन और फिर से उठ खड़े होने की है।
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