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डॉ. सतेंद्र भावसे
अंतरराष्ट्रीय आपदा एवं जलवायु सहनशीलता विशेषज्ञ
पूर्व कार्यकारी निदेशक, राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन संस्थान
आज जब विश्व 21 जून को अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस के रूप में स्मरण कर रहा है, यह दिवस केवल एक योगाभ्यास का प्रतीक नहीं, बल्कि एक वैश्विक आत्मचिंतन का अवसर बन चुका है। इस वर्ष की थीम —“एक पृथ्वी, एक स्वास्थ्य”—उस अदृश्य सूत्र की ओर इंगित करती है जो मनुष्य, समाज और प्रकृति को एक-दूसरे में पिरोता है।
मानवता की त्रासदी
मानवता की त्रासदी इस समय अपने चरम पर है। रूस–यूक्रेन के युद्ध ने महादेश को थर्रा दिया है, वहीं गाज़ा और इसरायल के बीच असंख्य असहाय नागरिक मारे जा रहे हैं। ईरान–इसरायल के तनावपूर्ण संबंधों ने पश्चिम एशिया को बारूद के ढेर पर बैठा दिया है। लाखों विस्थापितों की पीड़ा, जलते शहरों की चीखें, और बच्चों की खामोश आंखें उस भयावह भविष्य की झलक दे रही हैं जो शांति के अभाव में निर्मित हो रहा है।
आत्मिक स्थिरता का संदेश देता योग
इसके साथ ही, जलवायु परिवर्तन की विनाशकारी लहरों ने बाढ़, सूखा, भूकंप और चक्रवातों की मार से दुनिया के सबसे संवेदनशील समुदायों को अस्थिर कर दिया है। यह एक ऐसा युग है जहां मानव निर्मित और प्राकृतिक विपदाएं मिलकर एक विकराल रूप धारण कर चुकी हैं। इन्हीं प्रतिकूलताओं के बीच, भारत की हज़ारों वर्षों पुरानी ऋषि परंपरा से निकला योग, न केवल आत्मिक स्थिरता का संदेश देता है, बल्कि व्यवस्थित, वैज्ञानिक और सार्वभौमिक उपचार पद्धति के रूप में भी उभर रहा है।
योग: बाह्य संकटों में आंतरिक उपचार:
योग केवल शरीर की क्रियाओं का अभ्यास नहीं, बल्कि मन और आत्मा के बीच संतुलन की साधना है। जब भी आपदाएं आती हैं, वे केवल दीवारें नहीं ढहातीं—वे भीतर का मनोबल, विश्वास और भविष्य की दृष्टि भी छीन लेती हैं। केरल की बाढ़ के बाद एक अध्ययन में पाया गया कि जिन पीड़ितों ने 15 दिन तक प्राणायाम, ध्यान और विश्राम का अभ्यास किया, उनकी नींद सुधरी, भय घटा, और मानसिक अशांति में उल्लेखनीय कमी आई। बिहार में बाढ़ पीड़ितों पर किए गए वैज्ञानिक शोध ने भी यही पुष्टि की—सप्ताहभर का योग अभ्यास उदासी को कम करता है, तनाव को हल्का करता है, और व्यक्ति को भीतर से पुनः जाग्रत करता है।
युद्धक्षेत्रों में योग की मौन क्रांति:
आश्चर्य नहीं कि आज गाज़ा, जॉर्डन और लेबनान जैसे युद्धग्रस्त क्षेत्रों में भी योग ने शरणार्थियों और पीड़ितों के बीच चुपचाप प्रवेश किया है। योगा मंडला प्रोजेक्ट और माइंडफुल योगा थेरेपी जैसे संगठनों ने वहाँ महिलाओं और बच्चों के लिए ट्रॉमा-सेंसिटिव योग सत्र शुरू किए, जहाँ लोगों ने पहली बार फिर से खुलकर साँस लेना सीखा। जब शब्द न हों, तब श्वास स्वयं एक भाषा बन जाती है—दर्द कहती है, शांति गुनती है।
इन सत्रों ने PTSD (पोस्ट ट्रॉमेटिक स्ट्रेस डिसऑर्डर) के लक्षणों में कमी लाई, आत्म-संयम को बढ़ाया और आंतरिक संतुलन की ओर लौटने का मार्ग प्रशस्त किया।
सहनशीलता का साधन, सबके लिए सुलभ
योग की सबसे बड़ी शक्ति इसकी सर्वसुलभता है। यह गरीब-अमीर, ग्राम-शहर, युद्ध-शांति—किसी भेद को नहीं मानता। न इसे दवा चाहिए, न मशीन। एक गहरा भाव, एक खुला आकाश और थोड़ी चुप्पी—यही योग की प्रयोगशाला है।
आज जब दुनिया मानसिक स्वास्थ्य संकट की ओर बढ़ रही है, योग न केवल उपचार है, बल्कि पूर्व-सुरक्षा भी है।
नीति में स्थान और समाज में विस्तार
अब समय आ गया है कि हम योग को केवल सांस्कृतिक आयोजन या प्रदर्शन मात्र न रहने दें, बल्कि इसे आपदा प्रबंधन की राष्ट्रीय नीति में एक संगठित स्थान दें। प्राथमिक उत्तरदाता, शिक्षक, आशा कार्यकर्ता—सभी को योग के मूलभूत प्रशिक्षण दिए जा सकते हैं ताकि संकट की घड़ी में वे न केवल दवा दे सकें, बल्कि साँस के सहारे सुकून भी पहुँचा सकें।
जब जीवन बिखरे, तो योग जोड़े: इस अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस पर आइए हम यह स्वीकार करें कि योग न तो चमत्कार है, न ही विकल्प—यह तो एक आंतरिक साहस की पुनर्स्मृति है। जब कोई खो जाता है, और कुछ नहीं बचता, तब योग कहता है—
“तुम अभी भी साँस ले रहे हो। यही काफी है। यहीं से आरंभ करो।”
आज जब युद्ध के शोर में शांति की आवाज दब रही है, योग वह मौन है जो भीतर से बोलता है।
आज जब दुनिया के किसी कोने में कोई बच्चा किसी शरणार्थी शिविर में रोता है, योग कहता है—“एक दिन सब ठीक होगा।” और
जब पूरी धरती विक्षुब्ध होती है, योग कहता है—“एक पृथ्वी, एक स्वास्थ्य, एक मानवता।”