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1400 साल पहले कर्बला में ऐसा क्या हुआ था? जहां एक मासूम बच्चे को प्यासा मार दिया गया? पढ़ें रोंगटे खड़े कर देने वाली कहानी

मुहर्रम कोई त्यौहार नहीं, बल्कि इस्लामी माह का पहला दिन है, जो इमाम हुसैन की कर्बला में शहादत और अन्याय के खिलाफ उनके बलिदान की दर्दनाक याद दिलाता है। यह मातम और त्याग का महीना है, जो सत्य और न्याय के लिए लड़ने की प्रेरणा देता है।

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Ajit Kumar Pandey
1400 साल पहले कर्बला में ऐसा क्या हुआ था, जहां एक मासूम बच्चे को प्यासा मार दिया गया? पढ़ें रोंगटे खड़े कर देने वाली कहानी | यंग भारत न्यूज

1400 साल पहले कर्बला में ऐसा क्या हुआ था, जहां एक मासूम बच्चे को प्यासा मार दिया गया? पढ़ें रोंगटे खड़े कर देने वाली कहानी | यंग भारत न्यूज Photograph: (Google)

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नई दिल्ली, वाईबीएन डेस्क ।मुहर्रम कोई त्योहार नहीं, बल्कि इस्लामी कैलेंडर का पहला महीना है, जो पैगंबर मोहम्मद के नवासे इमाम हुसैन की शहादत और करबला के दर्दनाक वाकये की याद दिलाता है। यह महीना त्याग, बलिदान और अन्याय के खिलाफ खड़े होने की प्रेरणा देता है। क्या आप जानते हैं, इस पवित्र महीने के पीछे की वो कहानी जो हर आंख को नम कर देती है?

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मुहर्रम इस्लामी वर्ष की शुरुआत का प्रतीक है, लेकिन इसकी पहचान खुशी से नहीं, बल्कि गम और अफ़सोस से जुड़ी है। दरअसल, मुहर्रम का दसवां दिन जिसे रोज-ए-आशूरा कहा जाता है, बेहद अहम है। इसी दिन आज से करीब 1400 साल पहले, पैगंबर मोहम्मद के नवासे इमाम हुसैन को कर्बला के मैदान में परिवार और साथियों समेत शहीद कर दिया गया था। यह शहादत सिर्फ एक घटना नहीं, बल्कि सत्य और न्याय के लिए दिए गए सर्वोच्च बलिदान की ऐसी मिसाल बन गई, जिसकी दर्दनाक यादें आज भी ताजा हैं।

क्या आप सोच सकते हैं कि एक परिवार को सिर्फ इसलिए घेरकर मार दिया जाए, क्योंकि उन्होंने अन्याय के सामने झुकने से इनकार कर दिया?

कर्बला का दर्दनाक और हृदय विदारक घटना

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इस्लामी इतिहास में कर्बला का वाकया सबसे दर्दनाक और हृदय विदारक घटनाओं में से एक है। 61 हिजरी (लगभग 680 ईस्वी) में, जब उम्मय्या वंश का क्रूर शासक यज़ीद अपनी सत्ता को मज़बूत करने के लिए हर तरह का ज़ुल्म ढा रहा था, तो उसने पैगंबर मोहम्मद के खानदान से भी अपनी बैअत (निष्ठा की शपथ) लेने को कहा। लेकिन इमाम हुसैन ने, जो न्याय और सच्चाई के प्रतीक थे, इस अन्यायपूर्ण मांग को सिरे से ठुकरा दिया। उन्होंने यज़ीद की नाजायज सल्तनत को मान्यता देने से साफ इनकार कर दिया, क्योंकि वे जानते थे कि ऐसा करना इस्लाम के मूल्यों और सिद्धांतों के खिलाफ होगा।

क्या आप जानना चाहेंगे, इस इनकार की कितनी भयानक कीमत चुकानी पड़ी?

इमाम हुसैन की मक्का से कर्बला तक की यात्रा: सच्चाई का संघर्ष

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इमाम हुसैन मदीना से मक्का पहुंचे, लेकिन जब उन्हें लगा कि मक्का में भी उनकी जान को खतरा है, तो उन्होंने अपने साथियों और परिवार के साथ इराक के कूफ़ा शहर की ओर रुख किया। कूफ़ा के लोगों ने उन्हें खत लिखकर बुलाया था और उनसे न्याय के लिए आवाज़ उठाने का वादा किया था। लेकिन धोखे और बेईमानी की दीवारें वहां पहले से तैयार थीं। रास्ते में ही, यज़ीद की विशाल सेना ने उन्हें कर्बला के रेगिस्तान में घेर लिया। यह घेराबंदी कोई मामूली बात नहीं थी, बल्कि इसमें एक ऐसी क्रूरता छिपी थी, जिसे सुनकर आज भी लोगों की आंखें भर आती हैं।

क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि रेगिस्तान में पानी के बिना, भूखे-प्यासे एक छोटे से काफिले का क्या हाल हुआ होगा?

कर्बला में पानी बंद, बच्चों की प्यास: एक पिता का दर्द

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यज़ीद की सेना ने इमाम हुसैन और उनके साथियों के लिए फरात नदी का पानी बंद कर दिया। कई दिनों तक, छोटे बच्चों से लेकर बूढ़ों तक, सभी प्यास से तड़पते रहे। जब एक पिता अपने छह महीने के मासूम बच्चे अली असग़र को लेकर दुश्मनों से पानी की भीख मांगने पहुंचा, तो उस पर तीर चला दिया गया। बच्चे की प्यासी गर्दन से बहता खून और इमाम हुसैन की आंखों में वो मंजर... क्या आप सोच सकते हैं, एक पिता के लिए इससे बड़ी तकलीफ क्या हो सकती है? यह वाकया मुहर्रम की सबसे दर्दनाक यादों में से एक है।

क्या ऐसी क्रूरता के बारे में सुनकर आपके दिल में भी दर्द नहीं होता?

अंतिम दिन: आशूरा का वो भयावह मंजर

मुहर्रम के दसवें दिन, यानी रोज-ए-आशूरा, जब यज़ीद की सेना ने हमला किया, तो इमाम हुसैन के सिर्फ 72 साथी थे, जिनमें उनके परिवार के सदस्य भी शामिल थे। एक-एक करके, उनके साथी शहीद होते गए। इमाम हुसैन ने अकेले ही दुश्मन की सेना का सामना किया, अपनी पूरी बहादुरी और हिम्मत से। उनके भाई अब्बास अलमदार ने पानी लाने की कोशिश में अपने दोनों हाथ गंवा दिए और वहीं शहीद हो गए। यह मंजर हर उस व्यक्ति को रुला देता है जो इसे सुनता या पढ़ता है।

क्या आप जानते हैं कि इमाम हुसैन की शहादत के बाद उनके साथ क्या हुआ?

शहादत: अन्याय के खिलाफ सर्वोच्च बलिदान

इमाम हुसैन को आखिर में शहीद कर दिया गया। उनके शरीर पर अनगिनत ज़ख्म थे। उनका सिर काट दिया गया और उसे नेजे पर टांगकर शहरों में घुमाया गया। उनके परिवार की महिलाओं और बच्चों को बंदी बनाकर कूफ़ा और शाम (सीरिया) में यज़ीद के दरबार तक ले जाया गया। मुहर्रम का यह पूरा महीना, खासकर आशूरा का दिन, इसी दर्द और त्याग की याद में मनाया जाता है। यह सिर्फ एक इतिहास नहीं, बल्कि एक सबक है कि जब बात सत्य और न्याय की हो, तो किसी भी कुर्बानी से पीछे नहीं हटना चाहिए।

क्या यह सिर्फ एक कहानी है, या आज भी हमारे समाज में इसकी प्रासंगिकता है?

मुहर्रम: मातम, सब्र और इबादत का महीना

मुहर्रम के महीने में दुनिया भर के मुसलमान, खासकर शिया समुदाय, शोक मनाते हैं। मजलिसें आयोजित की जाती हैं, जिसमें कर्बला के वाकये और इमाम हुसैन की शहादत को बयान किया जाता है। लोग काले कपड़े पहनते हैं, मातम करते हैं और इमाम हुसैन के बलिदान को याद करते हैं। इस महीने में दान-पुण्य और इबादत पर भी ज़ोर दिया जाता है। ताज़िये निकाले जाते हैं, जो इमाम हुसैन के रौज़े (मज़ार) का प्रतीक होते हैं। यह सब केवल एक रिवाज़ नहीं, बल्कि इमाम हुसैन के आदर्शों को ज़िंदा रखने का एक तरीका है।

क्या आप जानते हैं कि यह शोक सिर्फ एक दिन का नहीं, बल्कि पूरे 40 दिनों तक चलता है?

इमाम हुसैन का पैगाम: आज के दौर में प्रासंगिकता

इमाम हुसैन का बलिदान केवल एक धार्मिक घटना नहीं, बल्कि मानवता, न्याय और मानवाधिकारों के लिए एक सार्वभौमिक संदेश है। उन्होंने सिखाया कि अन्याय, तानाशाही और भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज़ उठाना हर इंसान का फर्ज है, भले ही इसके लिए कितनी भी बड़ी कीमत चुकानी पड़े। उनकी शहादत हमें याद दिलाती है कि सच्चाई कभी मरती नहीं, और जो लोग हक के लिए खड़े होते हैं, वे हमेशा अमर रहते हैं। मुहर्रम हमें ये सोचने पर मजबूर करता है कि क्या हम भी अपने समाज में हो रहे अन्याय के खिलाफ खड़े होने की हिम्मत रखते हैं?

भारत में मुहर्रम का कब है...

भारत में, मुहर्रम 2025 में 27 जून, 2025 (शुक्रवार) की शाम से शुरू होगा, जो इस्लामिक हिजरी कैलेंडर का पहला महीना है।

मुहर्रम का सबसे महत्वपूर्ण दिन, जिसे आशूरा कहा जाता है (मुहर्रम का 10वां दिन), 6 जुलाई, 2025 (रविवार) को मनाया जाएगा। यह दिन पैगंबर मोहम्मद साहब के नवासे, हज़रत इमाम हुसैन की शहादत की याद में शोक के रूप में मनाया जाता है।

यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि इस्लामिक त्योहार चांद दिखने पर निर्भर करते हैं, इसलिए तारीखों में थोड़ा बदलाव संभव हो सकता है।

आपका नजरिया इस खबर पर क्या है? इमाम हुसैन के बलिदान से हमें क्या सीखना चाहिए? नीचे कमेंट करें और अपने विचार साझा करें।

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