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BAC मीटिंग में हाई वोल्टेज ड्रामा! नड्डा नदारद, धनखड़ नाराज़ — ये है सत्ता की चालबाज़ियों की पहली स्क्रिप्ट | यंग भारत न्यूज Photograph: (Google)
नई दिल्ली, वाईबीएन डेस्क ।संसद के गलियारों में हमेशा ही सियासी बिसात बिछी रहती है, लेकिन कभी-कभी कुछ घटनाएं इतनी बड़ी सुर्खियां बन जाती हैं कि वे 'पावर पॉलिटिक्स' का नया अध्याय लिख जाती हैं। सोमवार 21 जुलाई 2025 की देर एक ऐसा ही 'हाई-वोल्टेज ड्रामा' देखने को मिला, जब देश के उपराष्ट्रपति और राज्यसभा के सभापति जगदीप धनखड़, बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा की बिजनेस एडवाइजरी कमेटी (BAC) की बैठक से गैर-मौजूदगी पर 'भड़क' उठे। यह सिर्फ़ एक नाराजगी नहीं थी, बल्कि इसके पीछे गहरे सियासी मायने निकाले जा रहे हैं - क्या ये 'संवैधानिक मर्यादा' का सवाल था या फिर 'सत्ता के गलियारों' में कोई नई पटकथा लिखी जा रही है?
सूत्रों के मुताबिक, संसद सत्र के सुचारु संचालन और महत्वपूर्ण विधायी कार्यों की रूपरेखा तय करने के लिए BAC की बैठक बुलाई गई थी। यह बैठक 'संसदीय कैलेंडर' का एक अहम हिस्सा है, जहां विभिन्न दलों के प्रतिनिधि मिलकर सदन की कार्यवाही को गति देने पर चर्चा करते हैं। बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा, जो राज्यसभा के एक वरिष्ठ सदस्य हैं, का इस महत्वपूर्ण बैठक में शामिल न होना, उपराष्ट्रपति धनखड़ को इतना नागवार गुजरा कि उन्होंने अपनी नाराजगी को 'खुल कर' व्यक्त किया। उनके शब्दों में, ऐसी 'अहम' बैठकों में नेताओं की उपस्थिति 'अनिवार्य' है ताकि विधायी प्रक्रिया को 'प्रभावी ढंग से' आगे बढ़ाया जा सके। यह कोई 'छोटी-मोटी' टिप्पणी नहीं थी, बल्कि एक 'कड़े संदेश' के रूप में देखी जा रही है।
उपराष्ट्रपति की 'नाराजगी' के पीछे की 'सियासी गुत्थी'
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धनखड़ की नाराजगी सिर्फ़ एक अनुपस्थिति पर नहीं थी, बल्कि इसके पीछे कई परतें छिपी हो सकती हैं:
संसदीय गरिमा का 'सवाल': उपराष्ट्रपति का पद देश का दूसरा सबसे बड़ा संवैधानिक पद है। ऐसे में उनका किसी राजनीतिक दल के प्रमुख की अनुपस्थिति पर सार्वजनिक तौर पर अपनी राय रखना, इस पद की 'गरिमा' और 'महत्व' को रेखांकित करता है। यह एक 'क्रिस्टल क्लियर' संदेश है कि संवैधानिक प्रमुखों की उम्मीदों पर खरा उतरना 'अनिवार्य' है।
'संवैधानिक संरक्षक' का तेवर: धनखड़ लगातार संसदीय प्रक्रियाओं, बहस और चर्चा पर जोर देते रहे हैं। उनकी नाराजगी इस बात का संकेत हो सकती है कि वे संसदीय कार्यवाही को 'खेल' नहीं मानते, बल्कि 'संविधान की आत्मा' के रूप में देखते हैं। किसी भी प्रकार की 'लापरवाही' या 'शिथिलता' उन्हें 'कदापि स्वीकार्य' नहीं है।
सत्ता पक्ष को 'माइक्रो-मैनेजमेंट' का संदेश? कुछ विश्लेषक इसे सत्ताधारी दल को एक 'सूक्ष्म संदेश' के रूप में देख रहे हैं। यह एक 'रिमाइंडर' हो सकता है कि सदन के संचालन में सभी की 'जिम्मेदारी' और 'गंभीरता' अपेक्षित है। क्या यह 'पार्टी हाईकमान' को यह बताने की कोशिश थी कि 'संसद सर्वोपरि' है?
'पावर प्ले' का नया एंगल? राजनीतिक गलियारों में यह भी फुसफुसाहट है कि यह सिर्फ़ एक बैठक की अनुपस्थिति का मामला नहीं है, बल्कि 'सत्ता के समीकरणों' में कुछ 'नई हलचल' का संकेत है। क्या धनखड़ अपने पद की 'स्वतंत्रता' और 'ताकत' का प्रदर्शन कर रहे थे, या यह किसी 'बड़ी सियासी चाल' का हिस्सा था?
क्या ये बीजेपी के लिए एक 'झटका' है?
जेपी नड्डा बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं, जिनका पद पार्टी में 'सर्वोच्च' माना जाता है। उनकी अनुपस्थिति पर उपराष्ट्रपति की टिप्पणी निश्चित रूप से बीजेपी के लिए 'असहज' स्थिति पैदा करती है। यह घटना विपक्षी दलों को भी 'सत्ता पक्ष' पर हमला बोलने का एक 'नया हथियार' दे सकती है। हालांकि, बीजेपी ने इस मामले पर अभी तक कोई 'आधिकारिक चुप्पी' नहीं तोड़ी है, लेकिन अंदरूनी सूत्रों का मानना है कि इस घटना को 'बहुत अधिक तूल' देने से बचने की कोशिश की जाएगी। फिर भी, यह निश्चित रूप से पार्टी के 'भीतर खाने' में चर्चा का विषय बनी होगी – एक ऐसा 'मंथन' जो शायद बाहर न दिखे।
धनखड़ के 'कड़े तेवर' – 'नया नॉर्मल'?
यह पहली बार नहीं है जब उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने अपने पद की 'गरिमा' के अनुरूप या उससे भी आगे बढ़कर अपनी बात रखी हो। हाल के दिनों में कई ऐसे उदाहरण सामने आए हैं जहां उन्होंने सदन में 'अनुशासनहीनता', 'विपक्ष के हंगामे' या कुछ नेताओं के 'रवैये' पर 'कड़ी टिप्पणी' की है। उनकी यह शैली कुछ लोगों को 'पसंद' आती है तो कुछ इसे 'अधिक कठोर' मानते हैं। उनका मानना है कि सदन को 'सुचारु रूप से चलाने' के लिए 'दृढ़ता' और 'कठोरता' दोनों 'आवश्यक' हैं।
'नो-नॉनसेंस' अप्रोच: वे लगातार इस बात पर जोर देते रहे हैं कि सदन में 'अनुशासन सर्वोपरि' है और किसी भी तरह की 'बाधा' को 'बर्दाश्त' नहीं किया जाएगा। यह एक 'सीधा संदेश' है - 'सदन में रहो या बाहर जाओ, लेकिन हंगामा मत करो।'
सार्थक बहस की 'वकालत': वे सदस्यों से 'सार्थक बहस' और 'चर्चा' में भाग लेने का आह्वान करते रहे हैं, न कि केवल 'विरोध के लिए विरोध' करने का। उनका मंत्र है - 'बहस करो, हंगामा नहीं।'
'संविधान ही सर्वोपरि': वे अक्सर संवैधानिक मूल्यों और लोकतांत्रिक सिद्धांतों को बनाए रखने पर बल देते हैं, मानो वे 'संविधान के प्रहरी' हों।
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आगे क्या? कोई 'सियासी तूफान' या 'शांत पानी'?
उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ की जेपी नड्डा पर यह नाराजगी निश्चित रूप से आने वाले दिनों में और अधिक 'सियासी हलचल' पैदा कर सकती है। क्या बीजेपी अध्यक्ष अपनी अनुपस्थिति का 'स्पष्टीकरण' देंगे? क्या सदन में इस मुद्दे पर कोई 'गहन चर्चा' होगी? या यह घटना केवल एक 'अस्थायी मुद्दा' बनकर रह जाएगी और 'समय के साथ धुंधला' जाएगी? यह देखना 'बेहद दिलचस्प' होगा।
यह घटना संसदीय परंपराओं, संवैधानिक पदों की गरिमा और राजनीतिक जवाबदेही के महत्व को 'अंडरलाइन' करती है। यह हमें याद दिलाती है कि लोकतांत्रिक प्रक्रिया में प्रत्येक व्यक्ति की भूमिका 'महत्वपूर्ण' है, चाहे वह 'सत्ता में हो या विपक्ष में'। उपराष्ट्रपति का यह स्पष्ट रुख इस बात का भी संकेत है कि वे सदन के संचालन में किसी भी प्रकार की 'कोताही' को 'बर्दाश्त करने' के मूड में नहीं हैं। यह घटना राजनीतिक विश्लेषकों और आम जनता दोनों के लिए 'गहरे चिंतन' का विषय बन गई है।
क्या यह 'पावर पॉलिटिक्स' की सिर्फ़ एक झलक थी, या 'बड़ी तस्वीर' का एक छोटा सा हिस्सा? समय ही बताएगा कि इस 'पॉलिटिकल ड्रामा' का 'क्लाइमेक्स' क्या होगा।
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