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Explainer : बिहार में 50 ताकतवर कुनबे तय करते हैं 243 विधानसभा सीटों का भविष्य? | यंग भारत न्यूज Photograph: (YBN)
नई दिल्ली, वाईबीएन डेस्क ।बिहार विधानसभा चुनाव 2025 की तारीखें घोषित होते ही राजनीतिक गलियारों में खलबली मच गई है। एक तरफ भाजपा अपनी 'गढ़' वाली सीटों पर आत्मविश्वास में है तो दूसरी तरफ 27% से अधिक विधायक और 57% महिला प्रतिनिधि वंशवादी पृष्ठभूमि से आते हैं। प्रशांत किशोर के अनुसार, राज्य में 1200 राजनीतिक परिवार हैं जो चुनावी टिकट और जीत-हार की दिशा तय करते हैं।
बिहार विधानसभा चुनाव 2025 की रणभेरी बज चुकी है। चुनाव आयोग ने भले ही तारीखों का ऐलान कर दिया हो लेकिन, सीटों के बंटवारे से ज्यादा बड़ी चुनौती वंशवाद की वह गहरी जड़ है, जो राज्य की राजनीति को सालों से कसकर पकड़े हुए है। यह सिर्फ पार्टियों के बीच का संघर्ष नहीं है, बल्कि 'राजनीतिक परिवारों' के वर्चस्व की कहानी है जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी बिहार की सत्ता पर काबिज होते रहे हैं।
Young Bharat News के एक्प्लेनर में पूरा विश्लेषण पढ़ें वंशवाद का वह आंकड़ा जो डराता भी है और चौंकाता भी है। सोचिए, जब हम बिहार में 'लोकतंत्र' की बात करते हैं, तो क्या यह सचमुच आम आदमी का प्रतिनिधित्व है?
आंकड़े कुछ और ही कहानी बयां करते हैं।
27% विधायक: बिहार विधानसभा में हर चौथा विधायक किसी न किसी राजनीतिक परिवार से संबंध रखता है।
57% महिला प्रतिनिधि: राज्य की आधी से ज़्यादा 57% महिला विधायक भी पारिवारिक विरासत के दम पर राजनीति में आई हैं। यह दिखाता है कि महिलाओं की भागीदारी भी कहीं न कहीं 'परिवार' के टिकट पर निर्भर हैं।
पार्टीवार स्थिति
लोजपा रामविलास और ‘हम’ HAM जैसी पार्टियों में यह आंकड़ा 50% तक पहुंच जाता है।
राजद और जदयू में भी 31% प्रतिनिधि चुनिंदा राजनीतिक परिवारों से आते हैं।
कांग्रेस पार्टी में 32% और भाजपा में 17% विधायक भी वंशवादी हैं।
यानी, राजनीति में 'एंट्री गेट' आम कार्यकर्ता के लिए नहीं, बल्कि अक्सर राजनीतिक परिवार में जन्म लेने वाले के लिए खुलता है।
प्रशांत किशोर का बड़ा दावा: 1200 परिवार, 50 सबसे प्रभावशाली परिवार
चुनावी रणनीतिकार से नेता बने प्रशांत किशोर का एक दावा राजनीतिक गलियारों में भूचाल ला सकता है। उनका कहना है कि बिहार में लगभग 1200 राजनीतिक परिवार हैं। ये परिवार ही टिकट तय करते हैं, विधायक चुनवाते हैं और फिर मंत्री भी बनते हैं।
प्रशांत किशोर के मुताबिक, भले ही लिस्ट लंबी हो, लेकिन वास्तव में केवल 50 से अधिक प्रभावशाली परिवार हैं जो चुनावी गणित को पूरी तरह से पलट सकते हैं।
बिहार की राजनीति, इन 50 कुनबों की मुट्ठी में कैद है।
वंशवादी सीटें: जब सीट किसी पार्टी की नहीं, बल्कि 'परिवार' की होती है
बिहार में कई विधानसभा सीटें ऐसी हैं, जहां जातिगत समीकरण या पार्टी की विचारधारा नहीं, बल्कि सिर्फ 'पारिवारिक नाम' काम करता है। ये सीटें अब उस परिवार की राजनीतिक 'जागीर' बन चुकी हैं। जब एक उम्मीदवार कहता है कि "मैं उस परिवार का बेटा हूं, "तो वोटबैंक का एक बड़ा हिस्सा अपने आप उसके पक्ष में आ जाता है। यह भावनात्मक जुड़ाव पीढ़ी दर पीढ़ी वोट में बदलता रहा है।
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लालू से लेकर मांझी तक
बिहार के राजनीतिक महाबली और उनके वारिस वंशवाद की बात हो और बिहार में लालू प्रसाद यादव के परिवार का ज़िक्र न हो, यह नामुमकिन है। लालू प्रसाद यादव, राबड़ी देवी, तेजस्वी यादव, तेज प्रताप यादव, मीसा भारती और रोहिणी आचार्य— पूरा कुनबा राजनीति में सक्रिय है।
वहीं, दलित राजनीति के पुरोधा रामविलास पासवान की विरासत उनके बेटे चिराग पासवान आगे बढ़ा रहे हैं, जो खुद को 'बिहार फर्स्ट' का नायक बताते हैं।
महादलित राजनीति के प्रमुख चेहरे जीतन राम मांझी भी इस दौड़ में पीछे नहीं हैं। उनके बेटे एमएलसी हैं, बहू और साली विधायक हैं।
यह एक परिवार की सफलता की कहानी नहीं है, बल्कि सत्ता में बने रहने की रणनीति है।
पुरानी पीढ़ी, नई कमान
विरासत की राजनीति का विस्तार सिर्फ लालू, पासवान या मांझी ही नहीं, बिहार में कई पुराने और दिग्गज नेता हैं जिनकी अगली पीढ़ी कमान संभाल रही है।
शकुनि चौधरी उनके परिवार की राजनीतिक सक्रियता तारापुर में है।
जगन्नाथ मिश्र उनका राजनीतिक प्रभाव झंझारपुर में आज भी दिखता है।
जगजीवन राम उनकी बेटी और उनके वंशज राष्ट्रीय राजनीति में सक्रिय रहे हैं।
डॉ. अनुग्रह नारायण सिन्हा और कर्पूरी ठाकुर इन महान नेताओं के वंशज भी आज बिहार की राजनीति में अपनी उपस्थिति बनाए हुए हैं।
यह दर्शाता है कि राजनीति सिर्फ वर्तमान की नहीं, बल्कि वर्षों पुरानी विरासत का खेल है।
क्षेत्रीय उदाहरण: कहां-कहां जकड़ी है वंशवाद की पकड़?
वंशवादी राजनीति का यह जाल किसी एक जिले तक सीमित नहीं है। यह बिहार के हर कोने में फैला हुआ है।
गया और नवादा: गया में जीतन राम मांझी का परिवार और नवादा में कृष्णा यादव से शुरू हुई विरासत को उनके बेटे अशोक यादव और युगल किशोर यादव का परिवार आगे बढ़ा रहा है।
जमुई: स्वतंत्रता संग्राम सेनानी कृष्णा सिंह के बेटे नरेंद्र सिंह मंत्री बने और अब पोते सुमित सिंह भी मंत्री हैं।
तीन पीढ़ियों की राजनीतिक कमान
शाहाबाद और भोजपुर: जगदानंद सिंह बक्सर से उनके बेटे सुधाकर सिंह तक और अंबिका शरण सिंह से उनके बेटे राघवेंद्र प्रताप सिंह तक-पीढ़ी दर पीढ़ी सत्ता का हस्तांतरण साफ दिखता है।
मोकामा: यह क्षेत्र बाहुबल और भाई-भतीजावाद का गढ़
सूरजभान सिंह उनकी पत्नी वीणा देवी और रिश्तेदार, वहीं बाहुबली अनंत सिंह और उनकी पत्नी नीलम देवी— यहां टिकट परिवार से बाहर शायद ही कभी किसी को मिला हो।
ADR की रिपोर्ट: बिहार में सबसे गहरी जड़ें
एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स ADR की रिपोर्ट इस बात पर मुहर लगाती है कि वंशवाद बिहार की राजनीति में कितना हावी है।
चौथा स्थान: वंशवाद की सबसे गहरी जड़ों वाले राज्यों में बिहार का स्थान देश में चौथा है, जो आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र और कर्नाटक के ठीक बाद आता है।
यह रिपोर्ट बताती है कि राज्य की राजनीति 'जनसमर्थन' के साथ-साथ 'पारिवारिक विरासत' पर भी निर्भर है। नए नेताओं को अक्सर इस पारिवारिक दीवार से टकराना पड़ता है।
लोकतंत्र पर खतरा? नए नेताओं के लिए मुश्किल हुई राह
राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि वंशवाद ने बिहार की सत्ता संरचना को न केवल निर्धारित किया है बल्कि नए, काबिल और जमीन से जुड़े कार्यकर्ताओं के लिए राजनीतिक प्रवेश को भी सीमित कर दिया है। एक आम कार्यकर्ता के लिए पार्टी का टिकट हासिल करना लगभग असंभव हो जाता है जब सामने लालू का बेटा, पासवान का बेटा या मांझी की बहू मैदान में होती है।
टिकट वितरण में योग्यता के बजाय 'वंश' को तरजीह मिलती है। यही कारण है कि बिहार में बदलाव की बात करना आसान है, लेकिन हकीकत यह है कि चुनावी गणित आज भी 'जातीय विरासत' और 'पारिवारिक दबदबा' के इर्द-गिर्द ही घूमता है।
क्या 2025 का चुनाव इस मिथक को तोड़ पाएगा, यह देखना दिलचस्प होगा।
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