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UP के राजनीति की वह कहानी जिसके अध्यक्षों ने ही पार्टी को डुबोया?

1989 से 2017 के बीच यूपी में कांग्रेस ने 10 से ज्यादा अध्यक्ष बदले, लेकिन सीटें घटती गईं। एनडी तिवारी से राज बब्बर तक, कोई भी नेता सपा-बसपा के चक्रव्यूह को तोड़ नहीं पाया। क्या गलत नीतियों ने कांग्रेस को कमजोर किया?

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Ajit Kumar Pandey
UP के राजनीति की वह कहानी जिसके अध्यक्षों ने ही पार्टी को डुबोया? | यंग भारत न्यूज

UP के राजनीति की वह कहानी जिसके अध्यक्षों ने ही पार्टी को डुबोया? | यंग भारत न्यूज Photograph: (YBN)

नई दिल्ली, वाईबीएन डेस्क । साल 1989 के बाद, यूपी कांग्रेस ने कम से कम 10 अध्यक्ष बदले, लेकिन किसी को भी सत्ता की राह नहीं मिली। बोफोर्स घोटाले से शुरू हुई अस्थिरता और क्षेत्रीय दलों सपा, बसपा के जातिगत चक्रव्यूह ने कांग्रेस को लगातार हाशिए पर धकेला। 

Young Bharat News का यह Explainer बताता है कि कैसे एनडी तिवारी, सलमान खुर्शीद और राज बब्बर जैसे बड़े नेताओं का कद भी UP विधानसभा में कांग्रेस की सीटों को इकाई से दहाई तक नहीं पहुंचा पाया। 

अध्यक्ष बदले, पर वोट शेयर नहीं 

कांग्रेस पार्टी ने उत्तर प्रदेश में अपना खोया जनाधार वापस पाने के लिए साल 1989 से 2017 के बीच लगभग हर दो से चार साल में प्रदेश अध्यक्षों को बदला। पार्टी नेतृत्व को लगा कि एक नया चेहरा, नई ऊर्जा और नई रणनीति शायद राज्य के जटिल जाति समीकरणों को तोड़ पाएगी। हालांकि, आंकड़ों और परिणामों ने इस कोशिश को लगातार विफल साबित किया। 

नीचे दिए गए तुलनात्मक विश्लेषण से यह स्पष्ट होता है कि कैसे हर नया अध्यक्ष अपनी नेतृत्व क्षमता के बावजूद, क्षेत्रीय दलों के सामने वोट शेयर और सीटों के मामले में कमजोर पड़ता गया। 

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यूपी कांग्रेस अध्यक्षकार्यकाल लगभगसंबंधित विधानसभा चुनावसीटें जीतीं 425/403 में सेवोट शेयर परसेंटमुख्य चुनावी घटनाक्रम
महावीर प्रसाद1980 के दशक के अंत तक198994340%वीपी सिंह की जनता दल का उदय, कांग्रेस की 175 सीटों की गिरावट
बलराम यादव1990-1991 संक्षिप्त19914632%राजीव गांधी की हत्या के बाद चुनाव, भाजपा का उदय कल्याण सिंह। वोट शेयर में 58% की बड़ी गिरावट।
एनडी तिवारी1991-199419932828%सपा-बसपा गठबंधन का वर्चस्व। एनडी तिवारी ने अलग पार्टी बनाई और फिर विलय किया, लेकिन सीटों पर कोई असर नहीं।
जितेंद्र प्रसाद1994-19981996338%भाजपा-बसपा गठबंधन। कांग्रेस ने केवल 126 सीटों पर चुनाव लड़ा बसपा के साथ गठबंधन की कोशिश। वोट शेयर इकाई में आया।
सलमान खुर्शीद1998-2000कोई विधानसभा चुनाव नहीं--कल्याण सिंह की सरकार को बचाने के लिए कांग्रेस में टूट।
श्रीप्रकाश जायसवाल2000-2002 —20022525%बसपा-भाजपा गठबंधन की वापसी। कांग्रेस लगातार 30 सीटों से नीचे।
अरुण कुमार सिंह 'मुन्ना'/जगदंबिका पाल2002-2004 संक्षिप्तकोई विधानसभा चुनाव नहीं--केंद्र में यूपीए सरकार बनने के बाद भी प्रदेश में कोई खास असर नहीं।
सलमान खुर्शीद दोबारा2004-200720072222%बसपा को पूर्ण बहुमत। कांग्रेस का प्रदर्शन सबसे निचले स्तर पर।
रीता बहुगुणा जोशी2007-201220122835%सपा को पूर्ण बहुमत अखिलेश यादव सीएम। जोशी के कार्यकाल में थोड़ी वृद्धि, पर सत्ता से दूर।
निर्मल खत्री2012-20162014 लोकसभा25%केंद्र में मोदी लहर। कांग्रेस के लिए सबसे निराशाजनक प्रदर्शन।
राज बब्बर2016-20192017725%सपा के साथ गठबंधन 105 सीटों पर चुनाव लड़ा। पार्टी का अब तक का सबसे कम वोट शेयर। 


स्रोत: 
चुनावी रिकॉर्ड और राजनीतिक विश्लेषणों पर आधारित सारणी।

क्यों फेल हुए ये दिग्गज नेता? जानें बड़े कारण 

कांग्रेस के हर अध्यक्ष के पास अपना राजनीतिक अनुभव और जनाधार था, लेकिन यूपी की राजनीतिक जमीन पर वे सफल नहीं हो पाए। इसके पीछे के प्रमुख कारण समझने जरूरी हैं। 

डोमिनेंट कास्ट: डेमोक्रेसी प्रभावी जाति-आधारित लोकतंत्र का चक्रव्यूह जैसा कि पहले बताया गया है, 1989 के बाद यूपी की राजनीति का केंद्र बिंदु जाति बन गया। 

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सपा: मुस्लिम+यादव M-Y समीकरण पर मजबूत हुई। 

बसपा: दलित SC वोटों की मजबूत दावेदार बनी। 

भाजपा: मंडल की राजनीति के बाद हिंदुत्व और गैर-यादव OBC/गैर-जाटव दलितों को साधने में सफल हुई। 

कांग्रेस की दुविधा: कांग्रेस के अध्यक्ष महावीर प्रसाद दलित, एनडी तिवारी ब्राह्मण, सलमान खुर्शीद मुस्लिम, और रीता बहुगुणा जोशी ब्राह्मण जैसे अलग-अलग जाति के थे, लेकिन वे किसी भी जाति के मजबूत रहनुमा नहीं बन पाए। वे न तो सपा-बसपा जितना मजबूत जातिगत आधार बना सके, और न ही भाजपा की तरह कोई बड़ा ध्रुवीकरण कर पाए। 

नेतृत्व का अस्थिर और छोटा कार्यकाल 

जैसा कि टेबल में स्पष्ट है कि 1990 से 2007 के बीच, कोई भी अध्यक्ष 3 साल से ज्यादा पद पर नहीं रह पाया। नेताओं को संगठन को समझने, स्थानीय कैडर को एकजुट करने और एक लंबी रणनीति बनाने के लिए पर्याप्त समय नहीं मिला। बार-बार नेतृत्व बदलने से स्थानीय स्तर पर यह संदेश गया कि पार्टी में स्थिरता और दिशा की कमी है। 

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जैसे ही चुनाव में खराब प्रदर्शन होता था, केंद्रीय नेतृत्व नए चेहरे की तलाश में लग जाता था, जिससे संगठन और कमजोर होता गया। 

जगदंबिका पाल का संक्षिप्त कार्यकाल हो या अरुण कुमार सिंह मुन्ना का 331 दिनों का कार्यकाल, इन 'ट्रायल एंड एरर' की राजनीति ने कैडर को निराश किया। 

गठबंधन की गलत नीतियां और आत्मसमर्पण 

कांग्रेस ने अपनी कमजोरी को स्वीकार कर क्षेत्रीय दलों के साथ गठबंधन किया, लेकिन यह कदम भी घातक साबित हुआ। 

1996 में बसपा के साथ प्रयास: कांग्रेस ने केवल 126 सीटों पर चुनाव लड़ा और उसका वोट शेयर गिरकर 35% हो गया। इससे कांग्रेस का कैडर क्षेत्रीय दलों के हाथों में चला गया। 

2017 में सपा के साथ गठबंधन:राज बब्बर के कार्यकाल में सपा के साथ गठबंधन करके कांग्रेस ने केवल 105 सीटों पर चुनाव लड़ा, लेकिन उसे सिर्फ 7 सीटें मिलीं और वोट शेयर गिरकर 25% हो गया। 

गठबंधन का नुकसान: हर गठबंधन में कांग्रेस ने अपनी सीटें और चुनावी मैदान क्षेत्रीय दलों के लिए छोड़ दिए, जिससे संगठन का जमीनी संपर्क और टूट गया। उसका कैडर और वोट बैंक गठबंधन के सहयोगी दलों की तरफ स्थानांतरित हो गया। 

उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की वापसी तभी संभव है जब वह इन विफलताओं को सुधारे स्थिर और मजबूत नेतृत्व प्रियंका गांधी वाड्रा को यूपी में लगातार समय देना होगा और क्षेत्रीय नेताओं को मजबूत करना होगा। 

राजनीति का विकल्प: कांग्रेस को 'कास्ट' के बदले 'क्लास' वर्ग की राजनीति पर ध्यान केंद्रित करना होगा, जिसमें रोजगार, स्वास्थ्य और शिक्षा जैसे मुद्दे प्रमुख हों।

संगठन का पुनर्निर्माण: जमीन से जुड़े, समर्पित कार्यकर्ताओं को वापस लाकर संगठन को मजबूत करना, न कि सिर्फ मीडिया में दिखने वाले बड़े नाम पर निर्भर रहना। 

युवा नेतृत्व: कांग्रेस पार्टी को युवाओं और महिलाओं को नेतृत्व की कमान देनी होगी साथ ही उन्हें समय भरपूर देना होगा ताकि वह संगठन को खड़ा कर सकें।

यूपी कांग्रेस की यह कहानी नेताओं की नहीं, बल्कि उस डोमिनेंट कास्ट डेमोक्रेसी की जीत है, जिसके सामने भारत की सबसे पुरानी पार्टी आज तक कोई ठोस और टिकाऊ रणनीति नहीं बना पाई है। 

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