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CIA और कांग्रेस के बीच पैसे के लेनदेन को दर्शाते हुए गोपनीय दस्तावेज और अखबार की कतरनें | यंग भारत न्यूज Photograph: (Google)
नई दिल्ली, वाईबीएन डेस्क । खुफिया दस्तावेजों ने खोले सनसनीखेज राज! क्या कांग्रेस पार्टी को CIA से मिला था पैसा? इंदिरा गांधी का निक्सन को पत्र और 1979 का वो राज्यसभा डिबेट, जो भारत की राजनीति में भूचाल ले आया था। सोवियत संघ और अमेरिका, दोनों का भारत में दखलंदाजी का खुलासा, और वो कौन था RAW एजेंट, जो CIA का भी मोहरा बन गया था? इन गंभीर सवालों के जवाब आपको अंदर तक झकझोर देंगे।
भारत की राजनीति का एक ऐसा काला अध्याय, जो आज भी कई रहस्यों में लिपटा हुआ है। क्या आपने कभी सोचा है कि एक समय हमारी देश की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी, कांग्रेस, पर विदेशी ताकतों से पैसे लेने का आरोप लगा था? जी हाँ, ये कोई अफवाह नहीं, बल्कि गोपनीय दस्तावेजों और राज्यसभा के रिकॉर्ड्स से सामने आया एक चौंकाने वाला सच है। आज हम आपको उन अनसुने पहलुओं से रूबरू कराएंगे, जो आपको अंदर तक हिला देंगे।
निक्सन और किसिंजर की 'गुप्त' बातें: $300 मिलियन का ऑफर!
बात 1972 की है, जब भारत और अमेरिका के संबंध एक नाजुक मोड़ पर थे। तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन और उनके राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार हेनरी किसिंजर के बीच हुई एक फोन वार्तालाप से पता चलता है कि अमेरिका भारत को लगभग $300 मिलियन की 'सहायता' देने की बात कर रहा था। इस बातचीत में 'कीटिंग' नाम के व्यक्ति का जिक्र आता है, जो संभवतः अमेरिकी राजदूत थे। यह वार्तालाप दिखाता है कि अमेरिका भारत को सोवियत संघ के प्रभाव से दूर रखने के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार था।
CIA का पैसा कांग्रेस के पास
— Dr Nishikant Dubey (@nishikant_dubey) July 1, 2025
आयरन लेडी इंदिरा गांधी जी ने आयरन पिघलने के बाद यानि शिमला समझौते में पाकिस्तान के आगे सरेंडर करने के बाद अमेरिकी राष्ट्रपति निक्सन को पत्र के जबाब के ज़रिए सम्बन्ध बनाने का आग्रह किया
1. अमेरिकी राष्ट्रपति निक्सन और किशिंगर का फ़ोन वार्तालाप जिसमें… pic.twitter.com/kIUdQxCsmd
इंदिरा गांधी का पत्र: क्या 'आयरन लेडी' ने झुकाया था सर?
1971 के युद्ध में पाकिस्तान पर ऐतिहासिक जीत के बाद, 28 नवंबर 1972 को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने अमेरिकी राष्ट्रपति निक्सन को एक पत्र लिखा। इस पत्र में इंदिरा गांधी ने "स्थायी शांति के लिए एक नई संरचना के निर्माण" और "मानवता के यातनापूर्ण इतिहास में एक गौरवशाली अध्याय" जोड़ने की बात की। उन्होंने मित्रता और समझदारी के आधार पर संबंधों को मजबूत करने की इच्छा व्यक्त की।
यह पत्र, एक तरफ तो भारत की शांतिप्रिय नीति को दर्शाता है, लेकिन दूसरी तरफ, कुछ लोगों का मानना है कि यह 1971 के शिमला समझौते के बाद, जब भारत ने पाकिस्तान के 90,000 युद्धबंदियों को बिना किसी बड़ी शर्त के वापस कर दिया था, अमेरिका से संबंध सुधारने की एक कोशिश थी। क्या यह 'आयरन लेडी' का एक रणनीतिक कदम था, या अमेरिकी दबाव का परिणाम? इस पर बहस आज भी जारी है।
राज्यसभा का वो तूफानी डिबेट: CIA का पैसा और FERA का उल्लंघन
10 मई 1979, भारतीय संसद के इतिहास में एक महत्वपूर्ण दिन था। राज्यसभा में तत्कालीन गृह मंत्री एच.एम. पटेल ने एक तूफानी बहस के दौरान चौंकाने वाले खुलासे किए। उन्होंने अमेरिका के भारत में राजदूत डैनियल पैट्रिक मोयनिहान की किताब का हवाला देते हुए बताया कि CIA ने कांग्रेस पार्टी को दो बार पैसा दिया था।
पहला मौका: केरल में कम्युनिस्ट पार्टी को चुनाव में हराने के लिए।
दूसरा मौका: लोकसभा चुनाव लड़ने के लिए।
पटेल ने स्पष्ट रूप से कहा कि यह विदेशी मुद्रा विनियमन अधिनियम (FERA) का घोर उल्लंघन था, जो आज के PMLA (धन शोधन निवारण अधिनियम) जैसा था। यह आरोप इतना गंभीर था कि इसने पूरे देश में हड़कंप मचा दिया।
क्या यह सिर्फ एक राजनीतिक आरोप था, या इसमें सच्चाई थी? पटेल के बयान ने कांग्रेस की साख पर गहरा सवाल खड़ा कर दिया।
रवींद्र सिंह: RAW का एजेंट या CIA का मोहरा?
इस पूरे प्रकरण में एक नाम और उभर कर आता है - रवींद्र सिंह। रवींद्र सिंह भारतीय खुफिया एजेंसी RAW के एक वरिष्ठ अधिकारी थे। लेकिन कुछ रिपोर्टों और दस्तावेजों से पता चलता है कि वह CIA के लिए भी काम कर रहे थे। 2004 में, रवींद्र सिंह रहस्यमय तरीके से भारत से गायब हो गए और बाद में पता चला कि वह अमेरिका भाग गए थे।
सवाल यह उठता है कि क्या कांग्रेस सरकार ने रवींद्र सिंह को अमेरिका भागने में मदद की थी? क्या वह ऐसे राज जानता था जो सरकार के लिए परेशानी का सबब बन सकते थे? 2005 से 2014 तक, भारत सरकार ने रवींद्र सिंह को भारत वापस लाने के लिए अमेरिका से बातचीत क्यों नहीं की? इन सवालों के जवाब आज भी अनसुलझे हैं।
सोवियत संघ और अमेरिका: भारत में किसका खेल?
यह सिर्फ अमेरिका का खेल नहीं था। सोवियत संघ भी भारत की राजनीति में सक्रिय रूप से शामिल था। दस्तावेजों से पता चलता है कि सोवियत संघ भारत में नेताओं, पत्रकारों, नौकरशाहों और व्यापारियों को पैसे दे रहा था ताकि वह अपने हितों को साध सके।
सोवियत संघ भारत को अपना एक महत्वपूर्ण सहयोगी मानता था, खासकर शीत युद्ध के दौरान। वे भारत में अपने प्रभाव को बनाए रखने के लिए हर संभव प्रयास कर रहे थे। दूसरी ओर, अमेरिका सोवियत प्रभाव को कम करने और भारत को पश्चिमी खेमे में लाने की कोशिश कर रहा था।
भारत एक ऐसी रणभूमि बन गया था, जहाँ दो महाशक्तियाँ अपने-अपने मोहरे चल रही थीं। यह स्थिति भारत की संप्रभुता और स्वतंत्रता पर एक बड़ा सवाल खड़ा करती है।
कांग्रेस पर विश्वास का सवाल: क्या देश को फिर भरोसा करना चाहिए?
इन सभी खुलासों के बाद सबसे बड़ा सवाल यह उठता है कि क्या कांग्रेस पार्टी पर देश विश्वास कर सकता है? जब देश को यह पता चलता है कि उसकी एक प्रमुख राजनीतिक पार्टी विदेशी ताकतों से पैसे ले रही थी, तो यह नागरिकों के भरोसे को तोड़ देता है।
यह सिर्फ एक पार्टी का मामला नहीं है, बल्कि यह भारतीय लोकतंत्र की नींव पर एक आघात है। क्या हमारी राजनीतिक पार्टियाँ वास्तव में देश के हित में काम कर रही हैं, या वे विदेशी एजेंडा का हिस्सा बन रही हैं?
क्या इतिहास खुद को दोहराएगा?
आज भी, जब हम अंतर्राष्ट्रीय संबंधों और घरेलू राजनीति पर नज़र डालते हैं, तो यह सवाल उठता है कि क्या आज भी ऐसी शक्तियां सक्रिय हैं जो हमारी राजनीति को प्रभावित कर रही हैं? क्या हम इतिहास से कुछ सीख रहे हैं?
यह जरूरी है कि हम इन सवालों के जवाब खोजें और अपनी लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं को मजबूत करें ताकि कोई भी विदेशी ताकत हमारे देश के भविष्य के साथ खिलवाड़ न कर सके।
इन सभी दस्तावेजों और घटनाओं से एक बात स्पष्ट है कि भारत की राजनीति में विदेशी दखलंदाजी एक कटु सत्य रहा है। चाहे वह CIA का पैसा हो या सोवियत संघ का प्रभाव, भारतीय राजनीति का एक हिस्सा हमेशा इन बाहरी शक्तियों के प्रभाव में रहा है। यह हमारे लिए एक सबक है कि हमें अपने लोकतंत्र को मजबूत करना होगा और यह सुनिश्चित करना होगा कि देश का भविष्य केवल और केवल भारतीय जनता के हाथों में हो।
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