प्रकृति चित्रण के अमर गायक सुमित्रतानंदन पंत ने अपनी कविताओं में प्रकृति, मानव भावनाओं और दार्शनिक चिंतन को बेहतर तरीके से पिरोया है। छायावादी युग के चार कवियों में से एक पंत ने अपनी रचनात्मकता और काव्यशैली से हिंदी कविता को नई ऊंचाई दी। पहाड़ों की गोद में बचपन गुजारने वाले पंत की कविता में प्रकृति के प्रति उनके गहरे लगाव की झलक मिलती है।
पहाड़ की गोद में बीता कवि का बचपन
20 मई 1900 को उत्तराखंड के अल्मोड़ा जिले के कौसानी में एक साधारण ब्राह्मण परिवार में जन्म लेने वाले सुमित्रानंदन पंत का बचपन मां के अभाव में बीता। उनके जन्म के कुछ घंटों बाद ही उनकी मां दिवंगत हो गईं । पिता की ओर से उन्हें गुसाईं दत्त नाम मिला था, लेकिन बाद में उन्होंने सुमित्रानंदन पंत नाम अपना लिया। कौसानी के जिस प्राकृतिक परिवेश में वे पले बढ़े उसकी छाप उनकी कविताओं पर दिखती है। वहां की प्राकृतिक सुंदरता, हिमालय की बर्फीली चोटियां, घने जंगल और फूलों की वादियां, उनके काव्य का प्रेरणा स्रोत बन गईं। संभवत: इसी प्राकृतिक सौंदर्य ने पंत को सात वर्ष की उम्र में ही काव्य रचना की ओर प्रेरित कर दिया था।
सात वर्ष की उम्र में लिखी थी पहली कविता
उनकी पहली रचना 1916 में सामने आई। गिरजे का घंटा शीर्षक अपनी पहली कविता के बाद पंत निरंतर लिखते रहे। इलाहाबाद विश्वविद्यालय के म्योर कालेज में उन्होंने 1919 में दाखिला लिया और इसके बाद उनकी काव्यात्मक रुचि और विकसित होती गई। 1921 में महात्मा गांधी के आह्वान पर कालेज छोड़ वह स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल हो गए। लेकिन अपनी कोमल प्रकृति के कारण वह सत्याग्रह में उतनी सक्रियता से भाग नहीं ले पाए और फिर से काव्य रचना की तरफ मुड़ गए।
रचनात्मकता और काव्यशैली
छायावाद के चार प्रमुख कवियों जयशंकर प्रसाद, महादेवी वर्मा, सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ और सुमित्रानंदन पंत माने गए हैं। पंत की प्रारंभिक रचनाएं, वीणा और पल्लव प्रकृति के सौंदर्य और प्रेम की कोमल अनुभूतियों से भरी हैं। उनकी कविता 'पार्वती' में हिमालय की पुत्री का रूपक मानवीय सौंदर्य और आध्यात्मिकता का प्रतीक बनता है। उनकी भाषा सरल, लयबद्ध और चित्रमय थी, जो पाठक के मन में दृश्य उकेर देती थी।
मार्क्सवाद का अध्ययन किया
1939 में कालाकांकर आकर पंत ने मार्क्सवाद का अध्ययन किया। छायावाद के बाद उनकी कविता में इसकी छाप दिखती है। प्रयाग आकर पंत ने प्रगतिवादी पत्रिका रूपाभा का संपादन किया था। युगवाणी और ग्राम्या जैसी रचनाओं में उन्होंने सामाजिक असमानता, श्रमिकों की पीड़ा और गांवों की वास्तविकता को उकेरा। उनकी कविता 'भारतमाता ग्रामवासिनी' में भारत की आत्मा को ग्रामीण जीवन में देखा जाता है।
जीवन की अनुभूतियां और प्रभाव
पंत का जीवन सादगी और चिंतन से भरा था। मां की मृत्यु और अकेलेपन ने उनकी कविताओं में करुणा और संवेदनशीलता भरी। बनारस में पढ़ाई के दौरान वे स्वतंत्रता संग्राम से प्रभावित हुए, जिसका असर उनकी प्रगतिवादी कविताओं में दिखता है। इलाहाबाद में साहित्यिक मित्रों प्रसाद, निराला और महादेवी के साथ समय ने उनकी रचनात्मकता को और निखारा।
अविवाहित रहे पंत
उनका व्यक्तिगत जीवन प्रेम और आध्यात्मिक खोज से भरा था। वे कभी विवाह नहीं किए, पर उनकी कविताओं में प्रेम की गहन अनुभूति दिखती है, जो शायद प्रकृति और ईश्वर के प्रति थी। बाद के वर्षों में, वे श्री अरविंद के दर्शन से प्रभावित हुए और आध्यात्मिकता उनकी कविता का केंद्र बनी। उनकी कविता 'स्वर्णकिरण' में सूर्य के प्रकाश को आत्मा की जागृति का प्रतीक बनाया गया।
उपलब्धियां और पुरस्कार
कला और बूढ़ा चांद के लिए पंत को साहित्य अकादमी पुरस्कार से नवाजा गया। लोकायतन पर सोवियत पुरस्कार और चिदंबरा के लिए उन्हें ज्ञानपीठ से सम्मानित किया गया। 28 दिसंबर 1977 को साहित्य के इस कालजयी रचनाकार का निधन हो गया।