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"जब एक जवान ने PAK मेजर का सिर कलम कर तिरंगा फहराया — पढ़ें वो शौर्यगाथा जो आपका खून खौला देगी!"

तोलोलिंग की वो रात थी जब भारतीय जवानों ने असंभव को संभव कर दिखाया। 90 जवान, 10,000 बमों की बारिश, और एक पहाड़ पर लहराता तिरंगा — लेकिन उससे पहले एक भारतीय शेर ने पाकिस्तानी मेजर का सिर कलम कर दिया था। एक ऐसी शौर्यगाथा जिसे जानकर आपका खून खौल उठेगा।

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Ajit Kumar Pandey

"जब एक जवान ने PAK मेजर का सिर कलम कर तिरंगा फहराया — पढ़ें वो शौर्यगाथा जो आपका खून खौला देगी!" | यंग भारत न्यूज Photograph: (Google)

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नई दिल्ली, वाईबीएन डेस्क । आज शनिवार 25 जुलाई 2025 को कारगिल युद्ध में भारत की शानदार जीत को 21 साल पूरे हो गए हैं। साल 1999 में, भारतीय सेना ने पाकिस्तान की घुसपैठ को मुंहतोड़ जवाब दिया और उन्हें भागने पर मजबूर कर दिया। भारतीय सेना के शौर्य और बोफोर्स तोपों की गर्जना ने पाकिस्तान को आज भी डरा रखा है। इस युद्ध का कारण पाकिस्तानी सेना की एक नापाक साजिश थी।

सर्दियों में खाली पड़े बंकरों पर पाकिस्तान ने कब्जा कर लिया था। पाकिस्तानी सैनिक घुसपैठियों के भेष में नियंत्रण रेखा (LoC) पार कर भारतीय चोटियों पर भारी हथियारों के साथ बैठ गए थे। पाकिस्तान का मकसद 1971 के युद्ध में भारत द्वारा जीते गए हिस्सों पर कब्जा करना और शिमला समझौते को तोड़ना था, लेकिन भारतीय जांबाज़ों ने बेहद मुश्किल लड़ाई लड़ी। आइए, जानते हैं इस कारगिल युद्ध की पूरी कहानी, जिसमें हमारे वीर सैनिकों ने हर दिन, हर रात, एक-एक पहाड़ी से पाकिस्तानी घुसपैठियों को खदेड़ कर तिरंगा फहराया।

भारत-पाक नियंत्रण रेखा के पास बसे एक छोटे से पहाड़ी गांव गरकौन में एक चरवाहा, ताषी नामग्याल, अपनी याक को खोजते हुए ऊंची पहाड़ियों में दूरबीन से देखने लगा। उसे वहां पाकिस्तानी घुसपैठ के निशान मिले। भौचक्का ताषी पहाड़ से नीचे उतरा और पास के एक सैनिक को इसकी सूचना दी। सैनिक ने ताषी की पीठ थपथपा कर तुरंत अपने कैंप की ओर दौड़ लगा दी। हवलदार का चेहरा चिंता और तनाव से भर गया था।

4 और 5 मई की दरमियानी रात में, सेना के गश्ती दल ने बटालिक क्षेत्र के कुकरथांग के पास भी ऐसी ही हरकतें देखीं, जिससे उनके रोंगटे खड़े हो गए। ऊंची चोटियों से घिरा यह इलाका सियाचिन ग्लेशियर के पीछे और आतंक से जूझती घाटी के आगे है। मशकोह से बटालिक के बीच फैले 120 किलोमीटर के दायरे में द्रास, काश्कर, बटालिक, मश्कोह घाटी जैसे अहम इलाके हैं।

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इसी इलाके में कारगिल से उत्तर की ओर अस्सी किलोमीटर के दायरे में तोलोलिंग पॉइंट 4590, पॉइंट 5100, पॉइंट 4268, पॉइंट 5140, थ्री पिंपल्स, जुबार हिल और टाइगर हिल जैसी चोटियां हैं, जो पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर (POK) की तरफ ढलवां और भारत की तरफ बिल्कुल सीधी खड़ी हैं। यह हिस्सा बेहद संवेदनशील और रणनीतिक महत्व वाला है।

दिल्ली में हलचल और रक्षा मंत्री को जानकारी (6-8 मई 1999)

कारगिल की चोटियों का गुपचुप रहस्य अब दिल्ली के गलियारों में दस्तक दे रहा था। तत्कालीन रक्षा मंत्री जॉर्ज फर्नांडीस को कारगिल में चल रही उठापटक की जानकारी 6 मई 1999 को दे दी गई। दिल्ली ने कारगिल की तनाव बढ़ाने वाली खबर पर मजबूती की पुख्ता मुहर लगाने की बात कही।

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8 मई 1999: कारगिल का द्रास इलाका

इन गगनचुंबी पहाड़ियों में भारत के खिलाफ एक बेहद संगीन साजिश ने बंकर बना लिए थे। इन्हीं बंकरों की हरकतों ने कारगिल को अजीब सी सनसनी से भर दिया था, जिसकी हलचल ने दिल्ली की रायसीना हिल्स में भूचाल ला दिया था। कारगिल पर हुई पाकिस्तान की यह घुसपैठ कितनी बड़ी थी, इसका जायजा लेने के लिए सेना की कई टुकड़ियां उस इलाके में भेजी गईं। पूरी सावधानी के साथ सेना के जवान इलाके में चल रही दुश्मन की हरकतों को भांपने के लिए घुसे।

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"जब एक जवान ने PAK मेजर का सिर कलम कर तिरंगा फहराया — पढ़ें वो शौर्यगाथा जो आपका खून खौला देगी!" | यंग भारत न्यूज Photograph: (Google)
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पाकिस्तानी हमला और सौरभ कालिया की शहादत (9-14 मई 1999)

सेना की बढ़ती गतिविधियों को देखकर घुसपैठिए सतर्क हो गए। उन्होंने यह बात अपने आकाओं को इस्लामाबाद में बताई। अपनी ओर बढ़ते खतरे से डरकर, घुसपैठ को मजबूती देने के लिए, पाकिस्तान की ओर से तोप के गोले कारगिल जिला मुख्यालय में बने सेना के आयुध भंडार में गिरे। पूरा गोला-बारूद डिपो जलकर खाक हो गया, जिससे लगभग 100 करोड़ रुपये का नुकसान हुआ। दुश्मन को लगा कि अगर इतना गोला-बारूद लेकर सेना दौड़ पड़ी तो महीनों की मेहनत मिनटों में ध्वस्त हो जाएगी।

12 मई: कारगिल

अब तक दिल्ली को इस्लामाबाद के इरादों का ऐतबार हो चुका था। 12 से 14 मई 1999 के बीच, रक्षा मंत्री ने उत्तरी कमान के जनरल ऑफिसर कमांडिंग इन चीफ लेफ्टिनेंट जनरल एच.एम. खन्ना और 15वीं कोर के कमांडर लेफ्टिनेंट जनरल कृष्णपाल के साथ इलाके का दौरा किया। लेफ्टिनेंट जनरल कृष्णपाल ने उन्हें घुसपैठियों की पूरी घटना से वाकिफ करवाया और प्रधानमंत्री को भी पूरी जानकारी दे दी।

14 मई 1999: काकसर क्षेत्र, कारगिल

भारत घुसपैठियों की ताकत और स्थिति का अंदाजा लगाने के लिए लगातार टोही दल भेज रहा था। ऐसी ही एक गश्त में कैप्टन सौरभ कालिया अपने साथियों अर्जुन राम, भंवर लाल बघेरिया, बीकाराम, मूलाराम और नरेश सिंह के साथ नियंत्रण रेखा पर काफी आगे चले गए। पूरे दिन की गश्त के बाद रात को हमले की योजना बनाकर वे आराम कर रहे थे, तभी जाट रेजीमेंट के इन अफसरों और जवानों का अपहरण पाकिस्तानी सैनिकों ने कर लिया। उन्हें बर्बर यातनाएं दी गईं, उनकी आंखें निकाल ली गईं और फिर गले काट दिए गए।

सौरभ लेफ्टिनेंट से कैप्टन बनने के बाद अपना पहला वेतन भी नहीं ले पाए थे। आखिरी चिट्ठी में उन्होंने लिखा था कि वह दुश्मन को हराकर ही अपनी सैलरी लेंगे और तभी घर आएंगे। 9 जून को, कारगिल की चौकी नंबर 43 पर लेफ्टिनेंट सौरभ कालिया और उनके पांच जवानों के शव पाकिस्तान ने भारत को सौंपे। युद्ध अपराध के सबूत इन शवों को देखकर अच्छे-अच्छे युद्धवीरों की आंख से आंसू टपक गए।

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सामरिक स्थिति और पाकिस्तान के मंसूबे

इस बीच, पाकिस्तान की तरफ से कारगिल प्रशासन के सुरू में बने नए मुख्यालय पर तोप के गोले बरसे। हमला हमेशा बेहद अहम जगह पर हो रहा था और बेहद सटीक, मानो भारत में बैठकर कोई पाकिस्तान में जानकारी भेज रहा हो। हालात नाजुक देख भारत ने भी अहम जगहों पर बड़ी तोपें तैनात कर दीं। इसके अलावा, पाक हमले की सही जानकारी के लिए टोही विमान उड़ाए गए और ज्यादा पेट्रोल पार्टियां रवाना की गईं।

पता चला कि मशकोह से बटालिक के बीच फैले 120 किलोमीटर के दायरे में घुसपैठियों ने कई जगह पर अपने बंकर बना लिए थे। द्रास, काश्कर, बटालिक, मश्कोह में 10 किलोमीटर भीतर तक घुस आए थे घुसपैठिए। कारगिल से उत्तर की ओर 80 किलोमीटर के क्षेत्र में आतंकियों ने ऊंची पहाड़ियों पर अड्डे बना लिए थे। इनके निशाने पर था लेह-श्रीनगर राष्ट्रीय राजमार्ग।

यह राजमार्ग रणनीतिक महत्व का था, क्योंकि इसे बंद करके पाकिस्तान सर्दियों में लद्दाख को जाने वाली आपूर्ति रोक सकता था। द्रास और कारगिल पर कब्जा करके उसे नियंत्रण रेखा खुलवाने के लिए इस्तेमाल कर सकता था। चुघ घाटी, बटालिक और तुर्तुक क्षेत्र की पहाड़ियों पर कब्जा करके भारत को सियाचिन से पीछे हटने पर मजबूर कर सकता था। कारगिल के पास मश्कोह घाटी के नालों पर कब्जा करके वहां से ताजा घुसपैठ के लिए रास्ते बना सकता था।

लेकिन सबसे बड़ा मंसूबा था नियंत्रण रेखा को बदलने और शिमला समझौते को दफन करके कश्मीर को फिर से अंतर्राष्ट्रीय मंच पर लाने का। अगर पाकिस्तान अपने इरादों पर सफल होता तो....

  • लेह-श्रीनगर राजमार्ग पर रणनीतिक कब्जा जमाकर लेह को श्रीनगर से काट देता।
  • सियाचिन ग्लेशियर में भारतीय सेना फंस जाती।
  • समूची नियंत्रण रेखा पर सवाल खड़े हो जाते।
  • पाकिस्तान 1972 में भारत के हिस्से आए क्षेत्रों पर फिर काबिज हो जाता।
  • कश्मीर घाटी में आतंकियों के हौसले बुलंद कर पाकिस्तान कश्मीर समस्या को फिर से अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अहम बना देता।
  • और इस घुसपैठ से उसे वह सफलता मिलती, जिसे वह 50 साल में तीन युद्ध लड़कर भी नहीं पा सका था।

एयर स्ट्राइक का निर्णय और ऑपरेशन विजय की शुरुआत (19-26 मई 1999)

बेहद ऊंचाई पर बैठे दुश्मन की स्थिति इतनी सही थी कि ऊंचाई पर बैठे 10 घुसपैठिए 1000 सैनिकों की टुकड़ी पर भारी पड़ते थे, और अगर उनके पास भारी तादाद में मशीनगन, हल्की तोपें, एंटी-एयरक्राफ्ट गन और स्ट्रिंगर मिसाइल हों तो खतरा बहुत बढ़ गया था। ऐसे में जमीनी लड़ाई सैनिकों की बलि चढ़ाते जाने से ज्यादा कुछ साबित नहीं होती। लिहाजा अब घुसपैठियों को उनकी मांद में ही मार गिराने का एक ही तरीका था और वह थी एयर स्ट्राइक। पर इसमें एक खतरा था कि इससे जवाबी कार्रवाई युद्ध के दायरे में पहुंच जाती।

थलसेना प्रमुख विदेशी दौरे पर थे, लिहाजा उप थलसेना प्रमुख चंद्रशेखर ने साथियों से बातचीत कर हवाई हमले की मदद लेने का फैसला कर लिया। 1947 और 1965 की लड़ाई में भी वायुसेना ने कश्मीर इलाके में निर्णायक दखल दिया था पर सुरक्षा मामलों की कैबिनेट समिति (CCS) ने शुरुआती दौर में वायुसेना के इस्तेमाल की सिफारिश ठुकरा दी। 21 मई को भारतीय विदेश मंत्रालय ने बयान जारी किया, जिसमें पाकिस्तानी घुसपैठ का ब्योरा था और पाकिस्तान से शिमला समझौते पर कायम रहने की बात कही गई थी।

21 मई को ही थलसेना प्रमुख वी.पी. मलिक देश लौट आए। 23 मई को उन्होंने खुद इलाके का दौरा किया। वहां से लौटने के बाद उन्होंने 24 मई को तत्कालीन वायुसेना प्रमुख ए.वाई. टिपणिस को सीधा सैन्य कार्रवाई निदेशालय के ऑपरेशन रूम में बुला लिया।

24 मई: नई दिल्ली

24 मई को ही रात साढ़े दस बजे नवाज शरीफ ने प्रधानमंत्री वाजपेयी को फोन किया। लाहौर में मियां नवाज से घुलमिलकर मिलने वाले वाजपेयी की आवाज से गर्मजोशी गायब थी। दस मिनट की बातचीत में उन्होंने नवाज शरीफ को बहुत अच्छी तरह समझा दिया कि लाहौर की बस के कारगिल पहुंचने का अंजाम क्या है। उन्होंने दो टूक कह दिया कि पहाड़ियों से घुसपैठियों को पीछे हटाओ वरना भारत अपनी सुरक्षा के लिए कुछ भी करेगा। फोन कटा और वाजपेयी जी सो गए।

25 मई 1999: 7 RCR, प्रधानमंत्री आवास, नई दिल्ली

25 मई की सुबह, अटल बिहारी वाजपेयी एक निर्णय के साथ उठे। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (NDA) जयललिता के नखरों से बेहद परेशान था, और देश पर कारगिल का संकट था। CCS बैठक में वाजपेयी ने हवाई हमले के आदेश पर मुहर लगा दी। 26 को वाजपेयी जी पांडिचेरी में थे और वायुसेना प्रमुख टिपणिस चुपचाप कश्मीर के हवाई ठिकानों की टोह ले रहे थे। इधर, वाजपेयी जी ने पत्रकारों को सियासी सवाल के जवाब में कारगिल में घुसपैठ की खबर थमा दी तो उधर टिपणिस ने हवाई हमले का बटन दबा दिया। वाजपेयी ने कारगिल घुसपैठ की बात से NDA से जयललिता के अलगाव को ठंडा कर दिया, तो एयर चीफ टिपणिस के आदेश ने चोटी पर बैठे घुसपैठियों को।

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श्रीनगर, पठानकोट एयरबेस

श्रीनगर और पठानकोट से उड़ान भरकर मिग-21 और 27 के साथ एमआई-17 हेलिकॉप्टरों ने द्रास के करीब पॉइंट 4590 चोटी पर हमला किया। दोपहर से पहले बटालिक क्षेत्र में दूसरा हमला किया गया। तो दूसरी ओर पहाड़ियों के नीचे थल सेना की एक डिवीजन के साथ तोपखाने की तैनाती ने विवाद को गंभीर कर दिया। सेना अपनी कार्रवाई और तैनाती को लेकर बहुत सतर्क भी थी।

औपचारिक तौर पर ऑपरेशन विजय प्रारंभ हो गया, और इसके साथ ही वायुसेना का ऑपरेशन सफेद सागर भी। बावजूद इसके, हवा और जमीन पर ज्यादा साहस का परिचय खतरनाक हो सकता था। जमीन पर तुर्तुक और मश्कोह घाटी में ज्यादा सक्रियता का मतलब था सीमा पर पाक फौजों को जमा होने की वजह देना जो कि घुसपैठियों के लिए बहुत अच्छा सपोर्ट बनता। और आसमान में अगर विमान ज्यादा साहसिक होते तो 1965 के हालात पैदा हो सकते थे, जबकि पाकिस्तान ने भारतीय वायुसेना के मामूली प्रयोग के जवाब में भीषण हवाई हमला कर दिया था।

हवाई हमले में नुकसान और पलटवार (27-28 मई 1999)

27 मई भारतीय हवाई हमले की रणनीति के लिए बेहद घातक बनकर आई, पर इस तारीख से बड़ा सबक भी मिला। फ्लाइट लेफ्टिनेंट नचिकेता ने मिग-27 से उड़ान भरी, पर उनके मिग विमान को पहाड़ियों के ऊपर से चलाई गई स्टिंगर मिसाइल से मार गिराया गया। फ्लाइट लेफ्टिनेंट नचिकेता इजेक्ट होकर पैराशूट के सहारे नीचे उतरे तो वह नियंत्रण रेखा के पार चले गए।

उन्हें बंदी बना लिया गया। भारतीय खेमे में खलबली मच गई। विमान गिराया गया, फ्लाइट लेफ्टिनेंट का पता नहीं। खोजी उड़ान लेकर स्क्वाड्रन लीडर ए. अहूजा निकले तो उनके मिग-21 विमान को भी पहाड़ियों की चोटी से चलीं स्टिंगर मिसाइलों ने नष्ट कर दिया। जब स्क्वाड्रन लीडर अहूजा पैराशूट से कूदे तो उन्हें गोलियों से भून दिया गया।

पर नुकसान को भुलाकर, 27 मई की शाम को ही लड़ाकू विमानों ने टाइगर हिल और पॉइंट 4590 पर भीषण बमबारी की, और अब तक खामोश तोपखाने का मुंह भी पहाड़ियों की ओर खोल दिया गया और इसकी आड़ में पहाड़ों पर चढ़ रही सेना की टुकड़ियों ने दुश्मन पर हमला बोल दिया। अब भारत ने घुसपैठियों के खिलाफ मौके पर मौजूद हर हथियार से धावा शुरू कर दिया था। नीचे से तोपें गरज रही थीं और ऊपर से हवाई बम। हालात पूरी तरह युद्ध जैसे हो गए थे, पर अभी भी भारत सरकार इसे युद्ध या विरोधी कार्रवाई जैसे जुमलों से बचा रही थी। अब तक कश्मीर के श्रीनगर में 15वीं कोर के हेडक्वार्टर में युद्ध का ऑपरेशन रूम बना दिया गया था।

28 मई 1999: द्रास सेक्टर, कारगिल

पहाड़ियों में चढ़े बैठे घुसपैठियों को नीचे धकेलने के लिए सेना के एमआई-17 हेलिकॉप्टर भी हमले में लगाए गए। हालांकि, गुजरा दिन हवाई हमले के लिहाज से बेहद खतरनाक साबित हो चुका था, और हमें यह भी पता चला था कि चोटी पर दुश्मन के पास एंटी-एयरक्राफ्ट गन और स्टिंगर मिसाइल हैं। अफगानिस्तान में हवाई हमले की रीढ़ तोड़ने के लिए तालिबानियों ने इस मिसाइल का जमकर इस्तेमाल किया था।

स्टिंगर मिसाइल कंधे पर लॉन्चर रखकर फायर की जाती है। जैसे ही भारतीय सेना का हेलिकॉप्टर घुसपैठियों की जद में आया, उन्होंने स्टिंगर मिसाइल दाग दी और हेलिकॉप्टर उसका शिकार हो गया। भारतीय खेमे के लिए यह बड़ा झटका था। वायुसेना ने अपने चार वीर गंवा दिए थे। अब वायुसेना मिराज 2000 की तैनाती की सोच रही थी ताकि ज्यादा ऊंचाई से अचूक हमले किए जा सकें। रक्षा मंत्री और थलसेना प्रमुख ने कारगिल, द्रास, बटालिक का हवाई दौरा किया।

जमीनी कार्रवाई तेज, अंतर्राष्ट्रीय दबाव और रणनीति बदलाव (29 मई - 11 जून 1999)

इधर जमीन पर सेना ने 29 मई को बटालिक सब सेक्टर के दो ठिकानों और द्रास सब सेक्टर की एक प्रमुख चोटी के अलावा मश्कोह घाटी से कई अलग-अलग ठिकानों पर घुसपैठियों को भगाकर तिरंगा गाड़ दिया था। तीन सौ घुसपैठिए मारे गए और करीब 150 से ज्यादा घायल हो मोर्चा छोड़ भाग खड़े हुए। युद्ध से पूरी दुनिया सकते में थी क्योंकि लड़ाई दो परमाणु शक्ति संपन्न पुराने दुश्मनों के बीच थी।

30 मई को संयुक्त राष्ट्र के महासचिव कोफी अन्नान ने प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को फोन किया और मध्यस्थता की पेशकश की, पर वाजपेयी ने बिना समय गंवाए उनका प्रस्ताव ठुकरा दिया। इधर पाकिस्तानी फौज की हलचल को देखकर भारतीय नौसेना को भी सतर्क कर दिया गया और उनकी कार्रवाई को नाम दिया गया ऑपरेशन सफेद सागर। अब मिराज 2000 ने दुश्मन पर हमला शुरू कर दिया।

पर युद्ध रोकने की कोशिशों में एक अहम कदम उठा 31 मई को, जबकि अटल बिहारी वाजपेयी ने पाक विदेश मंत्री सरताज अजीज की भारत यात्रा को हां कह दी। यह 28 मई को अटल और नवाज शरीफ के बीच हुई बातचीत का नतीजा था, जिसमें वाजपेयी ने बिल्कुल साफ कर दिया था कि बातचीत सिर्फ घुसपैठ के इर्द-गिर्द ही होगी।

1 जून को रक्षा मंत्री जॉर्ज फर्नांडीस का एक बयान बड़े विवाद की वजह बन गया। जॉर्ज ने कह दिया की घुसपैठियों को सुरक्षित निकासी के विकल्प पर विचार किया जा सकता है। पर रक्षा मंत्री ने पाकिस्तान की परमाणु युद्ध धमकी का मुंहतोड़ जवाब देकर हालात कुछ सुधार लिए। जॉर्ज ने कहा कि अगर पाकिस्तान परमाणु युद्ध की बात करता है तो यह उसके लिए आत्महत्या करने जैसा है।

2 जून: कारगिल

कारगिल घुसपैठ का पता चले करीब 30 दिन का समय पूरा हो चुका था। भारतीय सेना के सामने दुश्मन से ज्यादा बड़ी चुनौती साबित हो रहे थे ये पहाड़। भारतीय मारक क्षमता पहाड़ों की जड़ में थी तो उनका निशाना बिल्कुल खड़ी चोटी पर। ऐसे में सेना के हथियार, सामर्थ्य और तादाद सभी कुछ बुरी तरह पिछड़ रहा था। नुकसान भी बहुत हो रहा था। एक हमले को अंजाम देने की तैयारी में सिपाही सैकड़ों की तादाद में लगते, पर चोटी पर दुश्मन का सामना करने के लिए मोर्चे पर केवल अस्सी से नब्बे सिपाही ही चढ़ पाते, जिनमें अधिकारी भी शामिल होते। सेना में कहावत है कि पहाड़ जवानों को खा जाता है। शहादत के आंकड़े इस कहावत पर मुहर लगा रहे थे, जो कि हर गुजरते दिन के साथ बढ़ रहे थे।

3 जून: कारगिल

3 जून 1999 तक शहीदों की सूची में 57 नाम दर्ज थे, जिसमें 4 अधिकारी, 3 जेसीओ भी शामिल थे। 203 सैनिक घायल हुए थे। ठीक आठ दिन बाद यह आंकड़ा करीब दो गुना हो गया। 11 जून 1999 तक शहीदों में 98 नाम शामिल थे, घायलों की सूची में 317 नाम थे। बदले में अब तक 250 घुसपैठियों को मौत के घाट उतार दिया गया था। इस शहादत के एवज में सेना को मिली कामयाबी यह थी कि उसने घुसपैठियों के कुछ बंकर बर्बाद किए थे और कारगिल-लेह क्षेत्र में 180 किलोमीटर लंबी नियंत्रण रेखा में घुसपैठियों को करीब 10 किलोमीटर पीछे तक खदेड़ दिया गया था।

पर इस वक्त युद्ध की एक सच्चाई यह भी थी कि घुसपैठियों के चेचक की तरह बिखरे बंकरों की पूरी जानकारी भी सेना के पास नहीं थी। हर हमले के साथ नए ठिकाने सामने आ रहे थे। सेना अपनी तमाम कोशिशों के बावजूद दुश्मन की रसद आपूर्ति को रोक नहीं पाई थी, क्योंकि जो पहाड़ियां हमारे सामने सीधी रेखा की तरह खड़ी थीं, वह पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर की ओर से ढलान भरी थीं, जिनके जरिए आसानी से उन्हें रसद पहुंचाई जा रही थी। मश्कोह घाटी के नालों से पाकिस्तानी सेना के समर्थन से घुसपैठिए भी लगातार पहुंच रहे थे।

मुश्किल घड़ी में अदम्य साहस और तोलोलिंग की तैयारी

हमारी मजबूरी यह थी कि नियंत्रण रेखा पार न कर पाने की वजह से हम पहाड़ी में बैठे दुश्मन को कायदे से घेर भी नहीं पा रहे थे, और न ही घुसपैठियों की नालों से आ रही गंदी बाढ़ को रोक पा रहे थे, हम सिर्फ उनसे लड़ रहे थे। इसी का नतीजा था कि श्रीनगर-लेह राजमार्ग को पाक घुसपैठियों ने अपनी बमबारी से बंधक बना लिया था। भारतीय युद्ध पूरी तरह से इस हाईवे को आजाद करने के इरादे से हो रहा था। इस हाईवे पर तोलोलिंग और टाइगर हिल से लगातार हमले हो रहे थे। भारतीय सैनिक इन दो चोटियों को दुश्मन से खाली कराने में मई के मध्य सप्ताह से ही जुटे थे।

कारगिल की सुरक्षा में तैनात 121 ब्रिगेड के कमांडर को लगा कि चोटी पर आठ-दस घुसपैठिए होंगे, लिहाजा उन्होंने कहा कि जाओ और आतंकियों को कॉलर पकड़ कर खींच लाओ। नागा, गढ़वाल और ग्रेनेडियर्स रेजीमेंट इस काम में गईं। पर जैसे-जैसे हमला आगे बढ़ा तो उन्हें असलियत का अहसास हुआ। शुरुआती कुछ हमलों में तो ऐसा हुआ कि दुश्मन ने बिना गोली-बारूद के हमारे हमले नाकाम कर दिए। चोटी से पत्थर धकेल कर उन्होंने भारतीय सैनिकों को काफी नुकसान पहुंचाया। पत्थर की यह चोट सबसे ज्यादा नागा रेजिमेंट को लगी।

नाकामी की निराशा को तोड़ा ग्रेनेडियर्स के 28 वर्षीय मेजर राजेश अधिकारी ने। राजेश अधिकारी अपने 10 साथियों के साथ दुश्मन के बेहद करीब पहुंचने में कामयाब हुए। उन्होंने दुश्मन के दिल में भारतीय इरादों का खौफ पैदा किया, वरना अब तक तो दुश्मन खुद को चोटी पर बैठा खुदा मान रहा था, जिसे कोई छू भी नहीं सकता। पर मेजर राजेश अधिकारी अपनी चुनौती को विजय में बदल नहीं सके और शहीद हो गए।

बताया जाता है कि उनकी दस महीने पहले शादी हुई थी और उनकी पत्नी का खत मोर्चे पर जाने से कुछ वक्त पहले ही मिला था। मेजर ने कहा, "इस खत को फुर्सत से पढूंगा।" उसे उन्होंने नक्शा और राइफल संभालते हुए किसी तरह अपनी जेब में रख लिया था। 

पर मेजर राजेश लक्ष्य से 20 मीटर पहले शहीद हुए और पत्नी का खत कभी नहीं पढ़ सके। उनके साथी कैप्टन सचिन निंबालकर तीन दिन तक नुकीले पहाड़ के कटीले किनारे पर एक चट्टान की आड़ में फंसे रहे और दुश्मन उन्हें चुनौती देता रहा कि दम हो तो अपने साथियों की लाश ले जाओ। निंबालकर ने पलट कर कहा भी कि, "तेरी लाश ले जाऊंगा," पर दुश्मन से सीधी बात करने वाला यह बहादुर इससे ज्यादा कुछ कर न सका।

तोलोलिंग की पहाड़ी को आजाद करवाने में अब तक हुई शहादत पूरे युद्ध में हुई कुर्बानियों की आधी हो चुकी थीं। पर सच यह था कि हम अपने सैनिकों के शव भी पहाड़ी से नहीं ला पा रहे थे।

18 ग्रेनेडियर्स के लेफ्टिनेंट कर्नल विश्वनाथन ने जब अपने साथियों के शव के सम्मान की लड़ाई लड़ी तो उन्हें भी वीरगति प्राप्त हुई। छह घंटे की लगातार चढ़ाई चढ़कर वीर विश्वनाथन अपने साथियों के शवों तक पहुंच गए। दुश्मनों ने लाशों में बूबी ट्रैप लगा रखा था, जैसे ही शव को अपने कब्जे में लेने की कोशिश हुई लाशों में बंधी माइन्स फट पड़ीं। किसी का हाथ कटा किसी का पैर।

फिर भी वीर विश्वनाथन और उनके साथियों ने हौसला नहीं हारा, पर दुश्मन की एलएमजी ने उनका रास्ता रोक दिया। पर इस अधिकारी की चिट्ठी ने जिस सच्चाई का खुलासा किया उसने आक्रमण की दशा दिशा बदलने पर मजबूर किया। लेफ्टिनेंट कर्नल विश्वनाथन ने अपने आखिरी खत में लिखा था कि, "हम एक अनजाने लक्ष्य की ओर बढ़ रहे हैं, जो कि बेहद खतरनाक हो सकता है।"

लेफ्टिनेंट कर्नल की शहादत का असर यह हुआ कि तोपखाने की कवर फायरिंग को मजबूत करने का जिम्मा द्रास आर्टलरी के कमांडर ब्रिगेडियर लखिंदर सिंह को सौंपा गया और उसके बाद कारगिल में 105 एमएम गन के अलावा 130 और 155 एमएम की तोपों को लाने का काम शुरू हुआ। पैरा कमांडो की तैनाती का फैसला हुआ ताकि उनसे दुश्मन की तोपों की जानकारी इकट्ठा करवा उन्हें मुंहतोड़ जवाब दिया जा सके।

हमले के लिए तोपों को यहां तक लाना भी अपने आप में एक युद्ध जैसा ही था। इन संकरे पहाड़ी रास्तों में दुश्मन की गोलीबारी से बचते हुए तोपों को मोर्चे तक पहुंचाना बेहद खतरनाक था। तोपें केवल रात के वक्त छिपाकर लाई जा सकती थीं, दिन में तो दुश्मन को खबर होने का खतरा था। गुमरी और मताइन बेस से तोपें लाई गईं। ताकतवर स्काईना ट्रक इन्हें खींच रहे थे।

संकरे पहाड़ी रास्ते में मामूली चूक का मतलब हजारों मीटर नीचे गिरना। ऐसे में घुप अंधेरा, और ट्रक की हेडलाइट बंद, क्योंकि लाइट जलते ही चोटी पर बैठा दुश्मन गोला दाग देता। ट्रक के आगे दो सैनिक टॉर्च लेकर चलते थे। वे हर दो मिनट में एक बार टॉर्च को जलाते थे, और इसी अंदाजे पर ड्राइवर ट्रक आगे बढ़ा रहे थे। इसके बावजूद सूरज निकलने से पहले ट्रक द्रास तक तोपें लेकर आए।

पाकिस्तान का पर्दाफाश और सामरिक विश्राम (4-11 जून 1999)

4 जून को बटालिक सब-सेक्टर से तीन पाकिस्तानी सैनिकों के शव बरामद हुए और साथ ही ऐसे कागजात जो उन्हें पाक सैनिक साबित करने का पुख्ता सबूत थे। पाकिस्तान का चेहरा दुनिया के सामने बेनकाब हो चुका था। थल सेना ने पहली बार छाती ठोक कर कहा कि घुसपैठिए और कोई नहीं बल्कि नियमित पाकिस्तानी सेना के जवान और अधिकारी ही हैं।

पाकिस्तान पर चारों ओर से दबाव बनने लगा, दुनिया भारत के साथ खड़ी थी। भारत ने बटालिक सेक्टर में घुसपैठियों से पांच ठिकाने खाली करवा लिए। भारत ने 7 जून को पाक विदेश मंत्री की भारत यात्रा का प्रस्ताव ठुकरा दिया। भारत ने घुसपैठियों पर घेरा कड़ा किया। पाकिस्तान सरकार के नरम तेवर सामने आने लगे। 

पाकिस्तान ने फ्लाइट लेफ्टिनेंट नचिकेता की रिहाई का ऐलान कर दिया, जिन्हें पाकिस्तान ने उस वक्त पकड़ा था जब उनका विमान एक मिसाइल हमले में नष्ट हो गया था और वह पाकिस्तानी इलाके में पहुंच गए थे। 9 जून को पाकिस्तान ने कैप्टन सौरभ कालिया और उनके चार साथियों के शव भी भारत को सौंपे।

अब भारतीय सेना ने एक चौंकाने वाला फैसला किया। उसने सामरिक विश्राम लिया। सेना ने बड़े हमले रोक दिए। दुश्मन के खिलाफ इस कदम का मकसद खुद को आखिरी हमले से पहले अच्छी तरह तैयार करना था। सेना ने अटैक में आमूलचूल बदलाव किए।

बढ़ती ठंड से बचाव के लिए कारगिल सूट्स का इंतजाम किया गया। सैनिकों के लिए नए जूते और हथियार मंगवाए गए। हमले की जिम्मेदारी के लिए सेना की नई टुकड़ियों को जिम्मा सौंपा गया। ज्यादा असरदार तोपखाना तैनात किया गया। पहाड़ों में रस्सियों का रास्ता बनाने के लिए पर्वतारोही डिवीजन को लगाया गया। हमले की बाकायदा मॉक ड्रिल की गई। बड़े हमले की उल्टी गिनती अब शुरू हो गई थी।

राजनयिक दबाव और मुशर्रफ का खुलासा (11-12 जून 1999)

उधर, सेना पाकिस्तान को घेरने में लगी थी तो इधर दिल्ली में राजनयिक स्तर पर उसे घेरने की तैयारी चल रही थी। पाक विदेश मंत्री के भारत आने के ठीक एक दिन पहले भारतीय विदेश मंत्री ने प्रेस कॉन्फ्रेंस बुलाई। बड़ी तादाद में पत्रकार प्रेस वार्ता में पहुंचे। युद्ध के बीच में विदेश मंत्री की इस कॉन्फ्रेंस को लेकर भारी उत्सुकता थी। हर मन में सवाल था क्या होगा। विदेश मंत्री जसवंत सिंह आए तो उन्होंने बम फोड़ दिया।

विदेश मंत्री ने एक ऑडियो टेप लोगों को सुनाया। इस टेप में कारगिल की साजिश को लेकर पाक के सेना प्रमुख जनरल परवेज मुशर्रफ और पाक सेना के चीफ ऑफ स्टाफ लेफ्टिनेंट जनरल मोहम्मद अजीज की बातचीत थी। साफ हो गया कि पाक सेना की साजिश का नतीजा था कारगिल, पर पाक सरकार का भी दामन पाक-साफ नहीं है। 

प्रेस वार्ता के अंत में विदेश मंत्री ने कहा कि, "देर से ही सही शायद पाकिस्तान को सदबुद्धि आए और वह अपनी दुस्साहसपूर्ण कार्रवाई को वापस ले।" उन्होंने साफ कर दिया कि वह पाक विदेश मंत्री से नियंत्रण रेखा में यथास्थिति बरकरार रखने की बात कहेंगे।

12 जून 1999: नई दिल्ली, भारत-पाक विदेश मंत्री मुलाकात

पाक विदेश मंत्री सरताज अजीज और जसवंत सिंह की मुलाकात हुई तो जसवंत ने दो टूक मुंह पर बोल दिया कि, "बात क्या करोगे पहले सैनिकों के साथ बर्बरता करने वालों को सजा दो... घुसपैठियों को वापस बुलाओ तब बात होगी।"

लेकिन, घुसपैठियों पर कार्रवाई के मुद्दे पर पाकिस्तान की गोलमोल बंद नहीं हुई। उल्टे सरताज अजीज भारत से यह कहने लगे कि फौज को नियंत्रण रेखा से दूर रखें, हवाई हमला और फौजी कार्रवाई रोक दें, पाकिस्तानी सेना इसमें शामिल नहीं है, भारत के आरोप गलत हैं, लाहौर समझौते के मुताबिक वार्ता से ही समाधान निकलेगा। भारत का कहना था पाक ने नियंत्रण रेखा लांघ कर तनाव पैदा किया है और वह लौट जाएं तो तनाव रुक जाएगा। पाक विदेश मंत्री अपने ही बयानों में फंस गए। 

दरअसल, पाकिस्तान इस यात्रा से अपनी जनता को संदेश देना चाहता था कि पाक ने भारत को कारगिल में कब्जाए गए क्षेत्रों पर बात करने के लिए मजबूर कर दिया है। पर अच्छी बात यह रही कि अमेरिका ने मान लिया था कि कारगिल में पाकिस्तान ने नियंत्रण रेखा का उल्लंघन किया है। लिहाजा पाकिस्तान इस मकसद में कामयाब नहीं हो पाया। पाकिस्तान को चीन से समर्थन की उम्मीद थी, पर उसने भी पाकिस्तान को बातचीत से निपटारे की सलाह दी। पाक विदेश मंत्री चीन से होकर दिल्ली पहुंचे थे।

सरताज अजीज ने लाहौर मसौदे का हवाला देकर कहा कि कारगिल विवाद के निपटारे के लिए एक कार्यदल बना लें चीन की तर्ज पर। लेकिन अगर इसके लिए भारत तैयार हो जाता तो पाकिस्तान को इस बात के प्रचार में सफलता मिलती कि भारत-पाक के बीच नियंत्रण रेखा स्पष्ट नहीं है, पाक सेना बरसों से यही दुष्प्रचार करती आ रही है।

सच्चाई तो यह है कि भारत और पाकिस्तान की नियंत्रण रेखा 1972 में ही 19 नक्शों की मदद से तय कर ली गई थी, और 27 साल तक पाकिस्तान इसे मानता भी आया है। एक बड़े राजनयिक तबके का उस समय यह मानना था कि पाकिस्तान कारगिल के कांटे से शिमला समझौते की फांस को निकालना चाहता था, और कश्मीर के वजूद को फिर विवादित करना चाहता था। पर भारत ने उसका यह हमला भी नाकाम कर दिया।

जसवंत सिंह का चीन दौरा

पाक विदेश मंत्री के भारत से निकलने के कुछ ही घंटे बाद जसवंत सिंह चले गए चीन, जिसके साथ रिश्ते पोखरण ब्लास्ट के बाद से ठंडे बस्ते में थे। इधर युद्ध के मैदान में भारतीय सेना का सामरिक विश्राम पूरा हो गया। सेना पूरी तैयारी के साथ दुश्मन पर आघात के लिए तैयार थी। हाईवे को बंधक बनाने वाली चोटियों से दुश्मन को हटाने के लिए हमले की तारीख का सूर्योदय हो चुका था।

तोलोलिंग की फतह: वीरता, शहादत और जीत (13 जून 1999)

अस्सी डिग्री पर झुकी सपाट चट्टानों का इलाका बर्फ में डूबा था। हर कदम पर खतरा मौत की चादर लपेटे पसरा था। सुर्ख बर्फ का हर तिनका लाल खून की प्यास में चटक रहा था। 16,000 फीट ऊंचा नंगा पहाड़ दुश्मन के लिए आइने की तरह था जिसके आगे कुछ भी नहीं छिपता है। इस बेहद मुश्किल पहाड़ी पर हमले के लिए 2 राजरिफ (राजपूताना राइफल्स) पूरी तरह तैयार थी। और नीचे तैयार थी आग उगलने को कुख्यात बोफोर्स तोप। दुश्मन की चोटी से ठीक 300 मीटर नीचे तैयार फायरबेस में 2 राजरिफ के सीओ कर्नल रवीन्द्र नाथ अपने चुनिंदा 90 लड़ाकों के सामने खड़े थे, जिन्हें भीम, अर्जुन और अभिमन्यु नाम के तीन टीम में बांटा गया था।

तोलोलिंग हमले के लिए बनी टीम में ज्यादातर यूनिट के खिलाड़ी थे। नब्बे लोगों में 11 तोमरों की एक टुकड़ी भी थी।कर्नल ने बेहद तनावभरे माहौल में भावुक होकर कहा, "आप ने जो मांगा वो मैंने दिया, अब आपकी बारी है।" इससे पहले कि कर्नल चुप होते सूबेदार भंवर सिंह ने कहा, "श्रीमान कल सुबह तोलोलिंग की चोटी पर मुलाकात होगी।"

कर्नल ने मेजर विवेक गुप्ता, मेजर पद्मपाणी आचार्य और कैप्टन एन. केंगरूस के कंधे पर जिम्मेदारी का हाथ रख दिया। कूच हुआ। सैनिकों ने पहाड़ी पत्थरों की ओट में पोजीशन ले ली। पूरे हमले का रिहर्सल पहले ही हो चुका था। कर्नल रवीन्द्रनाथ ने पिछले 10 दिन में नक्शों और दूरबीन की मदद से पूरी तोलोलिंग पहाड़ी के एक-एक हिस्से को नाप लिया था। योजना थी कि तीन तरफ से हमला होगा। इसके लिए नायक दिगेंद्र कुमार ने तोलोलिंग के सबसे मुश्किल रास्ते को आसान बनाने का जिम्मा संभाला।

10 तारीख से ही चोटियों पर रूसी कील गाड़ कर चढ़ने के लिए रास्ता बनाना शुरू कर दिया था। 100 मीटर लंबे और 10 टन का वजन उठा सकने वाले इस रस्से से दिगेंद्र ने हमले का सामान और अटैक टीम दोनों को उनकी मंजिल के पास तक पहुंचाया। लगातार 14 घंटे की मेहनत के बाद असलहा और सैनिक हमले की जगह के बेहद करीब 12 जून को पहुंचे। यहां उन्हें मेजर गुप्ता और उनकी टीम मिली। अब टारगेट थे तोलोलिंग की चोटी पर बने 11 पाकिस्तानी बंकर।

इससे पहले कि युद्ध शुरू हो, आपको इस लड़ाई की दो बेहद भावुक बातें बताना चाहता हूं। ग्यारह तोमरों की जिस टोली का अभी जिक्र हुआ उसमें सबसे कम उम्र के थे लेफ्टिनेंट प्रवीण सिंह तोमर, जो कि एक प्लाटून का नेतृत्व कर रहे थे। तोमरों का बड़ा गौरवमयी युद्ध इतिहास है, वो मारने पर भरोसा करते हैं मरने पर नहीं। प्रवीण तोमर जब प्लाटून को लेकर बढ़े तो हवलदार यशवीर तोमर ने कहा, "साहब ग्यारह हैं ग्यारह जीत के लौटेंगे।"

एक बात और कि इन नब्बे के नब्बे लोगों ने 12 तारीख की रात को अपने घरवालों के नाम चिट्ठियां लिखी थीं कि अगर युद्ध से न लौटें तो घरवालों को उनकी आखिरी निशानी भेज दी जाए। युद्ध के मैदान में चलने से पहले आपको बता दें कि यह बेहद भीषण और खूनी लड़ाई मानी जाती है, और मुश्किल इतनी की इसकी तुलना 1965 में हाजीपीर दर्रे में चली 32 दिन की नरकीय जंग से की जाती है।

12-13 जून की रात, 1999: तोलोलिंग, द्रास

हमले से चार घंटे पहले नीचे से तोपखाने की 120 तोपों का मुंह खोल दिया गया। कुछ घंटे के भीतर करीब 10,000 गोले दागे गए। इनसे निकला बारूद 50,000 किलो टीएनटी के बराबर था, जो दिल्ली जैसे शहर को पूरी तरह बर्बाद कर देने से काफी ज्यादा था। राजपूताना राइफल्स के अधिकारी उस रात को याद करके कहते हैं कि ऐसी दिवाली हमने पहले कभी नहीं देखी। गोलाबारी इतनी खतरनाक थी कि एक पहाड़ी 5140 का नाम ही 'बर्बाद बंकर' रख दिया गया।

गोलाबारी रुकने के बाद मेजर विवेक गुप्ता की टुकड़ी अपने दस साथियों के साथ आगे बढ़ी। नायक दिगेंद्र भी उनके ही साथ थे। अचानक वे दुश्मन के एक बंकर के सामने आ गए। नायक दिगेंद्र के हाथों में जब एक गरम एलएमजी की बैरल लगी तो उन्हें इसका अहसास हुआ। नायक ने फौरन ग्रेनेड बंकर के भीतर डाल दिया। पहला बंकर खत्म हो चुका था।

पर, नीचे से हो रही गोलाबारी का कवर हटते ही चोटी पर बैठा दुश्मन पहाड़ी पर खिसक रहे वीरों पर फिर हमला कर रहा था। पाकिस्तान से आ रहे गोले भी दिक्कत कर रहे थे। तब सूबेदार शिवनायक ने जान पर खेल कर दुश्मन तोपों की टोह ली और अपने मेजर को सही जानकारी दी, लिहाजा मेजर विवेक गुप्ता ने तोपों का मुंह एक मीटर ऊंचा करवा फिर गोलाबारी करवाई। 

अब दुश्मन की तोप और तोलोलिंग पर एक साथ गोले गिरने शुरू हुए, कुख्यात बोफोर्स पाकिस्तानी तोपों को संभाल रही थी तो दूसरी तोपें पहाड़ी पर बैठे घुसपैठियों को. थोड़ी ही देर में पाक गोलाबारी बंद हो गई। इससे दुश्मन थोड़ा ढीला पड़ा, और भारतीय सेना आगे बढ़ी। 11 तोमरों की टोली में लांस नायक यशवीर सिंह और कर्नल रवीन्द्र नाथ से सुबह चोटी पर मिलने का वादा करने वाले सूबेदार भंवर सिंह भी इसी दल में थे। सब बेहद वीरता से लड़ रहे थे।

दुश्मन ने तोलोलिंग में बारूदी सुरंगे भी बिछा रखी थीं। मेजर पद्मपाणी आचार्य जिस रास्ते से तोलोलिंग पर चढ़ रहे थे उसमें सैनिकों को इससे काफी नुकसान हुआ। पर मेजर आचार्य बारूदी सुरंगों को पार कर दुश्मन के बंकर तक पहुंचे और बंकर खत्म किए।

उधर दूसरी ओर नायक दिगेंद्र ने एक-एक कर अपने सभी साथियों को खो दिया, पर हिम्मत नहीं हारी। नायक दिगेंद्र ने 11 बंकरों में 19 हथगोले फेंके। पाकिस्तानी मेजर अनवर खान अचानक उनके सामने आ गया। दिगेंद्र ने छलांग लगाई और अनवर खान पर झपट्टा मारा। 

दोनों लुढ़कते-लुढ़कते काफी दूर चले गए। अनवर खान ने भागने की कोशिश की तो उसकी गर्दन पकड़ ली। दिगेंद्र जख्मी था पर मेजर अनवर खान के बाल पकड़ कर सायानायड डैगर से गर्दन काटकर भारत माता की जय-जयकार की। दिगेंद्र पहाड़ी की चोटी पर लड़खड़ाता हुआ चढ़ा और 13 जून 1999 को सुबह चार बजे वहां तिरंगा झंडा गाड़ दिया।

यह युद्ध मेजर विवेक गुप्ता के साहस के लिए भी याद रखा जाएगा। 2 राजपूताना राइफल्स के मेजर विवेक गुप्ता, 29 साल के अधिकारी की पत्नी भी फौज में थी, पिता रिटायर्ड कर्नल थे।

मेजर विवेक ने 8 जून को अपने पिता को खत लिखा, जिसमें उन्होंने लिखा कि, "आपको मुझ पर नाज होना चाहिए, मैं वर्दी पहनकर देश के लिए कुछ कर रहा हूं, इस समय एक कंपनी कमांडर होना शानदार अनुभव है" - पर उनका यह खत उनके अंतिम संस्कार के आधे घंटे बाद मिला। 13 जून को ही सात साल पहले उन्हें सेना में कमीशन मिला था।

सुबह चार बजे के आसपास कर्नल रवीन्द्रनाथ अपनी टुकड़ी के साथ पीक पर पहुंचे। उन्होंने अपने साथियों से जो मांगा था वह उन्हें मिल चुका था, पर शहीद साथियों के शवों के साथ जीत का जश्न नहीं मना सकते थे। युद्ध की विडंबना है कि यहां जीत की जरूरत शोक का मौका नहीं देती। पर एक और सच्चाई है कि जान की बाजी लगाकर पाई गई विजय का जश्न वियोग के स्वरों को नहीं सुनता।

2 राजपूताना राइफल्स के कर्नल रवीन्द्र नाथ ने अपने ब्रिगेड कमांड को रेडियो पर संदेश दिया कि, "मेरी बटालियन को जो काम दिया गया था वो हमने पूरा कर लिया है। हमने तोलोलिंग पर फतह पा ली है सर।" इस जीत पर सेना प्रमुख जनरल मलिक ने कर्नल रवीन्द्र नाथ को सीधी बधाई दी, जैसा कि सेना में बहुत कम बार होता है।

इस मुश्किल चोटी पर यह बेहद मुश्किल जीत थी। तोलोलिंग पर पहुंचे सैनिक और अधिकारियों को बंकर की तलाशी में ढेर सारा घी मिला, मक्खन मिला, शहद मिला और अनानास के डिब्बे। घी को जलाकर सैनिकों ने ठंड से खुद को बचाया क्योंकि तापमान -5 से -11 डिग्री तक था। सुबह होने पर सैनिकों ने शहद और मक्खन खाकर जीत की खुशी मनाई।

पर इस जीत का हिसाब लगाने जब कर्नल रवीन्द्र नाथ बैठे तो पाया कि उनके चार अधिकारी, दो जेसीओ और 17 जवान शहीद हो गए। 70 घायल थे जिनमें से छह हमेशा के लिए अपंग हो गए थे। 20 की हालत तो ऐसी कि वो दोबारा कभी फौज में काम करने लायक नहीं बचे हैं। इसके बावजूद तोलोलिंग जीत के मुकम्मल होने में अभी और खून बहना बाकी है।

तोलोलिंग विजय: एक निर्णायक मोड़ और पाकिस्तानी गोलाबारी का कहर

तोलोलिंग विजय का महत्व इसी बात से पता चलता है कि तोलोलिंग विजय की बात सुनते ही रक्षा मंत्री और प्रधानमंत्री सीधा युद्धक्षेत्र में पहुंच गए। जैसे ही वे हवाई अड्डे पर उतरे, कुछ दूरी पर पाक सेना के बम गिरे। जॉर्ज फर्नांडिस ने वाजपेयी से कहा, "देखिए पाकिस्तान आपको सलामी दे रहा है।" पर यह चिंता की बात थी, ऐसा लगा जैसे पाकिस्तान की तोपों को पीएम वाजपेयी की कारगिल यात्रा के रूट की पुख्ता जानकारी थी। जहां वाजपेयी जी को शरणार्थियों से मिलना था उस बारू गांव में पाक सेना ने वाजपेयी के पहुंचने से पहले चार गोले दागे।

नतीजतन सुरक्षा कारणों से पीएम वाजपेयी को द्रास सेक्टर के मतायन क्षेत्र में नहीं जाने दिया गया, जहां ऑफिसर्स मेस में गोला गिरने की वजह से एक हवलदार शहीद हुआ। 16 जून को मतायन में सेना के ब्रिगेड मुख्यालय पर गोलाबारी हुई तो मुख्यालय को नीचे मीनामार्ग में स्थानांतरित करना पड़ा। पाकिस्तानी तोपखाने का हमला कितना भीषण था इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि, हमारे शहीदों में से अस्सी फीसदी तोपखाने की गोलाबारी की चपेट में आने से शहीद हुए थे।

यह आंकड़े दुश्मन की गोलाबारी की तीव्रता और घातकता को स्पष्ट रूप से दर्शाते हैं। तोलोलिंग पर भारतीय सेना की जीत एक महत्वपूर्ण मनोवैज्ञानिक और सामरिक सफलता थी, जिसने कारगिल युद्ध की दिशा बदल दी।

यह जीत भारतीय सैनिकों के अदम्य साहस, दृढ़ संकल्प और सर्वोच्च बलिदान का प्रतीक है। हालांकि, दुश्मन की गोलाबारी लगातार जारी थी, जो हमारी सेना के लिए एक बड़ी चुनौती बनी हुई थी। इसके बावजूद, भारतीय सेना ने अपने ऑपरेशन जारी रखे और धीरे-धीरे रणनीतिक चोटियों पर नियंत्रण हासिल करना शुरू कर दिया, जो अंततः कारगिल में भारत की विजय का मार्ग प्रशस्त किया।

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