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भगवान बुद्ध की तपोस्थली गया का नाम गयाजी करने का जानिए गणित

दक्षिण बिहार में स्थित गया प्राचीन काल से ही हिंदू और बौध मान्‍यताओं से जुड़ा है। आम बोलचाल में इस स्‍थान का नाम आदर से लिया जाता रहा है। गया जाने वाले लोग इसे गया जी की यात्रा ही कहते आए हैं।

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Narendra Aniket
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Vishnupad Temple Gaya
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पटना, वाईबीएन डेस्‍क । बिहार की नीतीश के नेतृत्व वाली सरकार ने कैबिनेट बैठक में शुक्रवार को हिंदुओं के बीच मोक्ष भूमि के रूप में प्रसिद्ध गया शहर का नाम बदल कर गया जी कर दिया। प्राचीन काल से ही गया केवल हिंदुओं के लिए ही नहीं बल्कि विश्‍व भर के बौध मतावलंबियों के लिए भी तीर्थस्‍थल है। भगवान बुद्ध को यहीं ज्ञान प्राप्‍त हुआ था। चुनावी वर्ष ने इस पावन भूमि के नाम बदले जाने के निहितार्थ तलाशे जा रहे हैं। नीतीश सरकार में क्योंकि भाजपा भी सहयोगी पार्टी है, तो माना जा रहा है कि भाजपा ने अपने सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को ध्यान में रखकर शहर का नाम गयाजी कराने में अहम भूमिका निभाई। वैसे, गया शहर का नाम सआदर ही लिया जाता रहा है। यहां सवाल यह उठ रहा है कि आखिर शहर का नाम बदलने में इतना लंबा वक्त क्यों लगा? 

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आम बोलचाल में लोग कहते आ रहे हैं गया जी

दक्षिण बिहार में स्थित गया प्राचीन काल से ही हिंदू और बौध मान्‍यताओं से जुड़ा है। आम बोलचाल में इस स्‍थान का नाम आदर से लिया जाता रहा है। गया जाने वाले लोग इसे गया जी की यात्रा ही कहते आए हैं। मुख्‍यमंत्री नीतीश कुमार की अध्‍यक्षता में शुक्रवार को हुई कैबिनेट बैठक में गया का नाम बदलने के पीछे संभवत: लोक मानस की इसी भावना का ध्‍यान रखा गया है।

असुर के नाम पर है गया

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वायु पुराण के अनुसार, जिस समय पृथ्‍वी पर पाप नाम मात्र का था और अपने पूर्ण रूप में मौजूद धर्म का बोलबाला था, उसी दौरान असुर कुल में गयासुर नामक दैत्‍य हुआ था। उसने घनघोर तप किया जिससे तीनों लोकों में हाहाकार मच गया। ऋृषि और ब्रह्माजी के आग्रह पर भगवान विष्‍णु गयासुर के पास पहुंचे और उसने वरदान मांगा कि उसे इतना पवित्र बना दें कि जो भी उसे देखे, स्‍पर्श करे उसे मोक्ष मिल जाए। भगवान विष्‍णु ने उसे यह वरदान दे दिया। इसके बाद जो संकट उत्‍पन्‍न हुआ, ब्रह्माजी ने उसका भी समाधान भगवान विष्‍णु से करने को कहा। भगवान विष्‍णु ने गयासुर के पास जाकर परम पावन यज्ञ के लिए उसका शरीर मांगने का सुझाव दिया। गयासुर तैयार हो गया और उसके शरीर पर शिला रख कर यज्ञ किया गया था। जिस शिला को गयासुर के शरीर पर रखा गया उसे भगवान विष्‍णु ने अपने पैरों से दबा दिया। शिला पर भगवान के पैरों के चिह्न बन गए। इन्‍हीं चिह्नों के कारण इसे विष्‍णुपद कहा जाता है। इसी शिला पर बनी वेदियों में पितरों के मोक्ष के लिए पिंडदान कराया जाता है। 

पितृ पक्ष में पिंडदान करने जुटते हैं श्रद्धालु

हिंदू मान्‍यताओं में जितने संस्‍कारों की व्‍यवस्‍था की गई है उसमें मनुष्‍य का जीवन पूर्ण होने के बाद अंत्‍येष्टि को अंतिम संस्‍कार माना गया है। पुनर्जन्‍म की मान्‍यता के कारण हिंदू जीवन में पितरों को मोक्ष दिलाना उसकी संतान का दायित्‍व माना जाता है। इसी बात को ध्‍यान में रख कर पितृ पक्ष में यहां दुनिया भर से हिंदू अपने पितरों को पिंडदान करने के लिए जुटते हैं। 

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भगवान बुद्ध को यहीं मिला था ज्ञान

बौद्ध भगवान बुद्ध के प्रति अपनी आस्‍था को लेकर बोध गया की यात्रा करते हैं। भगवान बुद्ध ने यहीं लंबे समय तक तपस्‍या की और उन्‍हें ज्ञान प्राप्‍त हुआ था। भगवान बुद्ध का विश्‍व प्रसिद्ध बौध मंदिर यहां बोध गया में स्थित है जहां विश्‍व भर से विश्‍व भर से बौध मतावलंबी यहां आते हैं।

भगवान राम और माता सीता ने किया था पिंडदान

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गया से होकर बहने वाली फल्‍गू नदी और विष्‍णु पद मंदिर पिंडदान करने वालों के खास आकर्षण में रहता है। जिस नदी को आज फल्‍गू के नाम से जाना जाता है बौध जातक में उसका नाम निरंजना नदी है। लोक मान्‍यता के अनुसार, लंका विजय के बाद अयोध्‍या लौटने पर भगवान अपने पितरों के लिए पिंडदान करने पहुंचे थे। कहा जाता है कि जिस समय भगवान राम पिंडदान की सामग्री जुटाने गए थे उसी दौरान दशरथ आ गए और देवी सीता से उन्‍होंने पिंडदान करने की जिद कर दी। भगवान राम की अनुपस्थिति में माता सीता ने बालू का पिंड बनाकर दिया था। 

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