गाजियाबाद वाईबीएन संवाददाता
उत्तर प्रदेश की राजनीति में समाजवादी पार्टी (सपा) का एक अहम स्थान रहा है। मुलायम सिंह यादव से लेकर अखिलेश यादव तक, सपा ने प्रदेश की राजनीति को लंबे समय तक प्रभावित किया है। जब सपा की सरकार सत्ता में थी, उस दौरान पार्टी कार्यालय में गतिविधियाँ अपने चरम पर रहती थीं। उस दौर में राशिद मलिक, संजय यादव, धर्मवीर डबास, जेपी कश्यप, आदिल मलिक, जितेंद्र यादव, और जलालुद्दीन सिद्दीकी जैसे कई नेता पार्टी कार्यालय में सक्रिय भूमिका निभाते नजर आते थे। इन चेहरों की उपस्थिति न केवल पार्टी की ताकत को दर्शाती थी, बल्कि कार्यकर्ताओं में जोश और ऊर्जा का संचार भी करती थी।
सत्ता गई हुए लापता
हालांकि, जब से उत्तर प्रदेश की बागडोर योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के हाथ में आई है, सपा कार्यालय की रौनक कहीं फीकी पड़ गई है। पहले जो नेता पार्टी कार्यालय में दिन-रात सक्रिय दिखाई देते थे, वे अब या तो पूरी तरह से गायब हो गए हैं या फिर सार्वजनिक कार्यक्रमों से दूरी बनाए हुए हैं। यह बदलाव सिर्फ चेहरों का नहीं, बल्कि पार्टी की आंतरिक स्थिति और मनोबल में आए बदलाव का भी प्रतीक है।
नए को मौका पुराने का किनारा
इन नेताओं की गैरमौजूदगी के पीछे कई कारण हो सकते हैं। एक ओर जहां भाजपा की मजबूत पकड़ और निरंतर चुनावी सफलता ने विपक्षी पार्टियों को दबाव में रखा है, वहीं दूसरी ओर सपा के अंदरूनी संगठन और रणनीति में भी कमजोरियाँ नजर आ रही हैं। सत्ता से बाहर होने के बाद पार्टी कार्यकर्ताओं और नेताओं में वही ऊर्जा और उत्साह बनाए रखना एक बड़ी चुनौती बन जाती है। राजनीति में सक्रियता अक्सर अवसर और प्रभाव से जुड़ी होती है, और जब पार्टी विपक्ष में होती है, तो बहुत से नेता और कार्यकर्ता या तो दूसरी पार्टियों का रुख कर लेते हैं या राजनीतिक गतिविधियों से दूरी बना लेते हैं।
असुरक्षा और असंतोष
इसके अलावा, पार्टी नेतृत्व द्वारा पुराने और समर्पित नेताओं को पर्याप्त महत्व न दिए जाने की भी बातें सामने आती रही हैं। यह भी संभव है कि उपेक्षा और असंतोष के चलते कई पुराने चेहरे अब पार्टी से दूर हो गए हों। संगठन में युवा चेहरों को मौका देने की कोशिशों के बीच अनुभव और निष्ठा रखने वाले नेताओं को दरकिनार कर देना भी पार्टी के लिए नुकसानदायक सिद्ध हो सकता है।
दोहरी चुनौती
समाजवादी पार्टी के सामने इस समय दोहरी चुनौती है — एक ओर भाजपा जैसी मजबूत सत्ता पार्टी का सामना करना, और दूसरी ओर अपनी खुद की संगठनात्मक कमजोरी को सुधारना। अगर सपा को भविष्य में फिर से अपनी खोई हुई जमीन हासिल करनी है, तो उसे न केवल नए नेतृत्व को उभारना होगा, बल्कि पुराने और समर्पित नेताओं को भी फिर से सक्रिय करने की कोशिश करनी होगी। वरना, पार्टी धीरे-धीरे केवल नाम मात्र की संगठन बनकर रह जाएगी, जिसकी पहचान सिर्फ इतिहास में सिमट जाएगी।