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गाजियाबाद, वाईबीएन संवाददाता
भारत और चीन के रिश्ते लंबे समय से उतार-चढ़ाव भरे रहे हैं। 1962 के युद्ध के बाद से ही चीन का रुख भारत के प्रति संदेहास्पद रहा है। तिब्बत पर कब्जे के बाद चीन की नज़र लगातार लद्दाख और अरुणाचल प्रदेश पर बनी हुई है। 2020 की गलवान घाटी की घटना ने दोनों देशों के बीच तनाव को और गहरा कर दिया। हाल के वर्षों में चीन ने सीमा पर अपनी सैन्य स्थिति मजबूत की है, जबकि बातचीत के बावजूद विश्वास का माहौल नहीं बन सका है।
सीमा विवाद
व्यवसाय एवं समाजसेवी सिकंदर यादव का कहना है कि भारत के सामने बड़ी चुनौती केवल सीमा विवाद तक सीमित नहीं है, बल्कि आर्थिक मोर्चे पर भी है। भारतीय बाजार में चीन का दबदबा लगातार बढ़ता जा रहा है। मोबाइल फोन से लेकर खिलौनों तक, दीपावली की लाइट से लेकर घरेलू फर्नीचर तक – भारतीय उपभोक्ता चीनी सामान से घिरे हुए हैं। इसका सीधा असर भारत के कुटीर और लघु उद्योगों पर पड़ा है। खिलौना उद्योग तो लगभग खत्म होने की कगार पर है। स्थानीय उत्पादक चीनी माल के सामने टिक नहीं पा रहे।चीन की नीतियाँ हमेशा से साम्राज्यवादी और विस्तारवादी रही हैं। पाकिस्तान को खुफिया जानकारी और हथियार देने की घटनाएँ बताती हैं कि चीन की नीयत भारत के प्रति कभी भी मित्रवत नहीं रही। रक्षा विशेषज्ञ भी मानते हैं कि पाकिस्तान से बड़ा खतरा भारत के लिए चीन है।
व्यापारिक नीतियां
भारत सरकार को अपनी विदेश नीति और व्यापारिक नीतियों में इस तथ्य को ध्यान में रखना होगा। चीन को एकतरफा लाभ पहुँचाना दीर्घकाल में भारत के लिए हानिकारक है। आत्मनिर्भर भारत अभियान और "वोकल फॉर लोकल" जैसे प्रयासों को मजबूती से आगे बढ़ाने की जरूरत है। यदि भारत अपने ही बाजार को मजबूत करेगा, तभी चीन पर निर्भरता घटेगी। भारत के लिए यह समय सतर्क रहने का है। आर्थिक सहयोग की आड़ में किसी ऐसे पड़ोसी को मजबूत करना, जो कल शत्रु बनकर सामने खड़ा हो, एक बड़ी भूल साबित हो सकती है। अतः नीतिगत स्तर पर कठोर और संतुलित निर्णय लेने की आवश्यकता है ताकि भारत की सुरक्षा, अर्थव्यवस्था और भविष्य सुरक्षित रह सके।