Advertisment

Politics : पार्षद मेयर सब है बेकार, निगम में ब्यूरोक्रेसी है सबसे ज्यादा असरदार.....

नगर निगम सदन की बैठकों में पारित प्रस्तावों और उनके धरातल पर लागू होने के बीच की खींचतान एक बार फिर चर्चा का विषय बन गई है। ताज़ा मामला निगम वसुंधरा जोन प्रभारी सुनील कुमार द्वारा इंदिरापुरम शिप्रा सन सिटी निवासी रविंद्र नाथ दूबे को भेजे गए 50 लाख रुपये

author-image
Syed Ali Mehndi
एडिट
Nagar Nigam GZB

नगर निगम गाजियाबाद

Listen to this article
0.75x1x1.5x
00:00/ 00:00

गाजियाबाद,वाईबीएन संवाददाता

नगर निगम सदन की बैठकों में पारित प्रस्तावों और उनके धरातल पर लागू होने के बीच की खींचतान एक बार फिर चर्चा का विषय बन गई है। ताज़ा मामला निगम वसुंधरा जोन प्रभारी सुनील कुमार द्वारा इंदिरापुरम शिप्रा सन सिटी निवासी रविंद्र नाथ दूबे को भेजे गए 50 लाख रुपये के मानहानि नोटिस से जुड़ा है। यह नोटिस वकील नवीन मित्तल के माध्यम से भेजा गया, जिसमें साफ कहा गया है कि निगम अधिकारी वैधानिक रूप से केवल राज्य सरकार से प्राप्त आदेशों के पालन के लिए बाध्य होते हैं, न कि सदन में पारित किसी भी प्रस्ताव के लिए।

निगम संवैधानिक संस्था

नगर निगम एक संवैधानिक संस्था है जो नगर निगम अधिनियम के तहत संचालित होती है। इस संस्था का मुख्य कार्यकारी अधिकारी नगर आयुक्त होता है, जो सीधे राज्य सरकार के आदेशों के अधीन काम करता है। आयुक्त द्वारा प्राप्त आदेशों को अधीनस्थ अधिकारियों के माध्यम से लागू कराया जाता है। दूसरी ओर, नगर निगम के मेयर और पार्षद जनता द्वारा चुनी गई व्यवस्था का हिस्सा होते हैं, जो सदन में जनहित से जुड़े प्रस्ताव पारित करते हैं। लेकिन इन प्रस्तावों का वास्तविक क्रियान्वयन राज्य सरकार की अनुमति के बाद ही संभव हो पाता है।दरअसल, विवाद की जड़ टैक्स वसूली को लेकर है। निगम सदन की बैठक में डीएम सर्किल रेट से टैक्स वसूली के प्रस्ताव को निरस्त कर दिया गया था। इसके बावजूद जब निगम की ओर से उसी आधार पर टैक्स नोटिस जारी किए गए, तो रविंद्र नाथ दूबे ने इसका विरोध किया। दूबे के इस एतराज के बाद सुनील कुमार द्वारा मानहानि नोटिस भेजा जाना पूरे शहर में चर्चा का विषय बन गया।

सदन है सर्वोच्च

बीजेपी के पूर्व पार्षद हिमांशु मित्तल ने इस पूरे प्रकरण पर कड़ी प्रतिक्रिया दी। उन्होंने कहा कि निगम अधिनियम की धारा 117/5 में साफ उल्लेख है कि नगर निगम प्रशासन कार्यकारिणी के अधीन होगा। ऐसे में यदि सदन कोई प्रस्ताव पारित करता है तो निगम प्रशासन का दायित्व बनता है कि वह उसे लागू करे। उनका आरोप है कि निगम अधिकारी एक्ट का समुचित अध्ययन किए बिना मनमानी कर रहे हैं।इस घटना ने निगम प्रशासन और निर्वाचित प्रतिनिधियों के बीच जारी खींचतान को उजागर कर दिया है। एक तरफ अधिकारी राज्य सरकार के आदेशों को सर्वोपरि मानते हैं, वहीं दूसरी ओर जनता द्वारा चुने गए प्रतिनिधि चाहते हैं कि सदन में पारित प्रस्तावों को प्राथमिकता दी जाए। इसी टकराव के कारण कई बार जनहित से जुड़े निर्णय अटक जाते हैं और जनता को उसका सीधा नुकसान उठाना पड़ता है।

लोकतांत्रिक कार्यप्रणाली 

विशेषज्ञों का मानना है कि इस तरह की स्थिति नगर निगम की लोकतांत्रिक कार्यप्रणाली पर सवाल खड़े करती है। यदि सदन की भूमिका केवल प्रस्ताव पारित करने तक सीमित रह जाएगी और उनका क्रियान्वयन पूरी तरह राज्य सरकार पर निर्भर करेगा, तो स्थानीय शासन की प्रभावशीलता पर प्रश्नचिह्न लगना स्वाभाविक है।गाजियाबाद नगर निगम में यह मामला फिलहाल गरमाया हुआ है। आने वाले दिनों में देखना होगा कि राज्य सरकार और नगर निगम प्रशासन इस विवाद को किस तरह सुलझाते हैं। लेकिन इतना तय है कि जब तक निर्वाचित प्रतिनिधियों और अधिकारियों के बीच तालमेल नहीं बनेगा, तब तक नगर निगम के फैसलों का लाभ जनता तक सही ढंग से नहीं पहुंच पाएगा।

Advertisment
Advertisment