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कल्पनिक चित्र
गाजियाबाद,वाईबीएन संवाददाता
गाजियाबाद की राजनीति में इन दिनों एक मुस्लिम सपा नेता की बढ़ती आर्थिक हैसियत चर्चा का प्रमुख विषय बनी हुई है। खासकर इसलिए क्योंकि यह उभार योगी शासनकाल के दौरान देखने को मिला है, जब कई भाजपा समर्थित बड़े कारोबारी आर्थिक चुनौतियों का सामना कर रहे हैं। वहीं, यह सपा नेता व्यवसायिक विस्तार और राजनीतिक पहुंच दोनों में लगातार तरक्की करता दिखाई दे रहा है।स्थानीय राजनीतिक हलकों में सवाल तेजी से उठ रहे हैं कि आखिर कैसे एक समय छोटा कबाड़ी समझे जाने वाले इस व्यक्ति ने कुछ ही वर्षों में हजारों करोड़ के स्क्रैप साम्राज्य की नींव रख दी। सूत्रों का दावा है कि यह सब उनकी “फ्लैक्सिबिलिटी” और सत्ता व्यवस्था में गहरी पैठ के चलते संभव हो पाया, जिसकी चर्चा अब खुले मंचों और सोशल मीडिया पर भी होने लगी है।
योगीराज में चौगुनी रफ्तार से बढ़ा कारोबार
गाजियाबाद के घंटाघर कोतवाली क्षेत्र के मुस्लिम बहुल इलाके में रहने वाला यह सपा नेता कथित रूप से आज ऐसा प्रभावशाली नाम बन चुका है कि स्थानीय प्रशासनिक अधिकारी, कर विभाग के कर्मचारी और कई सरकारी विभाग उसके एक फोन पर सक्रिय हो जाते हैं।सूत्रों के अनुसार, पिछले छह वर्षों के भीतर उसके कारोबार में पाँच गुना तक वृद्धि हुई है। यह भी दावा किया जा रहा है कि जीएसटी, इनकम टैक्स सहित कई विभागों में उनकी मजबूत पकड़ है और बड़ी नीलामियों में अक्सर उनकी हिस्सेदारी देखने को मिलती है।राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि योगी सरकार में जहां कई मुस्लिम चेहरों को तनावपूर्ण माहौल महसूस होता है, वहीं इस सपा नेता की प्रगति बताती है कि उन्होंने प्रशासनिक और राजनीतिक स्तर पर अपने लिए एक अनोखी जगह बना ली है। कुछ इसे “किस्मत” कह रहे हैं, तो कुछ इसे “सियासी प्रबंधन” का कमाल बता रहे हैं।
माननीय को दी मात, BSNL स्क्रैप का सौदा हथियाने की चर्चा
सत्ता गलियारों में इस समय सबसे चर्चित किस्सा एक बड़े स्क्रैप सौदे को लेकर है। बताया जा रहा है कि मेरठ मंडल के बीएसएनएल विभाग में कई करोड़ रुपये के पुराने उपकरणों और सामान की नीलामी की प्रक्रिया चल रही थी।इस नीलामी में एक पक्ष में उक्त सपा नेता का ग्रुप था, जबकि दूसरी तरफ एक प्रभावशाली माननीय नेता की टीम भी इस सौदे पर दावा ठोक रही थी। दोनों ओर से राजनीतिक संपर्कों और प्रशासनिक दबाव की सारी कोशिशें हुईं, परंतु अंत में वह सौदा सपा नेता के खाते में चला गया।सूत्रों का कहना है कि यह घटना उनके बढ़ते “प्रभाव” का सबसे बड़ा उदाहरण बनकर उभरी है। विपक्ष से लेकर सत्ता दल के भीतर तक इस बात की चर्चा है कि आखिर ऐसा क्या है जो इस नेता को हर बार फायदा दिला देता है।
पार्टी से दूरी, कारोबार में एकाग्रता
दिलचस्प बात यह है कि यह सपा नेता कभी मुलायम सिंह यादव और आज़म खान के बेहद नजदीकी माने जाते थे। बाद में अखिलेश यादव के कार्यकाल में भी उनकी भूमिका मजबूत रही। लेकिन कथित तौर पर राजनीतिक गतिविधियों से दूरी बनाकर यह नेता अब पूरी तरह कारोबार पर केंद्रित हो चुका है।स्थानीय लोगों के अनुसार, वह अब किसी भी पार्टी कार्यक्रम में खुलकर हिस्सा नहीं लेता। राजनीतिक मंचों से दूरी ने उसके व्यवसाय को और अधिक “अनुकूल माहौल” उपलब्ध कराया है, क्योंकि इस दूरी से वह हर दल के लोगों से संबंध साध पाने में सफल रहा है।स्क्रैप, रीसाइकिलिंग, मेटल और अन्य सरकारी नीलामियों से जुड़े कारोबार के चलते उसकी पहुँच अब उत्तराखंड तक बढ़ चुकी है और उसका व्यावसायिक वृहद ढांचा हजारों करोड़ रुपये के लेनदेन से जुड़ा बताया जा रहा है।
बेटे को भेजा RSS समर्थित मुस्लिम राष्ट्रीय मंच में
इसके साथ ही एक और बड़ा राजनीतिक समीकरण चर्चा में है—सपा नेता द्वारा अपने बेटे को मुस्लिम राष्ट्रीय मंच की उच्च स्तरीय टीम में शामिल करवाना। यह संगठन आरएसएस के वरिष्ठ नेता इंद्रेश कुमार के मार्गदर्शन में कार्य करता है और मुस्लिम समाज में संवाद स्थापित करने का मिशन रखता है।राजनीतिक जानकारों का कहना है कि यह कदम दिखाता है कि सपा नेता ने सिर्फ अपना व्यापार ही नहीं, बल्कि सत्ता से समीकरण भी बहुत गहराई से साध रखे हैं। यह नियुक्ति उनके दोनों ओर रिश्ते मजबूत करने की रणनीति का हिस्सा मानी जा रही है।
चर्चाओं के केंद्र में “फ्लैक्सिबिलिटी” की नीति
विशेषज्ञों का मानना है कि भारतीय राजनीति और कारोबार में सफलता कई बार कठोर नीति के बजाय लचीलेपन से मिलती है। यह सपा नेता इसी सिद्धांत पर चलता दिखाई देता है।
• वह सत्ता पक्ष से टकराव से बचता है
• प्रशासनिक अधिकारियों से मधुर संबंध रखता है
• विपक्ष की पहचान बनाए रखते हुए सत्ताधारी व्यवस्था में प्रवेश भी बनाकर रखता है।
यही वजह है कि योगी शासन में भी उसका दायरा कम होने के बजाय बढ़ता गया।गाजियाबाद और पूरे पश्चिमी यूपी के राजनीतिक माहौल में यह सपा नेता इन दिनों सबसे चर्चित चेहरा है—चाहे वह उसकी बढ़ती दौलत हो, प्रशासन में पकड़, स्क्रैप व्यवसाय की ऊंचाइयां, या फिर आरएसएस से जुड़े मंच में बेटे को भेजने की चाल।समर्थक इसे “मेहनत और प्रबंधन” बताते हैं, जबकि आलोचक इसे “जुगाड़ और राजनीतिक समीकरणों का खेल” कह रहे हैं।सच क्या है, यह तो समय बताएगा, लेकिन फिलहाल इस नेता का नाम गाजियाबाद से लेकर देहरादून तक व्यापारिक और राजनीतिक चर्चाओं के केंद्र में बना हुआ है।
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