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दिव्यांग
गाजियाबाद वाईबीएन संवाददाता
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने विकलांग शब्द की जगह "दिव्यांग" शब्द का उपयोग कर एक सकारात्मक पहल की थी। इस शब्द के पीछे सोच थी कि समाज ऐसे लोगों को सम्मान की दृष्टि से देखे, जिनमें विशेष योग्यताएं हैं। इसके साथ ही सरकार ने वादा किया था कि दिव्यांग जनों के जीवन स्तर में सुधार लाया जाएगा, उन्हें बेहतर सुविधाएं, सम्मान और अधिकार मिलेंगे। लेकिन जमीनी हकीकत कुछ और ही कहानी बयां करती है, खासकर उत्तर प्रदेश के गाजियाबाद जिले में।
बेहद लापरवाही
गाजियाबाद में दिव्यांग जनों के प्रमाण पत्र बनाने की प्रक्रिया में भारी लापरवाही और देरी सामने आ रही है। ये प्रमाण पत्र दिव्यांग जनों के लिए बहुत महत्वपूर्ण होते हैं, क्योंकि इन्हीं के आधार पर उन्हें सरकारी योजनाओं, पेंशन, शिक्षा, चिकित्सा और नौकरी में आरक्षण जैसी सुविधाएं मिलती हैं। लेकिन जब यही प्रमाण पत्र समय पर नहीं बन पाते, तो दिव्यांगों का पूरा जीवन प्रभावित होता है। प्रमाण पत्र के लिए आवेदन करने वाले लोगों को बार-बार अस्पतालों और सरकारी दफ्तरों के चक्कर लगाने पड़ रहे हैं। कहीं डॉक्टर उपलब्ध नहीं हैं, तो कहीं दस्तावेजों की जांच में अनावश्यक देरी की जाती है। कई मामलों में दिव्यांग व्यक्ति को महीनों इंतजार करना पड़ता है, और कई बार बिना किसी कारण के उनका आवेदन रद्द कर दिया जाता है।
चिंताजनक बात
इससे भी चिंताजनक बात यह है कि जब दिव्यांग जन या उनके परिजन इस विषय पर जवाब मांगते हैं, तो स्वास्थ्य विभाग के अधिकारी या संबंधित कर्मचारी कोई भी स्पष्ट उत्तर देने से बचते हैं। न तो कोई समयसीमा दी जाती है, न ही प्रक्रिया को पारदर्शी बनाया जाता है। यह रवैया दिव्यांगों के साथ हो रहे अन्याय को और अधिक गंभीर बना देता है।प्रधानमंत्री द्वारा "दिव्यांग" शब्द के माध्यम से जो सम्मान देने की कोशिश की गई थी, वह गाजियाबाद की वर्तमान स्थिति में खोती हुई नजर आ रही है। एक तरफ देश दिव्यांगों को सशक्त बनाने की बात कर रहा है, वहीं दूसरी ओर ज़मीनी व्यवस्था उन्हें अपमान और असुविधा की ओर धकेल रही है।
समाधान जरूरी
समस्या का समाधान प्रशासनिक इच्छाशक्ति, जवाबदेही और पारदर्शिता में छिपा है। स्वास्थ्य विभाग और स्थानीय प्रशासन को इस दिशा में तुरंत ध्यान देने की आवश्यकता है। साथ ही, एक समर्पित शिकायत प्रणाली और समयबद्ध प्रमाण पत्र वितरण की व्यवस्था लागू करनी चाहिए। दिव्यांग जनों को उनके अधिकारों से वंचित रखा जाएगा, तो "दिव्यांग" शब्द की भावना केवल एक खोखला प्रतीक बनकर रह जाएगी। अब समय आ गया है कि केवल शब्दों से नहीं, बल्कि ठोस कार्यों से दिव्यांगों को सशक्त बनाया जाए।