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secret police diary-अब क्यों मेंटेन नहीं हो रही पुलिस की गोपनीय डायरी

बाबा आदम यानि कि अंग्रेजी शासकों के समय में बने नियम कानूनों की लकीर पुलिस महकमे में आज भी पीटी जा रही है। उन्हीं नियमों में से एक अति महत्वपूर्ण कार्य को थानेदारों ने करना ही छोड़ दिया है। नतीजा कानून व्यवस्था में सुधार के बजाय कानून व्यवस्था

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Subhash Chand
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पुलिस की गोपनीय डायरी (प्रतीकात्मक) Photograph: (Google)

गाजियाबाद, वाईबीएन संवाददाता 

बाबा आदम यानि कि अंग्रेजी शासकों के समय में बने नियम कानूनों की लकीर पुलिस महकमे में आज भी पीटी जा रही है। उन्हीं नियमों में से एक अति महत्वपूर्ण कार्य को थानेदारों ने करना ही छोड़ दिया है। नतीजा कानून व्यवस्था में सुधार के बजाय कानून व्यवस्था पटरी से उतरती जा रही है। हालात यह हो गए हैं कि पुराने अपराधियों की नई वंशबेल ने पुलिस के अपराध नियंत्रण के कारगर तरीकों पर पानी फेर दिया है। इसके लिए काफी हद तक थानेदार जिम्मेदार है। सूत्रों की मानें तो प्रदेश के 90 फीसदी थानों में गोपनीय डायरी को थानेदार मेंटेन ही नहीं कर रहे हैं। हा करते भी हैं तो महज खानापूर्ति के लिए। इसके पीछे के कारण जो भी हो, लेकिन गोपनीय डायरी न लिखने से पुलिस को ही नुकसान है। मालूम हो कि रजिस्टर नंबर आठ के अलावा एक गोपनीय डायरी थानेदार के पास होती है, जिसे वह स्वयं लिखते है। क्षेत्र की समस्या क्या है, कौन आदमी अच्छा है, कौन पुलिस के विरुद्ध कार्य कर रहा है। ऐसी समस्या जो रजिस्टर नंबर 8 में दर्ज नहीं की जा सकती। जैसे क्षेत्र के जनप्रतिनिधि की हरकतें, उनके रिश्तेदारों के दबंग जातीय समीकरण, इलाके में किस धर्म के लोग ज्यादा हैं, कौन अल्पसंख्यक है, कौन पुलिस के मद्दगार है। क्षेत्र में किन परिस्थितियों में हालात बिगड़ते हैं, उसके जिम्मेदार कौन है। सही मायने में देखा जाए तो गोपनीय डायरी लिखने की प्रथा बिल्कुल थम गई है। यह गोपनीय डायरी जिसमें न जाने कितने राज होते थे वह पहले लिखी जाती थी, पर अब वह गोपनीय डायरी मालखाने की शोभा बढ़ा रही है। या फिर यूं कहें की डायरी मालखाने में धूल फांक रही है। प्रदेश के थानों में शायद ही नए थानेदारों को गोपनीय डायरी हैंड ओवर की गई हो। वैसे थानेदार भी पचड़े में पढ़ना ही नही चाहते। थानेदारों का तर्क होता है कि वर्क लोड ज्यादा है, राजनीतिक हस्तक्षेप बढ़ गया है, डायरी लिखना मुश्किल होता है। ऐसे में यदि डायरी लिखी भी गई तो बस ट्रांसफर के इर्द-गिर्द। आपको बता दें कि इस गोपनीय डायरी और गोपनीय रूप से कानून व्यवस्था में सुधार लाया जा सकता है। उन लोगों के क्रिया-कलापों के बारे में जानकारी हासिल की जा सकती थी जो शराफत का चोला ओढ़कर अपराध की दुनिया में मोहरे फिट करते हैं। खादी वाले नेता है पर धंधा लुटेरों को कर रहे हैं। धार्मिक भावनाओं को भड़का रहे हैं। कानून व्यवस्था में अड़चन डालने वाले ऐसे कई लोगों की शख्सियत को थानेदार जिस गोपनीय डायरी में दर्ज कर आने वाले नए थानेदार के सुपुर्द करते थे, आज वही डायरी प्रदेश के थानों के मालखाने में पड़ी धूल फांक रही है। आखिरी बार गोपनीय डायरी कब लिखी गई, कहां है और क्यों बंद हो गई गोपनीय डायरी की परंपरा? इन सवालों का किसी के पास कोई जवाब नही है। 

शिकंजा कसने में मिलती थी कामयाबी

अपराध नियंत्रण में 90 फीसदी यह गोपनीय डायरी कारगर सिद्ध रही है। थानों में अपराधियों के करतूत और जानकारी रजिस्टर नंबर आठ में दर्ज की जाती है। गोपनीय डायरी में ब्रिटिश जमाने से महत्वपूर्ण माना जाता है। क्षेत्र में सफेदपोशों की करतूतें, समाज के ठेकेदार बने लोगों की खुराफात, धार्मिक उन्माद भड़काने वाले कथित धर्मगुरु और जनप्रतिनिधियों की कुंडली गोपनीय डायरी में मिल जाती थी।

थानेदार को होती थी आसानी

गोपनीय डायरी लिखने की मंशा यही थी कि क्षेत्र की महत्वपूर्ण जानकारी पहले से होने पर नए थानेदार बेतहासा तरीके से अपराध को नियंत्रित कर सकेगा, लेकिन अब ठीक इसके उलट है, क्योंकि अब थानों में ज्यादातर तैनाती राजनीतिक पहुंच से होती है। थानों को अब ठेकेदार चला रहे हैं।

अब बदल गया है तरीका

थानेदार अपराधियों के बजाय यह जानकारी एकत्र करते हैं कि अवैध कार्य करने वाले कौन हैं। उनसे कितना पैसा लिया जाना है। अवैध कमाई के स्त्रोत क्या है। थानेदार डायरी लिखने में इसलिए बचते हैं जिन सफेदपोश आकाओं की बदौलत वे बेनामी संपत्ति जुटा रहे है उसकी गोपनीयता भंग हो जाएगी।

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सबके सफेदपोशों से संबंध 

इन सब बातों से उक्त अधिकारी भी अनजान नहीं है। अब तो शायद ही ऐसा कोई थानेदार हो जिस के संबंध सफेदपोश से न हो। यहां तक की नाता तो माफियाओं से भी है? हालांकि प्रदेश के कुछ थानों में थानाध्यक्ष डायरी लिखते हैं, जबकि अधिकांश थानों में डायरी मालखाने में पड़ी रहती है।

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