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Explainer : अमेरिका के 'टैरिफ युद्ध' का वो कड़वा सच जो Donald Trump नहीं बताएंगे | यंग भारत न्यूज Photograph: (YBN)
नई दिल्ली, वाईबीएन डेस्क ।Tariff यह शब्द सुनते ही दिमाग में आता है किसी देश के आयात होने वाले माल पर लगा अतिरिक्त शुल्क। जब कोई देश दूसरे देश के उत्पादों पर यह शुल्क बढ़ाता है, तो उसका एक मकसद होता है – अपने घरेलू उद्योगों को बचाना और व्यापार घाटे को कम करना। लेकिन, क्या यह दांव हमेशा सही पड़ता है?
अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने अपने दूसरे कार्यकाल में इसी रणनीति को 'टैरिफ युद्ध' के रूप में दुनिया के सामने पेश किया। उन्होंने भारत, रूस, चीन समेत दुनिया के कई देशों पर भारी-भरकम शुल्क ठोका, जिसका सबसे बड़ा उदाहरण भारत से कच्चे तेल पर 50 परसेंट का अतिरिक्त टैरिफ रहा। लेकिन अब, इस आर्थिक हथियार का नतीजा सामने आ रहा है और यह अमेरिका की कंपनियों और आम जनता की जेब पर भारी पड़ रहा है।
आइए Young Bharat News के इस Explainer में विश्व विख्यात अर्थशास्त्री प्रो. गीता गोपीनाथ के एक सोशल मीडिया पोस्ट की पूरी विश्लेषणात्मक रिपोर्ट।
दुनिया की जानी-मानी अर्थशास्त्री और हार्वर्ड यूनिवर्सिटी की प्रोफेसर गीता गोपीनाथ ने इस पूरे मामले पर जो चौंकाने वाली सच्चाई बताई है, वह ट्रंप की 'अमेरिका फर्स्ट' नीति की नींव हिला सकती है। IMF की पूर्व मुख्य अर्थशास्त्री गीता गोपीनाथ ने डोनाल्ड ट्रंप के टैरिफ फैसलों पर बड़ा खुलासा किया है। उनका कहना है कि टैरिफ ने अमेरिकी सरकार का राजस्व तो बढ़ाया, लेकिन इसका पूरा बोझ अमेरिकी कंपनियों और आम उपभोक्ताओं पर 'टैक्स' की तरह पड़ा है।
गोपीनाथ के मुताबिक, छह महीने बाद भी ये नीतियां न तो महंगाई रोकने में सफल हुईं और न ही व्यापार संतुलन सुधार पाईं, जिससे अमेरिका के लिए यह एक नकारात्मक स्कोरकार्ड साबित हुआ है।
It is 6 months since "Liberation day" tariffs. What have US tariffs accomplished?
— Gita Gopinath (@GitaGopinath) October 6, 2025
1. Raise revenue for government? Yes. Quite substantially. Borne almost entirely by US firms and passed on some to US consumers. So it has worked like a tax on US firms/consumers.
2. Raise… pic.twitter.com/KZG3UgKB3S
टैरिफ एक 'टैक्स' है, लेकिन चुका कौन रहा है?
ट्रंप के टैरिफ लागू करने के पीछे का तर्क सीधा था विदेशी कंपनियों से पैसा वसूलना और अमेरिकी उद्योगों को प्रोत्साहन देना। लेकिन, गोपीनाथ ने अपने विश्लेषण में साफ कर दिया कि यह पैसा विदेशी नहीं, बल्कि अमेरिकी जनता की जेब से निकल रहा है। जैसे ही अमेरिका ने किसी दूसरे देश के माल पर टैरिफ लगाया, आयात करने वाली अमेरिकी कंपनियों के लिए लागत बढ़ गई। कंपनियों ने इस बढ़ी हुई लागत को या तो अपने मुनाफे में कटौती करके बर्दाश्त किया या फिर सीधे-सीधे उपभोक्ताओं Consumers पर डाल दिया।
गीता गोपीनाथ कहती हैं, "टैरिफ की घोषणा को छह महीने हो गए हैं। अमेरिका के टैरिफ से क्या हासिल हुआ? क्या सरकार के लिए राजस्व बढ़ा? हां, काफी बढ़ा। लेकिन, यह पैसा लगभग पूरी तरह से अमेरिकी कंपनियों और कुछ हद तक अमेरिकी उपभोक्ताओं से ही लिया गया। तो इसने अमेरिकी कंपनियों/उपभोक्ताओं पर एक टैक्स की तरह काम किया।"
यह एक ऐसा खुलासा है जो यह दर्शाता है कि टैरिफ दरें सिर्फ कागजों पर बाहरी देशों पर लगाई जाती हैं, लेकिन इसका अंतिम भुगतान घरेलू बाजार को ही करना पड़ता है। यानी, टैरिफ दरअसल एक छिपा हुआ घरेलू टैक्स बन गया है।
क्या बढ़ी हुई महंगाई ने आम अमेरिकी की रसोई का बजट बिगाड़ा?
किसी भी देश की जनता के लिए सबसे बड़ा सवाल होता है- महंगाई। जब अमेरिका ने आयातित माल पर शुल्क बढ़ाया तो कई दैनिक उपयोग की वस्तुएं महंगी हो गईं। गीता गोपीनाथ के मुताबिक कुल मिलाकर थोड़ी महंगाई बढ़ी खासकर उन वस्तुओं में जो विदेशों से बड़ी मात्रा में आयात होती हैं।
दामों में उछाल: घरेलू उपकरण, Home Appliances, वॉशिंग मशीन, रेफ्रिजरेटर जैसे बड़े उपकरणों की कीमतें बढ़ीं। फर्नीचर Furniture आयातित लकड़ी और तैयार फर्नीचर महंगे हुए।
कॉफी Coffee: कई देशों पर टैरिफ से कॉफी जैसे खाद्य पदार्थों के दाम भी प्रभावित हुए। यह सीधी चोट मध्यम और निम्न-आय वर्ग के परिवारों पर पड़ी, जिनका बजट पहले से ही कसकर चलता है।
जब आयातित माल महंगा होता है तो लोग घरेलू विकल्प की तरफ जाते हैं, लेकिन अगर घरेलू विकल्प सीमित हों या उनकी कीमतें भी प्रतिस्पर्धा के अभाव में बढ़ जाएं तो आम आदमी की मुश्किलें बढ़ जाती हैं।
सोचिए एक अमेरिकी परिवार को नया फ्रिज खरीदना है। ट्रंप के टैरिफ के कारण फ्रिज की कीमत 100 बढ़ गई। यह बढ़ी हुई 100 गुना लागत अमेरिकी ट्रेजरी को राजस्व के रूप में मिली, लेकिन चुकाया किसने? उस अमेरिकी परिवार ने।
व्यापार संतुलन और मैन्युफैक्चरिंग क्या ट्रंप का 'मास्टरस्ट्रोक' फेल हुआ?
डोनाल्ड ट्रंप की टैरिफ नीति का एक मुख्य उद्देश्य व्यापार संतुलन Trade Balance को अमेरिका के पक्ष में लाना था। उनका सपना था कि आयात कम हो और निर्यात बढ़े, जिससे अमेरिका का व्यापार घाटा Trade Deficit कम हो जाए।
दूसरा बड़ा लक्ष्य था अमेरिकी मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर को पुनर्जीवित करना और 'मेक अमेरिका ग्रेट अगेन' के नारे को साकार करना। लेकिन गीता गोपीनाथ का स्कोरकार्ड इन दोनों मोर्चों पर निराशाजनक है व्यापार संतुलन नहीं सुधरा गोपीनाथ कहती हैं, "क्या व्यापार संतुलन सुधरा? अभी तक इसका कोई संकेत नहीं है।"
यह इस बात का प्रमाण है कि सिर्फ टैरिफ लगा देने से लंबी अवधि के व्यापारिक समीकरण नहीं बदलते। दुनिया के दूसरे देश भी जवाबी कार्रवाई करते हैं या वैकल्पिक व्यापारिक साझेदार ढूंढ़ लेते हैं।
मैन्युफैक्चरिंग को बढ़ावा नहीं
"क्या अमेरिका में मैन्युफैक्चरिंग को बढ़ावा मिला? इसका भी कोई संकेत नहीं है।" टैरिफ से आयात महंगा हुआ, लेकिन अमेरिकी कंपनियों को उत्पादन के लिए जो कच्चा माल चाहिए था, वह भी कई बार आयातित होता है। लागत बढ़ने से घरेलू उत्पादन को उतना बढ़ावा नहीं मिला, जितना सोचा गया था। टैरिफ एक दोधारी तलवार की तरह साबित हुआ। इसने सिर्फ लागत बढ़ाई, लेकिन उत्पादन की प्रतिस्पर्धात्मकता Competitiveness को बढ़ाने में विफल रहा।
आर्थिक नहीं, राजनीतिक दांवपेंच? आलोचकों की तीखी राय
टैरिफ की नीतियों पर सिर्फ गीता गोपीनाथ ही सवाल नहीं उठा रही हैं। कई अन्य विशेषज्ञ और आलोचक भी इसे एक आर्थिक गलती मान रहे हैं।
लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स के स्कूल ऑफ पब्लिक पॉलिसी के डीन एंड्रेस वेलास्को का कहना है कि अमेरिका ने टैरिफ आर्थिक कारणों से नहीं बल्कि राजनीतिक कारणों से लगाए हैं। यह तर्क काफी महत्वपूर्ण है। टैरिफ लगाने का फैसला अक्सर घरेलू राजनीतिक वोट बैंक को साधने के लिए किया जाता है, खासकर उन राज्यों में जहां मैन्युफैक्चरिंग और स्टील उद्योग जैसे क्षेत्र प्रमुख हैं।
ट्रंप का नारा 'अमेरिका फर्स्ट' इन्हीं भावनाओं पर आधारित था। लेकिन, अर्थशास्त्रियों का कहना है कि कर्ज में डूबे अमेरिका के लिए टैरिफ बढ़ाना कोई समाधान नहीं है। यह नीति अमेरिका को दुनिया से अलग-थलग Isolated कर सकती है।
आलोचकों की मुख्य चिंताएं जवाबी कार्रवाई Retaliation
टैरिफ लगाने पर दूसरे देश भी अमेरिका के निर्यात पर जवाबी शुल्क लगाएंगे, जिससे अमेरिकी निर्यातकों को नुकसान होगा। विश्वसनीयता का नुकसान बार-बार टैरिफ नीति बदलने से अमेरिका की वैश्विक व्यापारिक विश्वसनीयता कम होती है। नए गठजोड़ दूसरे देश अमेरिका पर निर्भरता कम करके, आपस में नए व्यापार समझौते Trade Agreements बढ़ाएंगे। इससे अमेरिका वैश्विक व्यापार के केंद्र से बाहर हो सकता है।
दुनिया के लिए 'अच्छा' या 'बुरा'? भू-राजनीतिक समीकरण
दिलचस्प बात यह है कि कुछ जानकारों का मानना है कि ट्रंप के टैरिफ अमेरिका के लिए बुरा हो सकता है, लेकिन बाकी दुनिया के लिए अच्छा। यह कैसे? जब अमेरिका एक व्यापारिक साझेदार से टैरिफ के कारण माल लेना बंद कर देता है तो वह साझेदार दूसरे देशों को निर्यात करना शुरू कर देता है। इससे वैश्विक व्यापार के नए रास्ते खुलते हैं और चीन, भारत, वियतनाम जैसे देशों को अपने निर्यात को बढ़ाने का मौका मिलता है।
ट्रंप के अलगाववादी फैसलों ने दुनिया के बाकी देशों को एकजुट होने के लिए मजबूर किया है। उदाहरण के लिए, यूरोपियन यूनियन और एशियाई देशों के बीच व्यापार समझौते मजबूत हो रहे हैं। वे एक ऐसा विश्व व्यापार मंच बनाना चाहते हैं जो अमेरिकी नीतियों पर कम निर्भर हो। इसलिए, अल्पकालिक रूप से अमेरिकी उपभोक्ताओं को नुकसान हो रहा है, लेकिन दीर्घकालिक रूप से यह वैश्विक व्यापार को एक बहु-ध्रुवीय Multi-polar व्यवस्था की ओर धकेल रहा है, जहां एक देश की मर्जी नहीं चलेगी।
टैरिफ का गणित, अर्थव्यवस्था 'फेल'
गीता गोपीनाथ का विश्लेषण एक कड़वी सच्चाई को सामने रखता है। टैरिफ एक जादुई छड़ी नहीं है। यह जटिल वैश्विक अर्थव्यवस्था में सिर्फ एक लागत बढ़ाने वाला कारक है, जिसका बोझ अंततः घरेलू उपभोक्ताओं को उठाना पड़ता है।
ट्रंप प्रशासन ने टैरिफ को एक 'विजय' के रूप में पेश किया, लेकिन वास्तव में इसका परिणाम एक 'नकारात्मक स्कोरकार्ड' रहा है। न तो व्यापार संतुलन सुधरा, न महंगाई रुकी और न ही मैन्युफैक्चरिंग को उम्मीद के मुताबिक बढ़ावा मिला।
टैरिफ से मिला राजस्व सीधे अमेरिकी कंपनियों और उपभोक्ताओं की जेब से निकला हुआ टैक्स साबित हुआ। ट्रंप का 'टैरिफ बम' अमेरिकी अर्थव्यवस्था के लिए एक आत्मघाती कदम साबित हो रहा है, जिसका दर्द अमेरिकी जनता को महसूस हो रहा है, जबकि दुनिया धीरे-धीरे अमेरिका पर अपनी निर्भरता कम करने के लिए नए रास्ते तलाश रही है।
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