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Explainer : Nepal का तलेजु भवानी मंदिर – जहां से शुरू होती है कुमारी परंपरा, क्या है बाल देवी का रहस्य? | यंग भारत न्यूज Photograph: (YBN)
नई दिल्ली, वाईबीएन डेस्क ।नेपाल में सदियों से चली आ रही 'कुमारी' परंपरा ने एक बार फिर दुनिया का ध्यान खींचा है। ढाई साल की आर्यतारा शाक्य को अब देवी तलेजु का जीवित अवतार माना जाएगा। यह परंपरा जितनी पवित्र है, उतनी ही रहस्यमय भी। एक छोटी बच्ची को क्यों मिलता है देवी का दर्जा? क्या है 32 गुणों और साहस की परीक्षा का सच?
Young Bharat News का यह एक्सप्लेनर आपको पड़ोसी देश नेपाल के प्राचीन और अनोखे बाल देवी के जीवन के अनदेखे पहलुओं से रूबरू कराएगा।
काठमांडू के ऐतिहासिक गलियारों में इस समय एक असाधारण उत्सव का माहौल है। ढाई साल की आर्यतारा शाक्य को नेपाल की नई शाही जीवित देवी 'कुमारी' के रूप में चुना गया है। यह सिर्फ एक चयन नहीं है, बल्कि एक बच्ची के जीवन का पूर्ण समर्पण है। अष्टमी तिथि के शुभ अवसर पर, आर्यतारा को तलेजू भवानी मंदिर ले जाया गया, जहां हजारों श्रद्धालु उनकी एक झलक पाने के लिए घंटों कतार में खड़े रहे।
आर्यतारा ने यह पद तृष्णा शाक्य से ग्रहण किया है, जिनका कुमारी काल किशोरावस्था में प्रवेश करते ही समाप्त हो गया।
कल्पना कीजिए, जिस उम्र में बच्चे खिलौनों से खेलते हैं, उस उम्र में एक बच्ची को देवत्व का भार संभालना पड़ता है। यह परंपरा नेपाल की सांस्कृतिक और धार्मिक जड़ों में कितनी गहराई तक समाई है, इसका प्रमाण है।
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कुमारी कौन हैं देवी तलेजु का ये जीवित अवतार?
'कुमारी' शब्द का अर्थ है कुंवारी या अविवाहित कन्या। इन्हें देवी तलेजु भवानी का जीवित, नश्वर रूप माना जाता है। तलेजु भवानी, जो कि स्वयं मां दुर्गा का एक उग्र और शक्तिशाली स्वरूप हैं, नेपाल के मल्ल राजाओं की कुल देवी थीं। यह परंपरा हिंदू और बौद्ध धर्म के बीच एक अद्भुत समन्वय को भी दर्शाती है, जहां दोनों धर्मों के अनुयायी कुमारी की पूजा करते हैं।
इस पद के लिए चयन प्रक्रिया बेहद जटिल, तांत्रिक और गोपनीय होती है। इसमें केवल शाक्य समुदाय की बच्चियों को ही शामिल किया जाता है, जिनके माता-पिता दोनों काठमांडू के स्थानीय शाक्य समुदाय से हों। यह एक ऐसी कसौटी है, जहां सिर्फ शारीरिक सुंदरता नहीं, बल्कि दैवीय गुणों और असाधारण निर्भीकता को परखा जाता है।
32 गुण और साहस की अग्निपरीक्षा कैसे होता है चयन?
क्या आप जानते हैं कि एक कुमारी में 32 विशिष्ट गुण होने अनिवार्य हैं? ये गुण न केवल शारीरिक होते हैं, बल्कि उनके स्वभाव, पवित्रता और आंतरिक शक्ति से भी संबंधित होते हैं।
शारीरिक शुद्धता: शरीर पर कोई घाव, दाग या निशान न हो। स्वस्थ दांत सभी 32 दांत स्वस्थ और सुंदर हों।
शांत स्वभाव: बच्ची का व्यवहार शांत, संतुलित और दैवीय गुणों से परिपूर्ण हो। असाधारण निर्भयता सबसे महत्वपूर्ण कसौटी, 'साहस की परीक्षा' पास करना।
डर को जीतना ही 'कुमारी' बनने की पहली शर्त
चयन प्रक्रिया का सबसे भयावह लेकिन निर्णायक चरण है 'साहस की परीक्षा'। बच्ची को एक अंधेरे कमरे या आंगन में ले जाया जाता है, जहां आधी रात को बलि दिए गए भैंसों और अन्य जानवरों के कटे हुए सिर रखे होते हैं। इस दौरान नकाबपोश पुरुष खून और बलि के बीच भयानक मुखौटे पहनकर नृत्य करते हैं और डरावनी आवाज़ें निकालते हैं।
इस पूरे अनुष्ठान का उद्देश्य बच्ची की निर्भीकता को मापना होता है। अगर बच्ची डर का कोई भी लक्षण दिखाती है, रोती है या विचलित होती है तो उसे देवी का अवतार बनने के योग्य नहीं माना जाता। जो बच्ची इन भयावह दृश्यों के बीच भी शांत, स्थिर और निडर बनी रहती है, वह ही 'कुमारी' चुनी जाती है। यह एक ऐसा मानसिक बलिदान है, जिसकी कल्पना भी कठिन है।
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'कुमारी घर' सोने के पिंजरे में एक दिव्य जीवन
चयन के बाद, बच्ची अपने माता-पिता के घर को छोड़कर 'कुमारी घर' में चली जाती है। यह घर, जिसे कुमारी बहल Kumari Bahal भी कहा जाता है, सभी आधुनिक सुविधाओं से दूर रखा जाता है। यह एक तरह से 'सोने का पिंजरा' है, जहां देवी का जीवन कठोर नियमों और अनुष्ठानों से बंधा होता है। सबसे बड़ा बलिदान माता-पिता का होता है।
परंपरा के अनुसार, माता-पिता को अपनी बेटी से नियमित रूप से मिलने की अनुमति नहीं होती है। वे अपनी बेटी को केवल उन 13 विशेष आयोजनों पर ही देख पाते हैं, जब वह साल में मंदिर से बाहर निकलती है। बेटी पास होते हुए भी दूर हो जाती है। यह भावनात्मक दूरी इस परंपरा का एक दुखद लेकिन अनिवार्य हिस्सा है।
सेवानिवृत्ति के बाद का जीवन
कुमारी का दूसरा अध्याय शाही कुमारी का कार्यकाल तब समाप्त हो जाता है जब वह पहली बार मासिक धर्म शुरू होने पर किशोरावस्था में प्रवेश करती है, या यदि उसे कोई गंभीर चोट लगती है जिससे खून बहता है। कार्यकाल समाप्त होने के बाद, वह सामान्य जीवन में लौट आती है।
लेकिन, क्या उसका जीवन सामान्य होता है? यहां एक पुरानी लोककथा है जो कई पूर्व कुमारियों के जीवन को प्रभावित करती है।
पूर्व कुमारियों से जुड़ी मिथक अविवाहित रहने का डर
नेपाली लोककथाओं के अनुसार, जो पुरुष पूर्व 'कुमारी' देवियों से विवाह करते हैं, उनकी मृत्यु कम उम्र में हो जाती है। इस डर से कई लड़कियां अविवाहित रह जाती थीं या उन्हें विवाह करने में कठिनाई होती थी। लेकिन समय के साथ, चीजें बदली हैं। सरकार और समाज ने इस संवेदनशील मुद्दे पर ध्यान दिया है।
आधुनिक बदलाव और समर्थन शिक्षा का अधिकार
अब पूर्व कुमारियों को मंदिर प्रांगण में निजी शिक्षकों से शिक्षा प्राप्त करने की अनुमति है। कुछ को टेलीविजन या अन्य मनोरंजन के साधन भी रखने की अनुमति मिली है। मासिक पेंशन नेपाल सरकार अब सेवानिवृत्त कुमारी देवियों को मासिक पेंशन देती है। यह एक महत्वपूर्ण कदम है जो उन्हें सामान्य जीवन में आर्थिक सहारा प्रदान करता है। यह सुनिश्चित करता है कि उनका बचपन भले ही देवत्व के लिए समर्पित रहा हो, लेकिन वयस्क जीवन उपेक्षा का शिकार न हो।
तलेजु भवानी मंदिर जहां से होती है कुमारी परंपरा की शुरुआत
'कुमारी' परंपरा सीधे तौर पर तलेजु भवानी मंदिर से जुड़ी हुई है। काठमांडू के दरबार स्क्वायर में स्थित यह मंदिर न केवल एक धार्मिक स्थल है, बल्कि नेपाल की सांस्कृतिक और ऐतिहासिक धरोहर का भी प्रतीक है।
स्थापना: इसे 16वीं शताब्दी में मल्ल वंश के राजा महेन्द्र मल्ल के शासनकाल में बनवाया गया था।
वास्तुकला: यह मंदिर पगोडा शैली में बना है और इसकी ऊंचाई लगभग 35 मीटर है। लकड़ी की अद्भुत नक्काशी, पौराणिक आकृतियों की मूर्तियां और तीन मंजिलें इसे भव्यता प्रदान करती हैं। यह मंदिर नेपाल के शक्ति और विश्वास का केंद्र है, जहां हर साल लाखों लोग सौभाग्य और आशीर्वाद पाने के लिए आते हैं। कुमारी का दर्शन करना स्वयं में एक शुभ शगुन माना जाता है।
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एक परंपरा, अनेक भावनाएं
नेपाल की 'कुमारी' परंपरा आस्था, इतिहास और रहस्य का एक ऐसा मिश्रण है, जो सदियों बाद भी कायम है। ढाई साल की आर्यतारा शाक्य अब केवल एक बच्ची नहीं हैं वह लाखों लोगों के लिए दैवीय शक्ति और आशा का प्रतीक हैं।
यह परंपरा बचपन के एक हिस्से का बलिदान मांगती है, लेकिन बदले में एक राष्ट्र की आध्यात्मिक चेतना को जीवंत रखती है। जैसे-जैसे आर्यतारा अपने नए दैवीय जीवन में प्रवेश करेंगी, यह उम्मीद की जाती है कि समाज और सरकार इस पवित्र परंपरा को मानवीय संवेदनाओं के साथ संतुलित करते हुए, पूर्व और वर्तमान कुमारियों के कल्याण को प्राथमिकता देगी।
यह परंपरा हमें यह भी सिखाती है कि आस्था और बलिदान की सीमाएं कितनी गहरी हो सकती हैं।
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