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Photograph: (X.com)
नई दिल्ली, वाईबीएन डेस्क ।अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के एच-1बी वीज़ा कार्यक्रम को लेकर उठाए गए कठोर कदम ने अमेरिका और भारत दोनों देशों में बहस छेड़ दी है। ट्रंप प्रशासन ने एच-1बी वीज़ा पर 100,000 डॉलर (लगभग 88 लाख रुपये) का वार्षिक शुल्क लगाने की घोषणा की है, जिसकी कड़ी आलोचना हो रही है।
इंडिया टुडे के अनुसार, ट्रंप के एच-1बी पर लिए गए फैसले को न केवल भेदभावपूर्ण बताया जा रहा है, बल्कि यह भी कहा जा रहा है कि यह अमेरिकी अर्थव्यवस्था को बड़ा नुकसान पहुंचा सकता है। वहीं, कई भारतीय हस्तियों ने इसे भारत के लिए एक अवसर के रूप में देखा है, जिससे प्रतिभाशाली भारतीय पेशेवर देश लौटकर अपने भविष्य का निर्माण कर सकते हैं।
अमेरिका में आलोचना की लहर
ट्रंप के इस फैसले का अमेरिका में विभिन्न क्षेत्रों के लोगों ने विरोध किया है। कैटो इंस्टीट्यूट के इमिग्रेशन स्टडीज के निदेशक डेविड जे बियर ने एक्स (पूर्व में ट्विटर) पर एक लंबी पोस्ट में लिखा कि भारतीय एच-1बी धारकों ने अमेरिका की अर्थव्यवस्था में सैकड़ों अरबों डॉलर का योगदान दिया है, लेकिन उन्हें हर कदम पर "भेदभावपूर्ण व्यवहार" का सामना करना पड़ता है।
उन्होंने कहा कि यह फैसला इन मेहनती और कानून का पालन करने वाले लोगों को "नौकरी चोरों" और "सुरक्षा खतरों" के रूप में पेश करता है। बियर ने ट्रंप के इस कदम को "अकल्पनीय" बताया और कहा कि यह उन लोगों के खिलाफ है जो अमेरिकी इतिहास में सबसे मेहनती और शांतिप्रिय हैं।
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भारतीय मूल के अमेरिकी डेमोक्रेटिक प्रतिनिधि सुहास सुब्रमण्यम ने भी ट्रंप के इस फैसले को "आर्थिक तोड़फोड़" करार दिया। उन्होंने चेतावनी दी कि यह कदम कंपनियों और वीज़ा धारकों दोनों के लिए बड़ी मुश्किलें पैदा करेगा। सुब्रमण्यम ने कहा कि यह सिर्फ एक अप्रवासन नीति नहीं है, बल्कि यह सीधे तौर पर अमेरिकी अर्थव्यवस्था पर हमला है।
डॉक्टर मिशेल एयू, जो एक चीनी-अमेरिकी चिकित्सक हैं, ने कहा कि एच-1बी वीज़ा पर 100,000 डॉलर की फीस अमेरिकी स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र को "तबाह" कर देगी। उन्होंने बताया कि अमेरिका में एक चौथाई मेडिकल रेजिडेंट और डॉक्टर अंतरराष्ट्रीय चिकित्सा स्नातक होते हैं, जो अक्सर ग्रामीण और कम सेवा वाले समुदायों में काम करते हैं।
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भारत की प्रतिक्रिया: अवसर और चुनौतियां
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जहां एक ओर अमेरिका में इस फैसले की निंदा हो रही है, वहीं भारत में इसे एक मिश्रित दृष्टिकोण से देखा जा रहा है। एडलवाइस म्यूचुअल फंड की सीईओ राधिका गुप्ता ने अपने अनुभव साझा करते हुए कहा कि 2008 के वित्तीय संकट के दौरान कई भारतीय छात्रों को मुश्किलों का सामना करना पड़ा था।
उन्होंने कहा कि आज के भारत में पेशेवर अवसर कहीं अधिक हैं और यह कदम उन भारतीयों के लिए एक सुनहरा मौका है जो विदेश में रहकर अपने देश में वापसी करना चाहते हैं।
उन्होंने एक भावनात्मक अपील करते हुए लिखा, "जब एक दरवाजा बंद होता है, तो कई अन्य दरवाजे घर पर खुलते हैं। और 2025 का भारत 2005 के भारत से कहीं ज्यादा रोमांचक जगह है। आओ, अब लौट चलें!"
पूर्व नीति आयोग के सीईओ अमिताभ कांत ने भी इस फैसले को "अमेरिका का नुकसान और भारत का लाभ" बताया। उन्होंने कहा कि 100,000 डॉलर की फीस अमेरिकी नवाचार को रोकेगी और भारत को बढ़ावा देगी।
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कांत ने कहा कि अमेरिका द्वारा वैश्विक प्रतिभा के लिए दरवाजे बंद करने से नवाचार की अगली लहर बेंगलुरु, हैदराबाद, पुणे और गुरुग्राम जैसे भारतीय शहरों में आएगी। उन्होंने कहा कि भारत के सबसे बेहतरीन डॉक्टर, इंजीनियर, वैज्ञानिक और इनोवकों को 'विकसित भारत' के निर्माण में योगदान करने का मौका मिलेगा।
हास्य कलाकार वीर दास ने भी एच-1बी धारकों की स्थिति पर सहानुभूति व्यक्त की। उन्होंने कहा कि अपने बच्चों की पढ़ाई, घर के कर्ज और परिवार के लिए पैसा भेजने जैसे तनाव के बीच यह फैसला उन पर एक अतिरिक्त बोझ है, जिसके लिए कोई योजना नहीं बनाई जा सकती।
व्हाइट हाउस का स्पष्टीकरण और भारत की चिंता
इस घोषणा के बाद, विशेष रूप से उन एच-1बी वीज़ा धारकों में अफरा-तफरी मच गई थी जो छुट्टी पर विदेश गए थे और समय पर वापस नहीं लौट पा रहे थे। उन्हें डर था कि उन्हें 100,000 डॉलर की फीस का भुगतान करना होगा। हालांकि, व्हाइट हाउस ने बाद में स्पष्ट किया कि यह फीस केवल नए आवेदकों पर लागू होगी, न कि मौजूदा वीज़ा धारकों पर।
भारत का विदेश मंत्रालय भी इस घटनाक्रम पर नजर बनाए हुए है। मंत्रालय ने कहा कि वह अमेरिका के एच-1बी वीज़ा कार्यक्रम में किए गए इन व्यापक बदलावों का बारीकी से अध्ययन कर रहा है। मंत्रालय ने चेतावनी दी है कि इस तरह के कदम परिवारों के लिए मानवीय व्यवधान पैदा कर सकते हैं।
कुल मिलाकर, ट्रंप प्रशासन का यह फैसला अमेरिका के लिए एक दोधारी तलवार साबित हो सकता है। जहां यह अल्पकालिक रूप से घरेलू नौकरियों को सुरक्षित करने के उद्देश्य से लिया गया है, वहीं विशेषज्ञों का मानना है कि यह दीर्घकालिक रूप से देश की नवाचार क्षमताओं और वैश्विक नेतृत्व को कमजोर कर सकता है। वहीं, भारत के लिए यह एक अवसर हो सकता है कि वह अपनी प्रतिभा को देश में ही रोककर अपनी अर्थव्यवस्था को और मजबूत करे।
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