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नई दिल्ली, वाईबीएन डेस्क । ब्रिटेन, कनाडा और ऑस्ट्रेलिया ने रविवार को फिलिस्तीन को स्वतंत्र और संप्रभु राष्ट्र के तौर पर मान्यता दी। एक आजाद फिलिस्तीनी देश की संभावनाओं को इससे नए पंख मिले हैं। हालांकि आजाद फिलिस्तीनी देश का वास्तविक गठन बहुत मुश्किल लगता है। इजरायल को अमेरिका का पूरा समर्थन अभी हासिल है और इजरायली सेनाएं गाजा में कहर ढा रही हैं लेकिन ब्रिटेन का फिलिस्तीन को मान्यता देना एक ऐतिहासिक क्षण है। दुनिया की कई समस्याओं और विवादों की तरह इजरायल-फिलिस्तीन विवाद की जड़ें भी ब्रिटेन के औपनिवेशिक काल में हैं। आज हम आपको ब्रिटेन की उस भूमिका के बारे में बताएंगे जिसकी वजह से एक महाविवाद की शुरुआत हुई लेकिन जिस पर चर्चा बेहद कम होती है।
ब्रिटेन की साम्राज्यवादी चालों की यह कहानी शुरू होती है प्रथम विश्व युद्ध से जब ब्रिटेन की क्षेत्रीय महत्वाकांक्षाओं और युद्धकालीन वादों ने एक जटिल स्थिति पैदा कर दी। उस समय ब्रिटिश सम्राज्य का सबसे बड़ा दुश्मन था ऑटोमन साम्राज्य लेकिन लंदन का इरादा ऑटोमन को हराने तक ही सीमित नहीं था बल्कि उसका औपनिवेशिक लालच और भी बहुत कुछ चाहता था।
तीन ब्रिटिश चालें
इजरायल-फिलिस्तीनी विवाद को खड़ा करने में यूके के इन तीनों कदमों ने अहम योगदान दिया :-
पहला : हुसैन-मैकमहोन पत्राचार, (1915-1916) - लंदन ने अरबों से ऑटोमन साम्राज्य से स्वतंत्रता का वादा किया।
दूसरा : साइक्स-पिकोट गुप्त समझौता : यह समझौता ब्रिटेन और फ्रांस के बीच हुआ जिसका मकसद ओटोमन साम्राज्य के मध्य पूर्वी क्षेत्रों को आपस में बांटना था। इस समझौते को रुस और इटली की सहमति हासिल थी।
तीसरी : बाल्फोर घोषणा (2, नवंबर 1917) : ब्रिटिश विदेश सचिव आर्थर जेम्स बाल्फोर ने ब्रिटिश ज्यूइश कम्युनिटी (British Jewish Community) के लीडर लॉर्ड रोथ्सचाइल्ड को पत्र लिखकर फिलिस्तीन में 'यहूदियों के लिए राष्ट्रीय घर (National Home For The Jewish People) की स्थापना का समर्थन व्यक्त किया। बता दें उस समय फिलिस्तीन ऑटोमन साम्राज्य के आधीन था जो अपने अंतिम चरण में था।
बाल्फोर के पत्र में कहा गया कि यह स्थानीय गैर-यहूदी आबादी के नागरिक और धार्मिक अधिकारों को प्रभावित नहीं करेगा। हालांकि, इस वादे को लागू करने में हुआ बिल्कुल उल्टा क्योंकि अरब आबादी के अधिकारों की अनदेखी हुई, जिससे तनाव बढ़ा। यह समझौता हुसैन-मैकमहोन पत्राचार (1915-1916) में अरबों को स्वतंत्रता के वादे के विपरीत था।
फिलिस्तीन के लिए ब्रिटिश मेंडेंट
प्रथम विश्व युद्ध में ऑटोमन सम्राज्य की हार हुई। इसके बाद लीग ऑफ नेशंस ने मेंडेट प्राशसनिक व्यवस्था शुरू की। इसके तहत विजयी देशों (मुख्य रूप से ब्रिटेन और फ्रांस) को ओटोमन और जर्मन साम्राज्यों के पूर्व क्षेत्रों को शासित करने का अधिकार दिया गया। कागजों पर इस मेंडेंट व्यवस्था का उद्देश्य इन क्षेत्रों को स्वतंत्रता के लिए तैयार करना था। हालांकि इतिहासकार इसे औपनिवेशिक शासन से बहुत अलग नहीं मानते। कई इतिहासकार इसे औपनिवेशवाद का एक परोक्ष रूप मानते हैं।
मेंडेट व्यवस्था के तहत ब्रिटेन को फिलिस्तीन और इराक मिले। यहीं से यह महाविवाद बेहद खराब शक्ल अख्तियार करता चला गया। इस दौरान यहूदी आप्रवासन में वृद्धि हुई, जिससे अरब-यहूदी तनाव बढ़ा। जायोनी (यहूदी) संगठनों ने जमीनें खरीदीं और बस्तियां स्थापित कीं। इससे अरबों में असुरक्षा बढ़ी। कई बार अरब-यहूदी हिंसा हुई, लेकिन ब्रिटेन न तो तनाव को बढ़ाने से रोक पाया न विवाद का कोई हल पेश कर पाया।
बढ़ता अरब-यहूदी तनाव
अरब, ब्रिटिश नीति और यहूदी अप्रवासन नीतियों से असंतुष्ट थे जिसके खिलाफ उन्होंने विद्रोह कर दिया (1936-1939 का अरब विद्रोह)। यह एक बड़ा विद्रोह था। ब्रिटेन ने इसे सैन्य बल से दबाया। आधिकारिक ब्रिटिश आंकड़ों के अनुसार, सेना और पुलिस ने 2,000 से अधिक अरबों को मार डाला, 108 को फांसी दी गई, और 961 लोग 'गिरोह और आतंकवादी गतिविधियों' के कारण मारे गए। इन आंकड़ों पर विवाद रहा है। फिलिस्तीन इतिहासकार वालिद खालिदी के मुताबिक अरब हताहतों का आंकड़ा काफी बढ़ा था।
1939 व्हाइट पेपर: इसे ब्रिटेन ने अरब-यहूदी तनाव को नियंत्रित को करने के लिए जारी किया। इसमें 10 वर्षों के भीतर एक स्वतंत्र फ़िलिस्तीनी राज्य में एक यहूदी राष्ट्रीय निवास (Jewish national home) की स्थापना की बात कही गई। यहूदी आप्रवासन को 75,000 तक सीमित किया। इसे यहूदी और अरबों दोनों ही पक्षों ने स्वीकार नहीं किया। यहूदियों ने इसे इसलिए खारिज किया क्योंकि यह बाल्फोर घोषणा के खिलाफ था। अरबों ने भी इसे पूरी तरह स्वीकार नहीं किया, क्योंकि यह उनकी पूर्ण स्वतंत्रता की मांग को पूरा नहीं करता था।
ब्रिटेन ने यूएन को सौंपी फिलिस्तीनी समस्या
फिर आया 1947 में ब्रिटेन ने फिलिस्तीन समस्या को संयुक्त राष्ट्र को सौंप दिया। यूएन ने प्रस्ताव 181 (नवंबर 1947) पारित किया, जिसमें फिलिस्तीन को यहूदी और अरब राज्य में बांटने का प्रस्ताव था। यहूदी स्टेट को 56% भूमि और अरब राज्य को 43% मिलनी थी, जबकि यरुशलम अंतरराष्ट्रीय क्षेत्र होता। यहूदियों ने इसे स्वीकार किया, लेकिन अरबों ने अस्वीकार कर दिया, क्योंकि उनकी आबादी और भूमि स्वामित्व ज्यादा होने के बावजूद उन्हें कम हिस्सा मिला।
यह है ब्रिटेन की वो एतिहासिक भूमिका जो इजरायल फिलिस्तीन विवाद को खड़ा करने में सबसे अहम है। ऐसे में ब्रिटेन की तरफ फिलिस्तीनी राज्य को मान्यता देना एक ऐसा कदम है जो आज भले ही औपचारिक लगे लेकिन भविष्य में गहरे बदलाव का प्रतीक बन सकता है।
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