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Photograph: (Google)
नई दिल्ली, वाईबीएन डेस्क । पाकिस्तान की सेना Pakistan Army कोई आम राष्ट्रीय सेना नहीं बल्कि एक "किराए पर लड़ने वाली फ़ौज" है जिसके दाम ऊंचे हैं। साल 1970 में जॉर्डन के 'ब्लैक सितंबर' में पाक ब्रिगेडियर ज़िया-उल-हक़ ने 25000 फिलिस्तीनियों का कत्लेआम कराया था। यह कहानी है उस सेना की जो पैसों की खातिर किसी भी देश के लिए लड़ने को तैयार रहती है- ताज़ा कड़ी है सऊदी अरब के साथ परमाणु सुरक्षा समझौता।
इंडिया टुडे के अनुसार, फिलिस्तीनियों के खून से लथपथ पाक सेना का इतिहास जो ख़ुद को 'इस्लामी गणराज्य' का सबसे मज़बूत स्तंभ बताती है- उसकी हकीकत उतनी ही स्याह है जितनी कि उसके द्वारा लड़े गए युद्ध हैं। यह सेना दशकों से उस देश के लिए लड़ती रही है जिसने सबसे बड़ी रक़म दी है।
साल 1970 का ब्लैक सितंबर इसी क्रूर इतिहास का सबसे खूनी पन्ना है, जब जनरल ज़िया-उल-हक़ के नेतृत्व में पाकिस्तानी सैनिकों ने हज़ारों फिलिस्तीनी नागरिकों को बेरहमी से मार डाला था। यह कोई शांति मिशन या प्रशिक्षण अभ्यास नहीं था यह एक भाड़े के सैनिक Mercenary Force का काम था, जो जॉर्डन के राजा हुसैन की सत्ता बचाने के लिए किया गया।
पाकिस्तान के रक्षा मंत्री और पूर्व प्रधानमंत्री भी इस बात को स्वीकार कर चुके हैं कि उनकी सेना ने 'गंदा काम' किया है।
दशकों पुराना सौदा जब डॉलर ने तय की पाक सेना की वफ़ादारी
क्या किसी देश की सेना इतनी नीचे गिर सकती है कि वह अपनी राष्ट्रीय ज़िम्मेदारी छोड़कर, पैसों के लिए किसी और की लड़ाई लड़ने लगे? एक कार्यशील लोकतंत्र के लिए यह असामान्य हो सकता है, लेकिन पाकिस्तान के लिए यह दशकों से एक सामान्य 'व्यवसाय' रहा है। शीत युद्ध के दौर में जब अमेरिका साम्यवाद के ख़िलाफ़ अपनी ताक़त बढ़ा रहा था, पाकिस्तान की सेना को भरपूर डॉलर मिले। इन डॉलरों ने सेना को मज़बूत किया, लेकिन उसकी वफ़ादारी देश के बजाय विदेशी 'चैक' की तरफ़ मोड़ दी।
पाकिस्तान आर्मी के 'किराए' पर लड़ने के कुछ बड़े उदाहरण
- 1970 ब्लैक सितंबर जॉर्डन में 25000 तक फिलिस्तीनी नागरिकों का नरसंहार किया।
- 1979 मक्का की ग्रैंड मस्जिद पर क़ब्ज़े के दौरान सऊदी सेना की मदद
- 1991 खाड़ी युद्ध के दौरान सऊदी अरब की रक्षा के लिए पाकिस्तानी डिवीजन की तैनाती।
- 2000 के दशक 'आतंकवाद के ख़िलाफ़ जंग' के नाम पर अमेरिका के लिए 'डर्टी वॉर' लड़ना।
- 2024 में सऊदी अरब के साथ नया रक्षा समझौता और परमाणु सुरक्षा का वादा।
ये घटनाएं साफ़ बताती हैं कि पाकिस्तानी सेना का मिशन सिर्फ़ 'देश की सेवा' नहीं बल्कि सबसे बड़े बोली लगाने वाले की सेवा करना रहा है।
जॉर्डन का खूनी खेल 25000 फिलिस्तीनियों को किसने मारा?
1970 की शुरुआत में, जॉर्डन में किंग हुसैन के ख़िलाफ़ फिलिस्तीनी लड़ाकों ने विद्रोह कर दिया था। इराक़ और सीरिया ने उनका समर्थन किया, जिससे राजा की सत्ता हिल गई। ठीक इसी समय, ब्रिगेडियर ज़िया-उल-हक़ के नेतृत्व में एक पाकिस्तानी दल जॉर्डन की सेना को 'प्रशिक्षण' देने के लिए पहुंचा। जैसे ही अम्मान में अपहरण, हत्या के प्रयास और सड़कों पर लड़ाई छिड़ी, किंग हुसैन ने फ़ैसला किया कि अब बहुत हो गया।
ज़िया-उल-हक़ ने अपने 'प्रशिक्षण' के काम को दरकिनार करते हुए सीधे लड़ाई में हिस्सा लिया। उनके मार्गदर्शन में टैंकों और सैनिकों ने फिलिस्तीनी विद्रोहियों पर हमला किया। यह एकतरफ़ा और क्रूर कार्रवाई थी।
ब्लैक सितंबर की त्रासदी के मुख्य बिंदु
हत्याकांड की अवधि: मात्र 11 दिन।
मृतकों की संख्या अनुमानित: 25000 तक जिनमें से अधिकांश निहत्थे नागरिक थे।
ज़िया-उल-हक़ की भूमिका: उन्होंने टैंकों और सैनिकों का सक्रिय मार्गदर्शन किया जिससे फिलिस्तीनी लड़ाके कुचल दिए गए और जॉर्डन का राजतंत्र बच गया।
इज़रायली रक्षा मंत्री मोशे दायान का बयान
उन्होंने कहा था कि हुसैन ने "11 दिनों में उतने फिलिस्तीनियों को मार डाला, जितना इज़रायल 20 वर्षों में भी नहीं मार सका।"
इस खूनी कांड के बाद, पाकिस्तानी पत्रकार शैख़ अज़ीज़ ने ज़िया-उल-हक़ को अपने ही देश में 'फिलिस्तीनी कातिल' के रूप में याद किया। यह कत्लेआम ज़िया के करियर का टर्निंग पॉइंट था, जिसने उन्हें कुछ सालों बाद पाकिस्तान का राष्ट्रपति बना दिया।
इमरान खान का कबूलनामा 'पाकिस्तान एक किराए की बंदूक'
पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री इमरान खान ने साल 2022 में खुले तौर पर अपने देश को 'किराए की बंदूक' Hired Gun कहा था। उन्होंने अमेरिका के साथ पाकिस्तान के संबंधों को 'मास्टर-स्लेव' मालिक-ग़ुलाम का रिश्ता बताया था।
अप्रैल में, पाकिस्तान के रक्षा मंत्री ख़्वाजा आसिफ़ ने एक और चौंकाने वाला कबूलनामा किया। उन्होंने कहा कि उनका देश पिछले तीन दशकों से अमेरिका और पश्चिम के लिए 'गंदा काम' कर रहा था, जिसमें आतंकवादी संगठनों का समर्थन, प्रशिक्षण और फंडिंग शामिल थी।
आसिफ़ ने इसे पाकिस्तान की सबसे बड़ी भूल बताया, जिसके लिए देश को हज़ारों नागरिकों की मौत का दर्द झेलना पड़ा। "हमने लगभग तीन दशकों तक संयुक्त राज्य अमेरिका और पश्चिम, जिसमें ब्रिटेन भी शामिल है, के लिए यह गंदा काम किया है।"
सऊदी डील किराए के 'धंधे' में एक और नया चैप्टर
परमाणु शक्ति से लैस पाकिस्तान ने सऊदी अरब के साथ एक आपसी रक्षा समझौता किया है। यह सौदा पाकिस्तान को न केवल 3 बिलियन डॉलर का लोन दिलाता है बल्कि रियाद को एक तरह से इस्लामाबाद के परमाणु सुरक्षा छाते के नीचे भी ले आता है। यह एक 'भाड़े के सैनिक अर्थव्यवस्था' Mercenary Economics का क्लासिक उदाहरण है।
कनाडा स्थित पाकिस्तानी मूल के पत्रकार अली मुस्तफ़ा और इस्लामाबाद के एक थिंक-टैंक से जुड़े जुनेद अहमद जैसे कई बुद्धिजीवियों ने पाकिस्तानी सेना को 'किराए की सेना' बताया है। जुनेद अहमद ने यहां तक ​​लिखा है "पाकिस्तान की सेना देश की सबसे शक्तिशाली संस्था नहीं है। यह एक भाड़े का उद्यम है जिसके साथ राज्य सिर्फ़ एक 'बाद का विचार' है। इसे न्यूक्स और बेहतर यूनिफॉर्म के साथ 'ब्लैकवाटर' Blackwater समझिए।"
ब्लैकवाटर एक कुख्यात निजी सैन्य कंपनी थी जो मुनाफ़े को राष्ट्रीय कर्तव्य से ऊपर रखती थी।
जिम्बाब्वे से लेकर यमन तक, क्यों नहीं रुकता यह सिलसिला?
सऊदी अरब के लिए लड़ाई और प्रशिक्षण की कहानी 1960 के दशक में शुरू हुई थी। यमन में मिस्र के नेता गमाल अब्देल नासिर के अरब राष्ट्रवाद को रोकने के लिए सऊदी अरब ने पाकिस्तान को बुलाया। पाकिस्तानी पायलटों ने सऊदी जेट उड़ाए और यमनी विद्रोहियों पर बमबारी की। 1983 में, ज़िम्बाब्वे को अपनी वायु सेना के लिए एक योग्य नेता की तलाश थी। पाकिस्तान ने अपने एक सजायाफ्ता एयर मार्शल मोहम्मद अज़ीम दौदपोता को भेजा, जो ज़िम्बाब्वे की वायु सेना के चीफ़ ऑफ एयर स्टाफ बने।
यह सब एक ही पैटर्न दिखाता है ज़रूरत के समय, सबसे ज़्यादा पैसा देने वाले के लिए अपनी सेवाएं बेचना। पाकिस्तान की सेना एक राष्ट्रीय सेना कम और एक व्यावसायिक उद्यम ज़्यादा बन गई है। आतंकवाद, सेना और खुफिया तंत्र को 'निर्यात' करना अब पाकिस्तान की पहचान बन गई है- एक ऐसी हकीकत जो एल्गोरिदम से भी तेज़ इंसान के दिमाग को झकझोरती है।
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