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Kanpur: गरीब -अमीर का एक ही राग, मिलकर गाते फाग...

एक ज़माना था, अपने शहर में गली-मोहल्ले जमकर फाग होता था। भंग की तरंग में कोई मस्ती में झूमता तो कोई ठिठोली करता, लेकिन अब वो बात नहीं। होल्लारों की टोली में बैठे फाग संयोजक भानु प्रसाद द्विवेदी बताते हैं कि फाग की परंपरा स्वतंत्रता संग्राम से जुड़ी है।

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Pratiksha Parashar
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कानपुर, वाईबीएन संवाददाता।

एक ज़माना था, अपने शहर में गली-मोहल्ले जमकर फाग होता था। भंग की तरंग में कोई मस्ती में झूमता तो कोई फाग की धुन में ठिठोली करता, लेकिन अब वो बात नहीं। होल्लारों की टोली में बैठे फाग संयोजक भानु प्रसाद द्विवेदी बताते हैं कि फाग की परंपरा स्वतंत्रता संग्राम से जुड़ी है। तब वसंत पंचमी से लेकर रामनवमी तक जमकर फाग होता था। भारतीय संस्कृति की इस परंपरा से हर तबके के लोग जुड़े थे। एकता और देश प्रेम का संदेश होता था। ढोल, मंजीरे, झाँझर के बीच फाग की तान पर हर कोई मस्त हो जाता और फिर एक-दूसरे के गले मिलकर होली की शुभकामनाएं दी जातीं। होली के रंगों से रंगे लोग फाग के बीच मस्ती करते, लेकिन सब मर्यादित रहते थे।

फाग सुनने आते थे स्वतंत्रता क्रांतिकारी

द्विवेदी जी बताते हैं फाग गायन की संस्था सनातन संकीर्तन मंडल बहुत पुरानी संस्था है। फाग सुनने महान चंद्रशेखर आज़ाद और सालिग़राम शुक्ल सहित कई क्रन्तिकारी भी आते थे। इस दौरान वे कुछ नौजवानों का चयन कर उन्हें भी अपने साथ आजादी की लड़ाई में शामिल कर लेते थे। लेकिन अब इस तकनीकी युग में नौजवानों का इस विधा से मोह भंग हो चुका है।  वे सोशल मीडिया में दृष्टि लगाए रहते हैं।

जब सरसईया घाट पर गाया था फाग

वह किस्सा बताते हुए द्विवेदी जी की आंख चमक उठती है कि किस तरह सरसईया घाट पर उस ज़माने के जिलाधिकारी श्री तिवारी ने सबके साथ बैठकर मस्त होकर फाग गाया था। उस टोली में झल्ली वाले, मजदूर और कर्मचारी से लेकर शहर के बड़े कारोबारी भी मौजूद थे। कोई भेदभाव नहीं, बहुत आत्मीयता और प्यार। द्विवेदी जी ने बताया कि राधा कृष्ण मिश्र वैध जी के देहांत के बाद उनके हाथ में संस्था और फाग मंडली की कमान आ गई। देहांत के पहले उन्होंने ही मुझसे इस विधा को आगे बढ़ाने की इच्छा जताई थी, तो आज भी हम उसे निभाने की कोशिश में जुटे हैं। एक बार जो नौजवान फाग सुनने आ जाता है, हर्षित और उत्साहित होकर इससे जुड़ जाता है, लेकिन अब वो बात नहीं।

नहीं होते रडुआ और महामूर्ख सम्मेलन 

बुजुर्ग शंकरदत्त मिश्र बताते हैं कि अब कानपुर में रडुआ और महामूर्ख सम्मेलन भी नहीं होते l इसमें बड़े नेता, अफसर, सेनानी, कारोबारी शामिल होते थे। उन्हें मूर्ख और महामूर्ख की उपाधि दी जाती थे, लेकिन कोई बुरा नहीं मानता था, अब वैसा सम्मलेन हो तो लाठी चल जाए। सहनशीलता और आत्मीयता ख़त्म सी हो गई है।

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