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होली की सदियों पुरानी परंपरा संजोए हुए लखनऊ Photograph: (YBN)
होली का त्योहार भेदभाव मिटाकर सभी दिलों को प्रेम, सौहार्द और भाईचारे के रंग से सराबोर कर देता है। हर वर्ष यह पर्व फाल्गुन मास की पूर्णिमा तिथि को मनाया जाता है। इस त्योहार पर अदब के शहर लखनऊ की फिजा की आपसी भाईचारे और मोहब्बत की मिठास घुल जाती है। राजधानी में यह त्योहार सदियों पुरानी परंपरा का हिस्सा रहा है। होली का उत्साह वसंत पंचमी से ही शुरू हो जाता है। मोहल्लों, गलियों और चौराहों पर सबसे पहले रेंडी के पेड़ गाड़े जाते हैं। फिर धीरे-धीरे लकड़ियां इकट्ठा करने से लेकर मंडप सजाने और होलिका दहन तक हर कोई इसमें अपनी भागीदारी निभाता है।
दिलों को जोड़ने वाला पर्व
होली सिर्फ रंगों का नहीं दिलों को जोड़ने का पर्व है। पुराने लखनऊ के चौक, अमीनाबाद और कैसरबाग की गलियों में होली का सुरूर हफ्तों पहले ही नजर आने लगता है। होलिका दहन की तैयारियों से लेकर गुलाल उड़ाने तक हर कदम पर गंगा-जमुनी तहजीब की झलक दिखाई देती है। हिंदू-मुस्लिम सभी मिलकर इस रंगोत्सव को हर्षोल्लास से मनाते हैं। फूलों से सजे मंडप, फाग के सुर और अबीर-गुलाल की बौछार यहां की होली को और खास बना देती है। हर घर में पकवानों की खुशबू फैलती है और चौपालों पर हंसी-ठिठोली का दौर चलता है। लखनऊ की होली केवल एक त्योहार नहीं, बल्कि सदियों से चली आ रही परंपरा है। जो प्रेम और सौहार्द का संदेश देती है।
नवाबी परंपरा से खेली जाती है फूलों की होली
पुराने लखनऊ में नवाबी दौर की परंपराओं को आज भी संजोकर रखा गया है। यहां होली के रंग रासायनिक नहीं, बल्कि प्राकृतिक होते हैं। जो विभिन्न फूलों से बनाए जाते हैं। टेसू के फूल, गेंदे के फूल और चुकंदर से तैयार किए गए रंगों से होली खेली जाती है। सबसे पहले अलग-अलग फूलों को लेकर इन्हें धोया जाता है। फिर धीमी आंच पर उबाला जाता है। फिर धूप में सुखाकर इन्हें पीस लिया जाता है और पीसकर इनसे रंग तैयार किया जाता है। इतिहासकारों के अनुसार, नवाब आसफुद्दौला के समय में भी इसी तरह की होली खेली जाती थी। खासतौर पर नवाबों के महलों में फूलों से रंग तैयार कर होली मनाने की परंपरा थी। हालांकि, समय के साथ इस परंपरा में बदलाव आया है। लेकिन कुछ इलाकों में इसे आज भी निभाया जाता है।
पं. बिरजू महाराज की प्रस्तुति का गौरव
कैसरबाग क्षेत्र में होली के उत्सव की धूम पूरे शहर में प्रसिद्ध है। यहां के सब्जी मंडी क्षेत्र में सोनकर समाज द्वारा भव्य होली समारोह आयोजित किया जाता है। इस आयोजन की खासियत यह है कि यहां मंच पर कथक सम्राट पं. बिरजू महाराज और उनके शिष्यों ने भी अपनी प्रस्तुतियां दी हैं। साल 1956 में रामचंद्र सोनकर ने यहां होली उत्सव समिति बनाई थी, जो आज भी उसी परंपरा को जीवित रखे हुए है। होलिका दहन के लिए यहां भव्य मंडप सजाए जाते हैं और रातभर नृत्य-संगीत चलता रहता है। इसी के साथ फूलों से सजे खूबसूरत मंडपों की प्रतियोगिता भी होती है। इस क्षेत्र की होली का आकर्षण दूर-दूर तक लोगों को खींच लाता है। जो सांप्रदायिक सौहार्द और हिंदू-मुस्लिम एकता की मिसाल पेश करती है।
अमीनाबाद में 47 साल पहले होली महोत्सव की शुरुआत
अमीनाबाद में भी होली का उत्सव बेहद खास होता है। यहां रंगों की मस्ती के साथ गीत-संगीत का माहौल भी देखने को मिलता है। इस होली महोत्सव की शुरुआत 1978 में हुई थी। तब से यह लखनऊ के प्रमुख आयोजनों में शामिल हो गया है। स्थानीय व्यापारी और क्षेत्र के निवासी मिलकर इसे भव्य रूप देते हैं। इस आयोजन की खासियत यह है कि इसमें सभी समुदायों के लोग पूरे जोश और उत्साह के साथ शामिल होते हैं। यह परंपरा हर साल हजारों लोगों को एक साथ जोड़ने का काम करती है।
चौक की जुलूस मेले की रौनक
लखनऊ का चौक इलाका होलियारों के लिए किसी जन्नत से कम नहीं है। यहां होली के दिन भव्य जुलूस निकाला जाता है। इसमें हजारों लोग शामिल होते हैं। शाम को पूरे इलाके में मेला लगता है। जहां खानपान से लेकर मनोरंजन तक की पूरी व्यवस्था होती है। अगले दिन यहां विशेष कवि सम्मेलन ‘चकल्लस’ आयोजित किया जाता है। इसमें देशभर के नामी कवि भाग लेते हैं। चौक चौराहे के आसपास विभिन्न स्थानों पर लोग मिल-जुलकर होलिका दहन करते हैं। इस क्षेत्र में अमृतलाल नागर की गंगा-जमुनी परंपरा को आज भी जीवंत रखा जाता है। होली के दौरान यहां की सड़कों पर गुलाल उड़ता हुआ नजर आता है, जो उत्सव के रंग में चार चांद लगा देता है।
सराय माली खां में होलिका दहन की अनूठी परंपरा
सराय माली खां चौराहा लखनऊ का एक एतिहासिक स्थान है। जहां होलिका दहन की अनूठी परंपरा देखने को मिलती है। यहां होलिका को फूलों से सजाया जाता है और विशेष फाग गीतों के साथ दहन किया जाता है। वसंत पंचमी के दिन खंभ गाड़ने की रस्म पूरी की जाती है और महा शिवरात्रि पर ठंडाई बांटने की परंपरा निभाई जाती है। होली के दिन चौक से निकलने वाले जुलूस भी इस चौराहे से गुजरते हैं। जिससे यहां का नजारा और भव्य हो जाता है। सराय माली खां की होली में स्थानीय कलाकारों द्वारा सांस्कृतिक प्रस्तुतियां भी दी जाती हैं। यहां के लोग पारंपरिक तरीके से होली मनाने में विश्वास रखते हैं।
नवाबों की होली में लाखों के रंगों की बौछार
लखनऊ में नवाबी दौर की होली आज भी यादगार है। नवाबों के महलों में फूलों से बनी रंगोली और प्राकृतिक रंगों से होली खेली जाती थी। इतिहास के पन्ने पलटें तो पता चलता है कि अवध के नवाब आसफुद्दौला को होली खेलने का बेहद शौक था। उन्होंने 22 साल तक शासन किया और हर साल होली के लिए पांच लाख रुपये खर्च करते थे। अवध के छठे नवाब सआदत अली खान ने भी इसी शाही अंदाज में होली खेली थी।
पारंपरिक होली अब नए इलाकों तक पहुंची
पुराने शहर की पारंपरिक होली का असर अब नए इलाकों में भी दिखने लगा है। गोमती नगर, इंदिरा नगर और अलीगंज जैसे क्षेत्रों में सोसायटी और अपार्टमेंट में रहने वाले लोग भी होली को विशेष तरीके से मनाते हैं। कई जगहों पर रेजिडेंट वेलफेयर एसोसिएशन इसकी तैयारियां हफ्तों पहले से शुरू कर देती है। खास बात यह है कि यहां बच्चे हर घर से चंदा इकट्ठा कर होली की तैयारियां करते हैं। यहां विशेष पकवान, डीजे और रंग-बिरंगे फव्वारे और की धूम रहती है।
100 साल बाद होली पर बनन रहा त्रिग्रही योग
वैदिक ज्योतिष अनुसार ग्रह अपनी चाल में बदलाव करके राजयोग और त्रिग्रही योग बनाते हैं। जिसका असर मानव जीवन और पृथ्वी पर देखने को मिलता है। इस साल होली पर 100 साल त्रिग्रही योग बन रहा है। यह योग सूर्य, बुध और शुक्र की युति से मीन राशि में बनेगा। इस योग के बनने से कुछ राशियों की किस्मत चमक सकती है। साथ ही धन- दौलत में वृद्धि हो सकती है।
बुराई पर अच्छाई की जीत का प्रतीक
होलिका दहन हिंदू धर्म में बुराई पर अच्छाई की जीत का प्रतीक माना जाता है। पौराणिक मान्यता के अनुसार प्रह्लाद को बचाने के लिए भगवान विष्णु ने होलिका को जलाया था। इसी परंपरा के तहत हर साल होलिका दहन किया जाता है। कहा जाता है कि विधि पूर्वक और नियमों के साथ होलिका दहन किया जाए तो सभी चिंता व परेशानियां भी उसी अग्नि में स्वाहा हो जाती हैं और परिवार में सुख-शांति का वास होता है।
रंगों वाली होली 14 मार्च को
13 मार्च दिन गुरुवार को होलिका दहन किया जाएगा और अगले दिन यानी शुक्रवार को रंगों वाली होली खेली जाएगी। हर वर्ष फाल्गुन मास की पूर्णिमा तिथि को होलिका दहन किया जा है और इस छोटी होली भी कहा जाता है। होलिका दहन में तिथि, भद्रा और शुभ मुहूर्त का विशेष ध्यान रखा जाता है। लेकिन होलिका दहन पर इस बार सुबह 10 बजकर 35 मिनट से रात 11 बजकर 26 मिनट तक भद्रा का साया रहने वाला है। शास्त्रों के अनुसार, होलिका दहन कभी भी भद्रा काल में नहीं करना चाहिए।