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राष्ट्र को दृढ़ और संगठित बनाने का शताब्दी पर्व

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना 1925 में डॉ. हेडगेवार ने राष्ट्र को संगठित करने और व्यक्ति निर्माण के माध्यम से राष्ट्र निर्माण की भावना को मूर्त रूप देने के उद्देश्य से की। आज संघ शताब्दी वर्ष में प्रवेश कर चुका है।

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Ajit Kumar Pandey
CM YOGI AND RSS CHIEF MOHAN BHAGWAT

योगी आदित्यनाथ और मोहन भागवत। Photograph: (X.com)

योगी आदित्यनाथ, मुख्यमंत्री उत्तर प्रदेश |

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना, राष्ट्र को संगठित करने और राष्ट्र की सेवा की भावना को मूर्त रूप देने के उद्देश्य से की गई थी। आज संघ के शताब्दी वर्ष में प्रवेश करने पर यह अवसर केवल संघ के लिए ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण राष्ट्र के लिए महत्वपूर्ण है। यह केवल एक संगठन की यात्रा का शताब्दी पर्व नहीं है, बल्कि यह राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया को गति देने का शताब्दी पर्व है। 

डॉ. हेडगेवार ने 1925 में संघ की स्थापना की। उनका यह प्रयास केवल एक संगठन खड़ा करने तक सीमित नहीं था, बल्कि यह राष्ट्र की ऊर्जा को एकत्रित कर उसे सकारात्मक दिशा में मोड़ने का एक विराट संकल्प था। संघ ने व्यक्ति निर्माण को राष्ट्र निर्माण का मूल मंत्र माना और इसी मार्ग पर निरंतर आगे बढ़ता रहा। आज संघ की शाखाएं देश के कोने-कोने में फैली हुई हैं। लाखों स्वयंसेवक न केवल संगठन की कार्यशालाओं और शाखाओं से जुड़े हैं, बल्कि समाज के विभिन्न क्षेत्रों में सक्रिय भूमिका निभा रहे हैं। 

51000 से अधिक दैनिक शाखाएं, 83000 स्थानों पर सप्ताहिक शाखाएं और 129000 स्थानों पर मासिक शाखाएं इस संगठन की विराटता को प्रदर्शित करती हैं। संघ के स्वयंसेवकों ने शिक्षा, सेवा, स्वास्थ्य, पर्यावरण, महिला सशक्तिकरण और आदिवासी कल्याण के क्षेत्रों में अनुकरणीय कार्य किए हैं। राष्ट्र निर्माण में योगदान डॉ. हेडगेवार के बाद अनेक महापुरुषों ने स्वयंसेवकों के समूह को नई ऊर्जा और आत्मा से प्रेरित किया। 

स्वयंसेवक के व्यक्तित्व को गढ़ने की यज्ञभूमि हैं शाखाएं

माधव सदाशिव गोलवलकर ‘गुरुजी’ ने संगठन को वैचारिक आधार प्रदान किया और यह स्पष्ट किया कि भारत की पहचान केवल भौगोलिक नहीं, बल्कि सांस्कृतिक एकात्मता में निहित है। इसी भावना को संघ ने निरंतर जीवित रखा और संगठन के माध्यम से समाज के प्रत्येक वर्ग में आत्मविश्वास और आत्मबल का संचार किया। संघ की शाखाओं का तेज विस्तार संघ का लक्ष्य मात्र संख्या बढ़ाना नहीं है, बल्कि हर स्वयंसेवक में राष्ट्रभक्ति और सेवा की भावना जागृत करना है। 

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शाखाएं स्वयंसेवक के व्यक्तित्व को गढ़ने की यज्ञभूमि हैं। यहीं से उसकी यात्रा ‘मैं’ से ‘हम’ की ओर शुरू होती है। यही शाखाएं व्यक्ति को परिवार, समाज और राष्ट्र के प्रति कर्तव्यनिष्ठ बनाती हैं। संकट काल में सेवा 1947 के विभाजन की पीड़ा हो, 1962 का भारत-चीन युद्ध हो या प्राकृतिक आपदाएं– हर संकट काल में संघ के स्वयंसेवक सबसे आगे खड़े रहे। 

सामाजिक समरसता के पंच परिवर्तन का आह्वान

सीमित संसाधनों में भी उन्होंने सेवा को ही अपना धर्म माना। चाहे शरणार्थियों की सेवा करनी हो या आपदा पीड़ितों को राहत पहुंचानी हो, संघ के कार्यकर्ता सदैव सक्रिय रहे। संघ ने सामाजिक बुराइयों जैसे छुआछूत, ऊंच-नीच और भेदभाव के विरुद्ध भी सतत संघर्ष किया। “न हिन्दू पतितो भवेत्” की भावना को आगे बढ़ाते हुए सामाजिक समरसता की दिशा में महत्वपूर्ण कदम उठाए।

वर्तमान का संकल्प आज जब भारत विकास की ओर अग्रसर है, तब नई चुनौतियां हमारे सामने हैं। संघ ने पंच परिवर्तन– स्वबोध, सामाजिक समरसता, कुटुंब प्रबोधन, नागरिक शिष्टाचार और पर्यावरण को वर्तमान काल की आवश्यकताओं का समाधान बताया है।

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— साभार अमर उजाला

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