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United Nations: शांति का प्रहरी या महाशक्तियों का मोहरा?: प्रोफेसर अनूप कुमार

प्रोफेसर अनूप कुमार द्वारा लिखित यह लेख संयुक्त राष्ट्रसंघ की स्थापना, उद्देश्य, उपलब्धियों और विफलताओं का विश्लेषण करता है। यह बताता है कि संस्था ने कई बार सफलता पाई, लेकिन महाशक्तियों के स्वार्थ और वीटो के कारण कई बार असफल रही।

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Dr. Swapanil Yadav
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संयुक्त राष्ट्र संघ Photograph: (इंटरनेट मीडिया)

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शाहजहांपुर वाईबीएन संवाददाता। विश्व के अनेक महत्त्वपूर्ण राष्ट्रों ने महायुद्धों की पृष्ठभूमि तैयार की और बड़े तैश में आकर मानवता विरोधी महायुद्धों को अंजाम भी दिया, लेकिन इन युद्धोन्मादी राष्ट्रों की नज़रें जब विनाशकारी महायुद्धों के परिणामों पर पड़ीं तो वे सिहर उठे और भविष्य में ऐसा न करने व अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति और सहयोग की बातें करने लगे। प्रथम विश्व युद्ध के बाद ऐसे ही वातावरण में अमरीकी राष्ट्रपति वुडरो विल्सन के चैदह सिद्धान्तों के आधार पर राष्ट्रसंघ का निर्माण किया गया था, लेकिन हिटलर व मुसोलिनी के तानाशाहीपूर्ण कृत्यों, स्वयं राष्ट्रसंघ के जन्मदाताओं द्वारा अपनायी गयी तुष्टीकरण की नीतियों तथा कुछ वैधानिक दोषों के कारण राष्ट्रसंघ अपने उद्देश्यों में असफल रहा। लेनिन ने राष्ट्रसंघ की खिल्ली उड़ाते हुए इसे ‘चोरों की रसोई’ तक कह दिया था। अन्ततः विश्व पुनः 1939 ई. में दूसरे महायुद्ध की विभीषिका में जा फँसा। संघर्ष के दौरान ही निराशा व असफलाताओं पर विजय प्राप्त करने की आशा से एक बार फिर विश्वराज्य का स्वप्न देखा गया जिसे साकार रूप देने के उद्देश्य से संयुक्त राष्ट्रसंघ की स्थापना की गयी।

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30 अक्तूबर 1943 ई. में सोवियत संघ, चीन, ब्रिटेन, अमरीका के विदेश मन्त्रियों की बैठक हुई, जिसमें अन्तर्राष्ट्रीय संगठन की शीघ्र स्थापना पर जोर दिया गया जिससे शान्ति एवं सुरक्षा को अक्षुण्ण बनाये रखने हेतु विश्व के सभी देश उसके सदस्य बन सकें। 1944 ई. को वाशिंगटन के पास डम्बर्टन ओक्स सम्मेलन में उक्त चार देशों के प्रतिनिधियों ने प्रस्तावित अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति संगठन के प्रस्तावों का प्रारूप तैयार किया। जिसके आधार पर 26 जून 1945 ई. को सैन फ्रांसिस्को में भारत समेत 50 देशों के प्रतिनिधियों ने संयुक्त राष्ट्रसंघ अधिकारपत्र पर हस्ताक्षर किये। इसी के साथ ही 24 अक्तूबर 1945 ई. को संयुक्त राष्ट्रसंघ अस्तित्व में आ गया। 

संयुक्त राष्ट्रसंघ के अधिकारपत्र में अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति एवं सुरक्षा, छोटे-बड़े राष्ट्रों के समान अधिकारों तथा सशस्त्र सेनाओं के उपयोग से बचने और विश्व के लोगों को आर्थिक एवं सामाजिक प्रगति के पथ पर उन्मुख रहने के लिए अन्तर्राष्ट्रीय प्रणाली के उपयोग पर बल दिया गया है। 

 संयुक्त राष्ट्रसंघ जैसी अन्तर्राष्ट्रीय संस्था का गठन चाहे ब्रिटेन, अमरीका, फ्रांस आदि मित्र शक्तियों की जर्मनी, जापान आदि धुरी राष्ट्रों पर विजय के उपलक्ष्य में ही हुआ हो लेकिन इस संस्था ने सम्पूर्ण विश्व में शक्ति संतुलन स्थापित करके मानवता को महाविनाश से बचाने का प्रयास किया है। इसमें उन त्रुटियों को दूर करने का प्रयास किया गया है जिनके कारण पूर्ववर्ती संस्था राष्ट्रसंघ असफल हुआ था। संयुक्त राष्ट्रसंघ के अधिकार घोषणापत्र में सन्धिवार्ता, मध्यस्तता, न्यायिक जाँच आदि साधनों के अतिरिक्त आवश्यकतानुसार सैन्यकार्यवाही का भी अधिकार सुरक्षा परिषद को प्राप्त है। यद्यपि संयुक्त राष्ट्रसंघ की कोई स्थायी सेना नहीं है लेकिन गम्भीर समस्या के समय शान्ति सेना का गठन सदस्य राष्ट्रों के सैनिकों द्वारा किया जाता है। इस संस्था ने अनेक विवादों को सुलझाने तथा सामाजिक, आर्थिक व स्वास्थ्य आदि क्षेत्रों में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है। 

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यह बात अलग है कि अनेक ऐसे मुद्दे भी हैं जिनका समाधान खोजने में यह संस्था असफल रही है, लेकिन इसका कारण यह भी है कि निषेधाधिकारधारी महाशक्तियों व अन्य राष्ट्रों के पूर्वाग्रही और पक्षपाती रवैइये ने संयुक्त राष्ट्रसंघ के अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति स्थापना के उद्देश्यों को बाधित किया जैसे- बर्लिन समस्या (1948-49), क्यूबा प्रक्षेपास्त्र समस्या (1962), हंगरी समस्या (1956), चेकोस्लोवाकिया समस्या (1968), वियतनाम संघर्ष (1968-73), अफगानिस्तान समस्या (1979), पोलैण्ड समस्या (1981-82) आदि। यही नहीं सैकड़ों छोटे-बड़े विवादों व युद्धों जैसे- भारत-चीन, भारत-पाकिस्तान युद्ध, इजराइल युद्ध, इथोपिया, सोमालिया संघर्ष, वियतनाम-कम्पूचिया संघर्ष, ईरान-ईराक संघर्ष आदि सभी का समाधान सम्बन्धित राष्ट्रों ने स्वयं ढूंढा। उक्त समस्याओं के समाधान में संयुक्त राष्ट्रसंघ की कोई भूमिका नहीं थी। इसके अतिरिक्त विश्व के अनेक देशों से संबंधित समस्यायें हैं जिनका समाधान निकालने में संयुक्त राष्ट्रसंघ असफल रहा जैसे- इजराइल-फिलिस्तीन समस्या (1947 से आज तक), कश्मीर समस्या (1947 से आज तक), उत्तरी एवं दक्षिणी कोरिया (1950-53), अरब-इजराइल युद्ध (1967-73), डाइफर समस्या-सूडान (2003 से आज तक), यूक्रेन-रूस (2014 से आज तक), यमन समस्या (2015 से आज तक), रोहिग्या समस्या (2017 से आज तक), यूक्रेन-रूस युद्ध (2022 से आज तक), इजराइल-हमास युद्ध (2023 से आज तक)।

अभी हाल में इजराइल-ईरान युद्ध विश्व शान्ति में बहुत बड़ी बाधा बन सकता है। उल्लेखनीय है कि 13 जून 205 से यह युद्ध प्रारम्भ हुआ लेकिन 21-22 जून को अमरीका ने ईरान के परमाणु केन्द्रों पर बम्बारी करके युद्ध के रूख को मोड़ दिया। ईरान-इजराइल युद्ध में अमरीका के प्रवेश से तीसरे विश्वयुद्ध की आशंका पैदा हो गयी है क्योंकि चीन, रूस व विश्व के अनेक देशों के आर्थिक हित इससे प्रभावित हो रहे हैं। 

अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर परमाणु ऊर्जा के शान्तिपूर्ण उपयोग के लिए जनवरी 1946 ई. मंे महासभा द्वारा ‘परमाणु ऊर्जा आयोग’ का गठन किया गया, लेकिन महाशक्तियों ने इस उद्देश्य को भी पूरा नहीं होने दिया। अमरीका ने नवम्बर 1952 ई. में परमाणु बम से भी खतरनाक हाइड्रोजन बम के निर्माण हेतु परीक्षण कर डाला, एक वर्ष के भीतर ही सोवियत संघ ने भी ऐसा कर दिखाया। फ्रांस तथा चीन भी इसी विनाशकारी सफर के हमराही बन गये। निःशस्त्रीकरण योजना छोटे और कमजोर देशों पर ही थोपी जाती रही, बड़े राष्ट्र तो इसकी धज्जियाँ उड़ा रहे थे। 1995 ई. में फ्रांस ने परमाणु परीक्षणों की झड़ी लगा दी। 1998 में भारत और पाकिस्तान ने भी परमाणु बम तथा हाइड्रोजन बम बनाने के लिए परीक्षण करके विश्व को आश्चर्य में डाल दिया।

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संयुक्त राष्ट्रसंघ का महत्वपूर्ण अंग सुरक्षा परिषद का गठन व कार्य करने के नियम दोषपूर्ण हैं। महाशक्तियों द्वारा किया गया निषेधाधिकार का प्रयोग सदैव विवादास्पद रहा जिससे सुरक्षा परिषद के कार्यों में निरन्तर बाधा पहुँचती रही है। संयुक्त राष्ट्रसंघ के पहले महासचिव त्रिग्वेली के उद्गार इस सन्दर्भ में महत्वपूर्ण हैं कि- संयुक्त राष्ट्रसंघ महाशक्तियों के विवादों को सुलझाने में असफल रहा लेकिन संघर्ष को शान्तिपूर्ण सीमाआंे के भीतर रखा है और अग्रिम शान्तिपूर्ण समझौते के लिए मार्ग प्रशस्त किया है। संयुक्त राष्ट्रसंघ अमरीका व सोवियत संघ जैसी महाशक्तियों से उत्पन्न विषम परिस्थितियों में भी सामंजस्य स्थापित करने व समस्याओं को येनकेन प्रकारेण सुलझाता रहा जैसे- ईरान समस्या (1946), भारत-बंग्लादेश समस्या, इण्डोनेशिया की समस्या (1947), बार्लिन समस्या (1948), कांगो-साइप्रस समस्या (1964), अफगानिस्तान समस्या (1988)। 1990 ई. में संयुक्त राष्ट्रसंघ द्वारा नामीबिया को स्वतन्त्रता व सम्प्रभुता प्रदान कराना तीसरी दुनिया के लिए क्रान्तिकारी कदम था। संयुक्त राष्ट्रसंघ अपनी स्थापना से लेकर आज तक लगभग दो सौ से अधिक क्षेत्रीय समस्याओं का शान्तिपूर्ण समाधान निकाल चुका है।

निःसन्देह संयुक्त राष्ट्रसंघ ने अनेक समस्याओं का शान्तिपूर्ण हल ढूंढा और अनेक समस्याओं से पैदा हुए असन्तोष व उग्र वातावरण को आपसी समझौते से शान्त किया। जिन समस्याओं में महाशक्तियों का दखल था उनका हल संयुक्त राष्ट्रसंघ नहीं निकाल सका। इसलिए शान्तिदायी विश्वसंस्था की अहमियत बनाये रखने के लिए शक्तिशाली राष्ट्रों समेत विश्व के समस्त देशों को संयम तथा मानवतावादी दृष्टिकोण अपनाना होगा जिससे संयुक्त राष्ट्रसंघ विश्व को आलोकित करने वाला प्रकाशपुंज बन सके।

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प्रो. अनूप कुमार Photograph: (Self)
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प्रो. अनूप कुमार समन्वयक- जनंसचार एवं पत्रकारिता विभाग डाॅ. राममनोहर लोहिया अवध विश्वविद्यालय,अयोध्या।

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