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गोड्डा में आदिवासी समाज की अलग परंपरा, विजयादशमी पर करते हैं महिषासुर की खोज

गोड्डा में विजयादशमी का पर्व इस बार भी संथाल आदिवासी समाज की अनोखी परंपरा के साथ मनाया गया। आदिवासी युवक सैनिक वेश में पंडालों तक पहुंचे और महिषासुर की खोज की। उनका मानना है कि महिषासुर उनके पुरखे थे जिनका वध छल से हुआ था। बाद में यह विरोध सांकेतिक रूप

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MANISH JHA
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गोड्डा, वाईबीएन डेस्क : विजयादशमी का पर्व पूरे देश में मां दुर्गा की विजय के रूप में मनाया जाता है, लेकिन झारखंड के गोड्डा जिले में यह दिन एक अलग ही रूप दिखाता है। यहां संथाल आदिवासी समाज विजयदशमी को शोक और प्रतीकात्मक विरोध के तौर पर मनाता है। 

सैनिक वेश में पंडालों तक पहुंचते हैं आदिवासी युवक

गोड्डा जिले के विभिन्न पूजा पंडालों में हर साल विजयादशमी के अवसर पर संथाल समाज के लोग विशेष परंपरा निभाते हैं। वे पारंपरिक ढंग से सैनिक का वेश धारण करते हैं और समूह बनाकर पंडाल में पहुंचते हैं। वहां पहुंचकर वे लोगों से जोर-जोर से पूछते हैं बताओ, बताओ! हमारा राजा महिषा कहां है?” इस दृश्य को देखने के लिए बड़ी संख्या में लोग इकट्ठा होते हैं।

 महिषासुर को मानते हैं पुरखा और इष्ट

आदिवासी समाज का मानना है कि महिषासुर वास्तव में उनके पूर्वज थे, जिनका नाम महिषा सोरेन था। उनका विश्वास है कि मां दुर्गा ने छल से महिषासुर का वध किया था। यही कारण है कि संथाल समाज विजयादशमी के दिन अपनी नाराजगी जताता है। पूजा पंडालों में मौजूद पुजारी उन्हें शांत करने के लिए गंगाजल और तुलसी का जल देते हैं और कहते हैं कि महिषासुर को मोक्ष प्राप्त हुआ है तथा अधर्म पर धर्म की जीत हुई है। 

अनोखी परंपरा, लेकिन मैत्रीपूर्ण माहौल

गोड्डा का बलबड्डा दुर्गा मेला करीब दो सौ साल पुराना है और यहां यह परंपरा हर साल निभाई जाती है। विरोध के बाद आदिवासी समाज भी मेले और उत्सव का हिस्सा बन जाता है। जानकारों के अनुसार यह एक सांकेतिक विरोध है, जिससे आदिवासी समाज अपनी असुर वंशज पहचान को याद करता है। वरिष्ठ पत्रकार डॉ. दिलीप कुमार के अनुसार, यह परंपरा उनकी सांस्कृतिक जड़ों को मजबूत करने का प्रतीक है। वहीं आदिवासी मामलों के जानकार हवलदार किस्कू बताते हैं कि यह अनोखा प्रदर्शन मैत्रीपूर्ण वातावरण में होता है और सभी धर्मों के प्रति सम्मान का संदेश देता है।

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Jharkhand Tribal Woman
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